Saturday, 11 November 2017

जरबेरा फूल की खेती

जरबेरा फूल की खेती (Gerbera flower farming)


https://smartkhet.blogspot.com/2017/11/Gerbera-flower-farming.html



जरबेरा एक विदेशी और सजावटी फूल का पौधा है जो पूरी दुनिया में उगाया जाता है और जिसे ‘अफ्रीकन डेजी’ या ‘ट्रांसवाल डेजी’ के नाम से जाना जाता है।  इस फूल की उत्पत्ति अफ्रीका और एशिया महादेश से हुई है और यह ‘कंपोजिटाए’ परिवार से संबंध रखता है। भारतीय महाद्वीप में, जरबेरा कश्मीर से लेकर नेपाल तक 1200 मीटर से लेकर 3000 मीटर की ऊंचाई तक पाया जाता है। इसकी ताजगी और ज्यादा समय तक टिकने की खासियत की वजह से इस फूल का इस्तेमाल पार्टियों, समारोहों और बुके में किया जाता है। भारत के घरेलु बाजार में इसकी कीमत काफी अच्छी है।

भारत में जरबेरा कट फूल के प्रमुख उत्पादक राज्य-

पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल और अरुणाचलप्रदेश।

भारत में जरबेरा की अधिक उपजाऊ वाली संकर किस्में- 


लाल रंगीन- रुबी रेड, डस्टी, शानिया, साल्वाडोर, तमारा, फ्रेडोरेल्ला, वेस्टा और रेड इम्पल्स

पीला रंगीन- सुपरनोवा, नाडजा, डोनी, मेमूट, यूरेनस, फ्रेडकिंग, फूलमून, तलासा और पनामा

नारंगी रंगीन- कोजक, केरैरा, मारासोल, ऑरेंज क्लासिक और गोलियाथ

गुलाबी रंगीन- रोजलिन और सल्वाडोर

मलाई रंगीन- फरीदा, डालमा, स्नो फ्लेक और विंटर क्वीन

सफेद रंगीन- डेल्फी और व्हाइट मारिया

बैंगनी रंगीन- ट्रीजर और ब्लैकजैक

गुलाबी रंगीन- टेराक्वीन, पिंक एलीगेंस, एसमारा, वेलेंटाइन और मारमारा

जलवायु- 

जरबेरा फूलों को उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय प्रदेश दोनों ही तरह की जलवायु में पैदा किया जा सकता है। ऐसे फूलों की खेती उष्णकटिबंधीय जलवायु में खुले खेतों में की जा सकती है। ऐसे फूल पाला वाली स्थिति को लेकर संवेदनशील होते हैं, इनकी खेती पौधा घर (गरम घर), जालीदार पर्दा वाले घरों में उपोष्णकटिबंधीय या समशीतोष्ण जलवायु में की जाती है। जरबेरा की खेती के लिए दिन का सर्वोत्कृष्ट तापमान 20 डिग्री से 25 डिग्री सेंटीग्रेड और रात्रिकालीन तामपमान 12 डिग्री से 15 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच आदर्श माना जाता है।

मिट्टी-

मिट्टी अच्छी तरह से सूखी, हल्की, उपजाऊ, हल्की क्षारीय या प्रकृति में तटस्थ हो। जरबेरा की खेती के लिए पीएच का मान 5.5 से 6.5सबसे उपयुक्त मानी जाती है। जैसा कि पता है कि जरबेरा पौधे की जड़ें मिट्टी के काफी अंदर तक जाती हैं (करीब 60 सेमी), ऐसे में मिट्टी सुराखदार होनी चाहिए और आंतरिक जलनिकासी (50 सेमी गहराई) अच्छी होनी चाहिए ताकि जड़ों का विकास सर्वोत्कृष्ट हो सके।

भूमि या खेत की तैयारी-

देसी हल या ट्रैक्टर से खेत की तीन बार अच्छी तरह से जुताई करें ताकि खेत अच्छी तरह से तैयार हो जाए। क्यारी को 30 सेमी ऊंचा, एक मीटर से डेढ़ मीटर तक चौड़ा और दो क्यारियों के बीच 35 सेमी से 50 सेमी की जगह छोड़ते हुए तैयार करें। अच्छी तरह से गला हुआ फार्म की खाद, बालू और धान की भूसी को 2:1:1 के अनुपात में मिलाकर तैयार की हुई क्यारियों पर डालें।

 मिट्टी का रोगाणुनाशन या कीटाणुनाशन-

जरबेरा की खेती से पहले फसल को मिट्टी जनित बीमारियों से बचाने के लिए मिट्टी का विसंक्रमण या रोगाणुनाशन अच्छी तरह से जरूर किया जाना चाहिए। मुख्य रुप से मिट्टी जनित तीन तरह के रोगाणु होते हैं, उदाहरण के तौर पर, फुसेरियम, फाइटोफथोरा और पाइथियम। अगर मिट्टी का विसंक्रमण नहीं किया गया तो ये रोगाणु पूरी फसल को बर्बाद कर देंगे। तैयार की गई मिट्टी की क्यारियों को मिथाइल ब्रोमाइड (30 ग्राम प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र) का घोल या दो फीसदी फोरमेल्डिहाइड (प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र में 5 लीटर पानी में 100 एमएल फोरमोलिन) का घोल या मिथाइल ब्रोमाइड (30 ग्राम प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र) के घोल से धुंआ करना चाहिए। धुंआ किए गए क्यारियों को एक प्लास्टिक शीट से कम से कम तीन से चार दिनों के लिए ढंक दें। क्यारियों से रसायन को निकालने के लिए इसमे पानी डालना चाहिए।

पौधारोपण का मौसम-

जरबेरा की खेती वसन्त ऋतु के साथ-साथ ग्रीष्म ऋतु में भी की जा सकती है। जरबेरा को अच्छी और अधिकता के साथ रोशनी की जरूरत होती है, डेढ़ वर्षीय ऊतक संवर्धन के लिए इसकी रोपाई वसन्त ऋतु में (जनवरी से मार्च) करने से बहुत अच्छा रहता है। एक, डेढ़ और दो वर्षीय ऊतक संवर्धन के लिए ग्रीष्म ऋतु (जून से जुलाई) अनुकूल मानी जाती है। रोपाई या पौधा रोपण के लिए शरद और शीत ऋतु (नवंबर से दिसंबर) की अनुशंसा नहीं की जाती है क्योंकि इस दौरान उच्च तापमान खर्च होता है और रोशनी की अधिकता में कमी पाई जाती है। अगस्त के आखिरी में या सितंबर में रोपाई के काम को नजरअंदाज करना चाहिए क्योंकि यह शीत ऋतु को बर्दाश्त नहीं कर सकता है।

प्रजनन या प्रसारण-

व्यावसायिक तौर पर जरबेरा के पौधा का प्रजनन पौधे की महीन जड़ (चूषक) और ऊतक संवर्धन के माध्यम से होता है। जरबेरा की खेती में दो तरीके के प्रजनन का इस्तेमाल किया जाता है, विभाजन और सूक्ष्म प्रजनन का।

विभाजन-

 इस पद्धति में, प्रजनन जून-जुलाई महीने में पेड़ों के झुरमुट या गुच्छ में विभाजन कर के किया जाता है और इसी पद्धति का आमतौर पर इस्तेमाल किया जाता है।

सूक्ष्म प्रजनन-

 तेज और बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए यह पद्धति दिन-ब-दिन बहुत तेजी से लोकप्रिय होती जा रही है। इस पद्धति में फूल का सिर, शाखा का सिरा, फूल की कली, पुष्पवृन्त, फुनगी (बाली) और पत्ती की बीच वाली नस का इस्तेमाल पूर्ववर्ती पौधे के तौर पर की जाती है।

पौधारोपण की पद्धति-

क्यारी में जरबेरा की खेती हवा के बहाव और जलनिकास को बेहतर करता है। पौधारोपण के दौरान जब जड़ की व्यवस्था स्थापित होती है उस वक्त जरबेरा के पौधे के शिखर को मिट्टी के स्तर से एक से दो सेमी ऊपर रखना चाहिए और जमीन के स्तर से नीचे रखना चाहिए।

 दो पौधों में अंतराल-

पंक्ति या कतार के भीतर 25 से 30 सेमी का अंतराल और कतारों के बीच 30 से 40 सेमी की दूरी होनी चाहिेए ताकि प्रति वर्ग मीटर 7 से 10पौधे आ जाएं।

खाद और ऊर्वरक-

जरबेरा फूल की अच्छी बढ़त और बेहतरीन पैदावार के लिए खेत में भरपूर मात्रा में जैव खाद और दूसरे महत्वपूर्ण और कम महत्वपूर्ण पोषक तत्व इस्तेमाल करें। जरबेरा की खेती में डाले जाने वाले खाद और ऊर्वरक की मात्रा निम्न है-
– प्रति वर्ग मीटर 8 से 9 किलोग्राम फार्म की खाद का इस्तेमाल करें।
– पौधारोपण के शुरुआती तीन महीनों के दौरान नाइट्रोजन, फॉस्फेट और पोटाश (एनपीके) का 12:15:20 ग्राम इस्तेमाल करें।
– चौथे महीने के बाद जब फूल आना शुरू हो जाता है तब नाइट्रोजन, फॉस्फेट और पोटाश (एनपीके) 15:10:13 ग्राम प्रति वर्ग मीटर प्रति महीना इस्तेमाल करें। इन्हें दो-दो टुकड़े में बांट दें और प्रति दो सप्ताह के अंतराल पर इस्तेमाल करें।
– सूक्ष्म-पोषक तत्वों का इस्तेमाल करें- कैल्सियम, बोरोन, कॉपर और मैग्नेशियम 0.15 फीसदी की दर से प्रति लीटर 1.5 ग्राम होना चाहिए जिन्हें चार सप्ताह में एक बार छिड़काव करें। इससे जरबेरा फूल की गुणवत्ता काफी बढ़ जाती है।

सिंचाई-

पौधारोपण के तुरंत बाद सिंचाई की जरूरत होती है और जड़ें अच्छी तरह से जड़ जमा ले इसके लिए एक महीने तक लगातार सिंचाई करते रहें। उसके बाद प्रति दो दिन पर एक बार टपक सिंचाई की जानी चाहिए। इसमें प्रति पौधा 4 लीटर 15 मिनट के लिए सिंचाई की जानी चाहिए। प्रति पौधा प्रति दिन पानी की औसत जरूरत 700 मिली लीटर होती है।

घास-फूस नियंत्रण-

जरबेरा की खेती में घास-फूस नियंत्रण एक महत्वपूर्ण अभियान है और यह कार्य पौधारोपण की शुरुआत के तीन महीने तक दो सप्ताह में एक बार करना चाहिए। तीन महीने के बाद, अगला घास-फूस नियंत्रण का कार्य 30 दिनों के अंतराल पर किया जाना चाहिए। जब कभी जरूरत हो हाथ से घास-फूस को निकालने का काम करना चाहिए। निम्न घास-फूस नियंत्रण अभियान का पालन करें-
– आठ सप्ताह (दो महीने) के जरबेरा फूल की कली को निकाल दें और उसके बाद पुष्पन यानी विकसित होने के लिए छोड़ दें।
– जड़ों में पानी, खाद के अच्छी तरह अवशोषण के लिए और जड़ों में हवा के अच्छी तरह आवागमन के लिए दो सप्ताह में एक बार मिट्टी को उलट-पलट कर दें।
– हमेशा पुरानी पत्तियों को हटा दें ताकि नई पत्तियां विकास कर सकें।

हानिकारक कीट और बीमारियां-

जरबेरा के पौधे में पाए जाने वाले प्रमुख कीट-

एफिड्स-
 इस पर नियंत्रण के लिए दो एमएल पानी में डिमेथोएट 30 ईसी मिलाकर छिड़काव करें।
थ्रिप्स-
 इस पर नियंत्रण के लिए दो एमएल पानी में डिमेथोएट 30 ईसी मिलाकर छिड़काव करें।
व्हाइटफ्लाई-
 इस पर नियंत्रण के लिए दो एमएल पानी में डिमेथोएट 30 ईसी मिलाकर छिड़काव करें।
रेड स्पाइडर माइट-
 इस पर नियंत्रण के लिए 0.4 एमएल पानी में अबामेसटीन 1.9 ईसी मिलाकर छिड़काव करें।
नेमाटोड-
 इस पर नियंत्रण के लिए पौधारोपण के वक्त मिट्टी में ढाई किलोग्राम सूडोमोनासफ्लूरेसेंस प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करें।

मुख्य रोग-

फूल की कली का सड़ जाना-
 इस पर नियंत्रण के लिए प्रति लीटर पानी में दो ग्राम की दर से कॉपर ऑक्सीक्लोराइड को मिलाकर छिड़काव करें।
पाउडर फफूंद- 
इस पर नियंत्रण के लिए अजोक्सीस्ट्रोबिन की एक ग्राम मात्रा एक लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।

फसल कटाई-

आमतौर पर पौधारोपण के तीन महीने के बाद जरबेरा के पौधे में पुष्पण शुरू हो जाता है। जब फूल पूरी तरह खुले हुए होते हैं या डंठल में बाहरी फूल की दो से तीन कतारें सीधी खड़ी रेखा में आ जाती हैं तब फसल की कटाई की जाती है। फूल की जिंदगी को और लंबा करने के लिए फूल के डंठल को सोडियम हाइपोक्लोराइड (6 से 7 मिली प्रति एक लीटर में) के घोल में पांच घंटे के लिए डूबा देना चाहिए।

फसल कटाई के बाद-

डंठल के आधार से करीब दो से तीन सेमी उपर काटना चाहिए और उसे ताजा क्लोरीन मिले पानी में रखना चाहिेए। फूल को छांट लेना चाहिए, एकरुपता के लिए क्रम में लगा देना चाहिए और कार्टून के बक्से में पैक कर देना चाहिए।

पैदावार-

कोई भी फसल की पैदावार खेत प्रबंधन के तौर-तरीकों और मिट्टी की किस्मों पर निर्भर करता है। खुले तौर पर और पौधा घरों में जरबेरा की खेती करने से निम्न पैदावार होती है-
– खुले मैदान में या जालीदार शेड की खेती- 140 से 150 कटे हुए फूल प्रति वर्ग मीटर प्रति साल पैदावार की आस होती है।
– पौधा घरों में खेती- 225 से 250 कटे हुए फूल प्रति वर्ग मीटर प्रति साल हासिल किया जा सकता है।

सौ बात की एक बात-

यह एक बेहतरीन फायदेमंद उगाई जानेवाली फसल है जिसका पूरे भारत में और स्थानीय बाजार में भी बेहतरीन मूल्य मिलता है।

Monday, 6 November 2017

बहु कटाई वाली ज्वार की खेती


https://smartkhet.blogspot.com/2017/11/farming-of-tide.html



भारत में  मात्र 4 प्रतिशत भूमि पर चारे की खेती की जाती है तथा एक गणना के अनुसार भारत में 36 प्रतिशत हरे चारे एवं 40 प्रतिशत सूखे चारे की कमी है | अत: बढती हुई आबादी एवं घटते हुए कृषि क्षेत्रफल को ध्यान में रखते हुए हमें उन चारा फसलों की खेती करनी होगी जो लम्बे समय तक पशुओं को पोष्टिक चारा उपलब्ध कराने के साथ साथ हमारी जलवायु में आसानी से लगाई जा सके |
शरद ऋतू में बरसीम, जई, रिजका, कुसुम आदि की उपलब्धता मार्च के पहले पखवाड़े तक बनी रहती है किन्तु बहु कट चारा ज्वार से पशुओं को लम्बे समय तक हरा चारा आसानी से मिल सकता है  ज्वार का चारा स्वाद एवं गुणवत्ता में बहुत अच्छा होता है |
शुष्क भार के आधार पर  ज्वार चारे में औसत 9 से 10 प्रतिशत प्रोटीन, 8-17 प्रतिशत शर्करा, 30-32 प्रतिशत फाइबर, 65-72 प्रतिशत एन.डी. एफ., 36 प्रतिशत सेलुलोज एवं 21 से 26 प्रतिशत हेमी सेलुलोज पाया जाता है |
ज्वार की पानी उपयोग करने की क्षमता भी अन्य चारा  फ़सलों की तुलना में अधिक है। शीघ्र बढवार एवं अधिक चारा उत्पादन क्षमता एवं कम पानी में भी अधिक उत्पादन देने के कारण यह  एक आदर्श चारा फसल है|
सामान्यत: एक कटान वाली ज्वार में 50 प्रतिशत पुष्प अवस्था आने तक एक विषैला तत्व (हाइड्रोसायनिक अम्ल) असुरक्षित मात्रा में विद्यमान रहता है  अत: इन किस्मों की कटाई के लिए  पुष्प अवस्था आने का अथवा 75 से 80 दिन का इंतजार करना पड़ता है | किन्तु बहुकट चारा ज्वार सूडान घास के गुण तथा सिचाई की दशाओं में खेती करने के कारण बुआई के 50 से 60 दिन में पशुओं को खिलाने के योग्य हो जाती है  तथा एक से  अधिक कटाई लेने के कारण यह लम्बे समय तक पशुओ को चारा  उपलब्ध कराने में सक्षम है |

चारा ज्वार की बहु कटाई वाली किस्में:

चारा उत्पादन हेतु भारत में ज्यादातर किसान ज्वार की स्थानीय किस्में लगाते है जो कम उत्पादन देने के साथ-साथ कीट एवं रोगों से प्रभावित होती है | अत: किसानो को अधिक उत्पादन देने वाली बहु कटाई चारा ज्वार किस्मों का अपने क्षेत्र के अनुरूप चयन करना चाहिए |
विगत कुछ वर्षो में विभिन्न कृषि जलवायु वाली परिस्थितियों के लिए राष्टीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर ज्वार की बहु कटाई वाली बहुत सी किस्में विकसित की गई है | किसान अपने क्षेत्र के अनुरूप संस्तुत किस्म का चयन कर अधिक से अधिक उत्पादन ले सकता है |

एस. एस. जी.-59-3:

 यह किस्म सम्पूर्ण भारत में लगाई जा सकती है  तथा  प्रति हेक्टेयर 600 से 700 क्विंटल हरा चारा एवं 150 क्विंटल सुखा चारा देती है| इस किस्म में 55 से 60 दिन में फूल आते है तथा यह लम्बे समय तक हरा चारा देने में सक्षम है इसका तना लम्बा, पतला  एवं कम  रसदार एवं कम मीठा होता है | इस किस्में बीज उत्पादन की समस्या रहती है तथा साथ ही साथ यह रोगों के प्रति सहिष्णु भी है |

एम. पी. चरी:

 इस किस्म का तना लम्बा एवं कम  रसदार, पत्तियां मध्यम लम्बी, पतली तथा मध्य शिरा सफेद होती है तथा इस किस्म में हाइड्रोसायनिक अम्ल कम होता है तथा इस किस्म में 65 से 70 दिन में फूल आते है | यह किस्म रोगों के प्रति सहिष्णु होने के साथ साथ ग्रीष्म ऋतू के लिए उपयुक्त  है तथा  सम्पूर्ण भारत में लगाई जा सकती है | इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 400 से 500 क्विंटल हरा चारा एवं 95 से 110 क्विंटल सुखा चारा मिलता है |

पूसा चरी 23:

 यह किस्म उत्तरी भारत में लगाई जा सकती है तथा प्रति हेक्टेयर 500 से 550 क्विंटल हरा चारा एवं 160 क्विंटल सुखा चारा देती है | इस किस्म का तना पतला, कम रस दार एवं कम मीठा  होता है तथा इसकी  पत्तीयां पतली एवं मध्य शिरा सफेद होती है| इस किस्म की बीज उत्पादन क्षमता तथा पोषण गुणवत्ता अच्छी होने के साथ साथ यह कम अवधि वाली किस्म है |

को. 29:

 इस किस्म में कटाई के बाद कल्ले फूटने की क्षमता अच्छी होती है तथा  बीज बारीक़ होने के कारण बीज उत्पादन की अत्यधिक समस्या रहती है | यह किस्म सम्पूर्ण भारत में लगाई जा सकती है तथा प्रति हेक्टेयर 800 से 900 क्विंटल हरा चारा एवं 180 क्विंटल सुखा चारा देती है|

सी. एस. एच. 20 एम. एफ. :

 यह एक संकर किस्म है  | इस किस्म का तना  लम्बा, मिठास एवं रस वाला, पत्तीयां गहरी हरी एवं मध्य शिरा हरी होती है| एह किस्म पत्तीधब्बा रोग रोधी होने के साथ साथ  पोषण गुणवत्ता वाली होती है तथा सम्पूर्ण भारत में लगाई जा सकती है तथा प्रति हेक्टेयर 850 से 950 क्विंटल हरा चारा एवं 200 क्विंटल सुखा चारा देती है|

सी. एस. एच. 24 एम. एफ. :

  यह  एक संकर किस्म है जो सम्पूर्ण भारत में लगाई जा सकती है | इस किस्म का तना  लम्बा, मध्यम मोटाई वाला, मिठास एवं रस युक्त होता है तथा  पत्तीयां हल्की  हरी एवं मध्य शिरा हरी होती है | यह किस्म पत्तीधब्बा रोग रोधी होने के साथ साथ इसकी बीज उत्पादन क्षमता एवं  पोषण गुणवत्ता अच्छी होती है तथा यह प्रति हेक्टेयर 850 से 950 क्विंटल हरा चारा एवं 200 क्विंटल सुखा चारा देती है|

पी. सी. एच. 106 :

 यह एक संकर किस्म है जो सम्पूर्ण भारत में लगाई जा सकती है तथा इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 700 से 800 क्विंटल हरा चारा एवं 180 क्विंटल सुखा चारा मिलता है | इस किस्म में 60 से 62 दिन में फूल आते है तथा इसका तना पतला सुखा एवं कम रसीला होता है इस किस्म से 3-4 कटाई आसानी से ले सकते है तथा  यह पत्तीधब्बा रोग सहिष्णु किस्म है |

पी. सी. एच. 109 :

 यह एक संकर किस्म है जो पत्तीधब्बा रोग से सहिष्णु होती है तथा इसका तना सुखा एवं कम रसीला होता है | यह सम्पूर्ण भारत में लगाई जा सकती है तथा प्रति हेक्टेयर 750 से 800 क्विंटल हरा चारा एवं 170 क्विंटल सुखा चारा देती है |

पंजाब सुड़ेक्स :

 यह एक संकर किस्म है | इस किस्म में 60 से 65 दिन में फूल आते है तथा  8-10 कल्ले निकलते है | इसका तना पतला एवं कम रसीला होता है | यदि सिचाई की सुविधा हो तो इस किस्म से 4 कटाई आसानी से ले सकते है | यह किस्म पंजाब में लगाई जा सकती है तथा प्रति हेक्टेयर 600 क्विंटल हरा चारा एवं 170 क्विंटल सुखा चारा देती है |

हरा सोना :

 यह एक संकर किस्म है | इस किस्म में 60 से 65 दिन में फूल आते है तथा 9-10 पत्तीयां होने के साथ साथ इसका तना पतला होता है तथा इसमें 5-6 कल्ले निकलते है| इस किस्म से  3 कटाई आसानी से ले सकते है | यह किस्म पंजाब में लगाई जा सकती है तथा प्रति हेक्टेयर 630 क्विंटल हरा चारा एवं 150 क्विंटल सुखा चारा देती है |

खेत का चुनाव एवं तैयारी :

चारा ज्वार की खेती  वैसे तो सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है परन्तु अच्छे जल निकास वाली दोमट मिट्टी इसके लिय उत्तम है | बुवार्इ से पहले 10-15 से.मी. गहरी जुताई करें तथा इसके बाद 2-3 जुताई कल्टीवेटर से करके जमीन को भुरभुरी बनाऐ तथा इसके बाद जमीन को समतल करे, अंतिम जुताई से पहले खेत में 8-10 टन गोबर की सड़ी हुई खाद अच्छी तरह मिला दें |

ज्वार की बुआई के लि‍ए बीजोपचार :

बीज को थीरम अथवा कैप्टान दवा 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से शोधित कर लेना चाहिये। तथा प्ररोह मक्खी एवं चुसक प्रकार के कीटों के प्रकोप को प्रारंभिक अवस्था में रोकनें  के लिए बीज को इमिडाक्लोरोप्रिड (गोचो) 14 मि.ली. प्रति किलोग्राम  बीज की दर से उपचारित करना चाहिए |

बुआई का समय :

 बहु कटाई वाली किस्मों की बुआर्इ अप्रेल के पहले पखवाड़े में करनी चाहिए तथा असिंचित क्षेत्रों में मानसून के आने के बाद अथवा 15 जून बाद बुआई करें |

बुआर्इ की विधि :

 बुआर्इ कतारों में करे तथा कतार से कतार की दूरी 25 से 30 से.मी. रखें | बीज की बुआर्इ ड्रील या पोरे की मदद से 2.5 से.मी. से 4 से.मी. की गहराई में करें |

बीज की दर :

 बहुकट चारा ज्वार की किस्मों हेतु  बीज की मात्रा 40 से 50 की.ग्रा. प्रति हेक्टेयर रखें |

खाद एवं उर्वरक :

अंतिम जुताई से पहले खेत में 8-10 टन गोबर की सड़ी हुई खाद अच्छी तरह मिला दें | प्राय: ज्वार की फसल को 80 कि. ग्रा. नत्रजन एवं 40 कि. ग्रा. फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है  लेकिन नत्रजन की मात्रा 120 कि. ग्रा. / है. रखने से उत्पादन अधिक मिलता है इसके लिए 40 कि. ग्रा. नत्रजन एवं 40 कि. ग्रा. फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के समय दें तथा 25 से 30 कि. ग्रा. नत्रजन  फसल 30 से 35 दिवस की होने पर यूरिया के रूप में देवें तथा प्रत्येक कटाई के  बाद 20 से 25 कि. ग्रा. नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर  से दें तथा  यूरिया देते समय ध्यान रखे की खेत में नमी अवश्य हो |

चारा ज्वार की खेती में सिंचाई :

बहु कटाई वाली चारा ज्वार की बुआई अप्रेल के पहले पखवाड़े में करते है अत: इसमें पानी की आवश्यकता होती है | बुआई के तुरंत बाद सिचाई करें तथा इसके बाद 8 से 10 दिन के अन्तराल पर सिचाई करें| प्रत्येक कटाई के  बाद सिंचाई दें ताकि फसल में फुटाव ठीक प्रकार से हो | मानसून शुरू होने के बाद आवश्यकता अनुसार सिचाई करें |

खरपतवार नियन्त्रण :

कतार से कतार की दूरी कम होने के कारण खरपतवार का प्रकोप कम होता है फिर भी फसल को खरपतवार मुक्त रखने के लिए बुआई के बाद अंकुरण से पहले एट्राजिन का 0.5 से 0.75 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करें। इन्टर कल्चर के द्वारा भी खरपतवार को नष्ट किया जा सकता है |

चारा ज्वार में रोग एवं कीट :

प्ररोह मक्खी के प्रकोप को  रोकनें  के लिए बीज को कार्बोसल्फान 50 एस. टी. 160 ग्राम अथवा इमिडाक्लोरोप्रिड (गोचो) 14 मि. ली. प्रति किलोग्राम  बीज की दर से उपचारित करके बुआई करनी चाहिए | अधिक प्रकोप होने पर फसल में कार्बेरिल 50% घु.पा. प्रति हेक्टेयर को 500 ली. पानी में मिलाकर छिडकाव करें  जरूरत पड़ने पर दूसरा छिडकाव 10 से 12 दिन के अन्तराल पर करें |
तना भेदक कीट का प्रकोप फसल में 10 से 15 दिन से शुरू होकर फसल के पकने तक रहता है! खेत में बुआई के समय रासायेनिक खाद के साथ 10 की. ग्रा. की दर से फोरेट 10 जी अथवा कार्बोफ्युरोंन दवा खेत में अच्छी तरह मिला दें तथा बुआई के 15 से 20 दिन बाद कार्बेरिल 50 प्रतिशत घुलनशील पाउडर 2ग्रा./ली. पानी में घोल बना कर 10 दिन के अन्तराल पर दो छिड़काव करना चाहिए |
फसल में चूसक प्रकार के कीटो के प्रकोप को रोकने के लिए  फसल में 0.5 मि.ली./ली. की दर से  इमिडाक्लोरोप्रिड का छिडकाव कर सकते है | दवा के छिडकाव के बाद 20 दिन तक यह चारा पशुओं को नहीं खिलाएं तथा फसल 30-40 दिन की हो जाने पर ज्यादा कीट एवं रोग नाशक दवाओं का प्रयोग नहीं करना चाहिए ताकि चारे की गुणवत्ता बनी रहे |

फसल की कटाई :

बहु-कट चारा ज्वार की पहली कटाई बुआई के 60 दिन बाद करें एवं उसके बाद प्रत्येक कटाई 45 दिन बाद करें | तथा हर कटाई के समय जमीन से 10-12 सेमी. की ठूंठी छोड़ देनी चाहिए फसल में फुटाव ठीक प्रकार से हो |

उत्पादन : 

बहु कटाई वाली किस्मों से  2-3 कटाई में औसत 650 से 700 क्विंटल/है. हरा चारा एवं 150 क्विंटल/ है. सूखा चारा तथा संकर किस्मों से औसत 850 से 950 क्विंटल/ है. हरा चारा एवं 200 क्विंटल/ है. सूखे चारे का उत्पादन लिया जा सकता है |

विषैले तत्वों का प्रबंधन:


ज्वार में हाइड्रोसायनिक अम्ल असुरक्षित मात्रा में विद्यमान रहता है तथा इसकी अधिक सांद्रता पशुओं के लिए हानिकारक होती है | हाइड्रोसायनिक अम्ल की सांद्रता यदि चारे में  200 पी. पी. एम. से अधिक है तो यह पशुओं के लिए घातक हो सकता है | प्राय: बहुकट चारा ज्वार सूडान घास के गुण तथा सिचाई की दशाओं में खेती करने के कारण बुआई के 50 से 60 दिन में पशुओं को खिलने के योग्य हो जाती है  लेकिन जमीन में नमी की कमी होती है तो फसल में विषैला तत्व धुरीन एवं नाइट्रेट जमा हो जाता है तथा सूखे की दशा में कटाई के बाद आने वाले कल्लों में 
हाइड्रोसायनिक अम्ल की सांद्रता अधिक होती है अत: कटाई से पहले सिंचाई करें तथा कटाई के बाद हरे चारे को 4-5 घंटे धुप में रखे तथा अन्य चारे के साथ उचित मात्रा में मिलाकर पशुओं को खिलाना चाहिए |

Sunday, 5 November 2017

बीजोपचार का महत्व

बीजोपचार का महत्व (Importance of Seed Treatment)


https://smartkhet.blogspot.com/2017/11/Importance-of-Seed-Treatment.html



कृषि क्षेत्र की प्राथमिकता उत्पादकता को बनाये रखने तथा बढ़ाने मे बीज का महत्वपूर्ण स्थान है। उत्पादकता बढ़ाने के लिए उत्तम बीज का होना अनिवार्य है। उत्तम बीजों के चुनाव के बाद उनका उचित बीजोपचार भी जरूरी है क्यों कि बहुत से रोग बीजो से फैलते है। अतः रोग जनको, कीटों एवं असामान्य परिस्थितियों से बीज को बचाने के लिए बीजोपचार एक महत्वपूर्ण उपाय है।

बीजोपचार के लाभ

अनुसंधान द्वारा पाया गया कि बीजोपचार के लाभ उत्तम पौधों, अच्छी गुणवत्ता, ऊँची पैदावार और रोगों तथा कीट नियंत्रण मे लगी पूंजी पर अच्छी आय के रूप में दिखाई देते है। परंतु आज भी ऐसे किसानों की संख्या बहुत अधिक है, जो अनुपचारित बीज बोते है। इसलिए उपचारित बीजों के लाभों का व्यापार प्रचार तथा प्रसार करना बहुत आवश्यक है।

बीजोढ़ रोगों का नियंत्रण:-

 छोटे दाने की फसलों, सब्जियों व कपास के बीज के अधिकांश बीजोढ़ रोगों के लिए बीज निसंक्रमण व बीज विग्रसन  बहुत प्रभावकारी होता है।

मृदोढ़ रोगों का नियंत्रण:-

 मृदोढ़ कवक, जीवाणु व सूत्रकृमि से बीज व तरूण पौधों को बचाने के लिए बीजों को कवकनाशी रसायन से उपचारित किया जाता है, जिससे बीज जमीन मे सुरक्षित रहते है, क्योंकि बीजोपचार रसायन बीज के चारो और रक्षक लेप के रूप में चढ़ जाता है और बीज की बुवाई ऐसे जीवों को दूर रखता है।

अंकुरण मे सुधार:-

 बीजों को उचित कवकनाशी से उपचारित करने से उनकी सतह कवकों के आक्रमण से सुरक्षित रहती है, जिससे उनकी अंकुरण क्षमता बढ़ जाती है। यदि बीज पर कवकों का प्रभाव बहुत अधिक होता है तो भंडारण के दौरान भी उपचारित सतह के कारण उनकी अंकुरण क्षमता बनी रहती है।

कीटों से सुरक्षा:-

 भंडार में रखने से पूर्व बीज को किसी उपयुक्त कीटनाशी से उपचारित कर देने से वह भंडारण के दौरान सुरक्षित रहता हैं कीटनाशी का चयन संबधित फसल बीज के प्रकार और भंडारण अवधि के आधार पर किया जाता है।

मृदा कीटों का नियंत्रण:-

 कीटनाशी और कीटनाशी का संयुक्त उपचार करने से बुआई के बाद मृदा में सुरक्षित रहता है और बीज अवस्था में उसका विकास निर्विधन होता है।

बीजोपचार की विधियाँ:

नमक के घोल से उपचार:-

पानी में नमक का 2 प्रतिशत का घोल तैयार करे, इसके लिए 20 ग्राम नमक को एक लीटर पानी में अच्छी तरह मिलाएँ। इनमें बुवाई के लिए काम मे आने वाले बीजों को डालकर हिलाएँ। हल्के एवं रोगी बीज इस घोल में तैरने लगेंगे। इन्हे निथार कर अलग कर दें और पैंदे में बैठे बीजों को साफ पानी से धोकर सुखाले फिर फफूंदनाशक, कीटनाशक एवं जीवाणु कल्चर से उपचारित करके बोयें।

ताप का उपचार:-

कुछ रोगों के जीवाणु जो बीज के अन्दर रहते है, इनकी रोकथाम के लिए बीजों को मई- जुन के महिनों में जब दिन का तापमान 40 से 50 सेन्टीग्रेड के मध्य होता है तक बीजों को 6 से 7 घण्टे तक पक्के फशॆ पर धूप लगा दे जैसे गेहूँ के कुंडूआ रोग में।

फफूंदनाशक दवाओं से उपचार:-

बीजों को फफूंदनाशक दवाओं से उपचारित करने के लिए इन्हें पाउडर या तरल अवस्था में उपयोग कर सकते है। इन रसायनों के रक्षणीयता के आधार पर इन्हें दो भागों में बांटा गया है।

रोगनाशक:

 ये रसायन बीजोपचार के बाद बीज को एक बार रोगाणुनाशक बना देते है। परन्तु बुवाई के बाद ये रसायन अधिक समय तक सक्रिय नहीं हर पाते है।

रक्षक:

 इस प्रकार के रसायन बीज की सतह पर चिपक कर बुवाई के बाद पौध अवस्था मे भी रोगो से रक्षा करते है। अधिकतर बीजोपचार वाले रसायन या तो कार्बनिक पारद पदार्थ होते है या अपारद पदार्थ जैसे सल्फेट, कापर कार्बोनेट आदि।

फफूंदनाशक दवाओं से बीजोपचार की विधियाँ:

सूखी विधि:

इस विधि में रसायनों के पाउडर का उपयोग किया जाता है। इनमे एग्रोसेन जी.एन. सेरेरान, बीटावेक्स, कॅापर सल्फेट, ऐसीटान, बाविस्टिन इत्यादि की 2 से 2.5 ग्राम/कि.ग्राम बीज दर से उपचारित करते है।

गीली विधि:

जब रसायनों को बीजों के अन्दर पहुंचाना जरूरी होता है तब पानी मे घुलनशील फफूंदनाशक दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है। अलग-अलग रोगों के लिए अलग-अलग सान्द्रता के घोल में डालकर उपचारित करके बोया जाता है। उदाहरण के लिए आलू के स्कर्वी रोग से फसल को बचाने के लिए आलू के बीजों का एरीटॅान या टुफासान के 0.5 प्रतिशत घोल मे 2 मिनट तक डुबोया जाना चाहिए। मूंगफली के टिक्का रोग से बचाने के लिए बीजों को 2.5 प्रतिशत फार्मेलिन घोल में आधा घंटे रखते है।

कीटनाशी उपचार:

मृदा में तंतु कृमि, दीमक तथा अन्य कीट पौधों को क्षति पहुँचाते हैं। बीज को कीटनाशकों से उपचारित कर बुवाई करने से बीज तथा तरूण पौधों को कीटों से मुक्त रख सकते हैं। इसके अतिरिक्त संसाधित बीज को भंण्डारण के दौरान सुरक्षित रखा जा सकता है। दीमक के उपचार के लिए क्लोरोपाईरीफॅास 20 ई.सी. का पानी में घोल बनाकर बीज पर छिडकाव किया जाता है। कीटनाशक की तरल अवस्था नहीं मिलने पर इसे पाउडर अवस्था में भी काम में लिया जा सकता है। कीटनाशी की मात्रा बीज दर तथा आकार पर निर्भर करती है।

जीवाणु कल्चर से उपचार:

विभिन्न जीवाणु कल्चर से बीजोपचार कर पौधों के लिये मृदा में पोषक तत्वों की उपलब्धता को बढाया जाता है। जीवाणु कल्चर के बीजोपचार से अच्छे परिणाम के लिये सही विधि का महत्वपूर्ण योगदान है।
वाहक आधरित जीवाणु खाद (200 ग्राम) को गुड़ के 10 प्रतिषत घोल (एक लीटर पानी में 100 ग्राम गुड़) में मिलाया जाता है और इस घोल को एक एकड़ के बीजों की मात्रा पर छिडक कर मिलाया जाता है। ताकि बीजों पर वाहक की परत बन जाये। इन बीजों को छाया में सुखाकर तुरन्त बुवाई करनी चाहिए। उपचारित बीजों को रासायनिक उर्वरकों तथा कृषि रसायनों के सम्पर्क से बचाना चाहिये।

सामान्यतया उपयोग में आने वाले जीवाणु कल्चर निम्न हैं -

राइजोबियम जीवाणु:

 इन जीवाणुओं का दलहनी फसलों के साथ प्राकृतिक सहजीवता का सम्बन्ध होता है। ये दलहनी फसलों की जडों में रहकर ग्रथिया बनाते है एवं नत्रजन स्थिर करते हैं। इनके द्वारा नत्रजन की स्थिर की गयी मात्रा जीवाणु विभेद, पौधों की किस्में, मृदा गुणों, वातावरण, सस्य क्रियाओं आदि पर निर्भर करती है। राइजोबियम - दलहन सहजीवता से 100-200 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टर प्रतिवर्ष होती है।

ऐजोटोबेक्टर जीवाणु:

 ये जीवाणु गैर दलहनी फसलों जैसे गेहूँ, जौ, मक्का, ज्वार, बाजरा, आदि के लिये उपयुक्त है। ये 20-30 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेकटर तक स्थिर कर सकते है।

फास्फोरस विलेयकारी जीवाणु:

 ये जीवाणु मृदा में उपस्थित अविलेय, स्थिर तथा अप्राप्त फास्फोरस की विलेयता को बढ़ाकर उसे पौधों को उपलब्ध कराने में सहायक होते है। इसका उपयोग लगभग सभी फसलों में हो सकता है। अलग-अलग दलहनी फसलों की जड़ों में राइजोबियम नामक जीवाणु की अलग-अलग प्रजाति होती है, इसलिये अलग-अलग जीवाणु या कल्चर की जरूरत पड़ती है।


फसल में अगर कीटनाशी, फफूंदनाशी और जीवाणु कल्चर का उपयोग बीजोपचार द्वारा करना हो तो सर्वप्रथम कीटनाशी के उपचार के बाद क्रमशः फफूंदनाशी व जीवाणु कल्चर का उपयोग करें।