Monday 1 January 2018

तुअर दाल की खेती

तुअर दाल की खेती (farming of tuar daal)


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तुअर दाल को वैज्ञानिक तौर पर कजनस केजन, पीजन पी के नाम से जाना जाता है जो दाल के वर्ग में आता है। भारत में पीजन पी को अरहर या लाल चना के नाम से ज्यादा जाना जाता है। भारत में दालों में सबसे ज्यादा मशहूर स्पीलीट पीजन पी यानी तुअर दाल का टुकड़ा है।
गौरतलब है कि शाकाहारी भोजन में प्रोटीन का सबसे बड़ा श्रोत दाल ही माना जाता है। जिस इलाके में अरहर की पैदावार होती है वहां इसकी फली को लोग सब्जी के तौर पर खुलकर इस्तेमाल करते हैं। सूखा दो टुकड़े में तोड़ा हुआ बीज मसूर दाल की तरह और सांभर के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। तुअर दाल को अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग नाम से जाना जाता है।
अंग्रेजी- पिजन पी, रेड ग्राम, येलो लेंटिल्स
हिंदी- अरहर, तुवर, तुअर, तूर दाल
तमिल- तोवरम पारुप्पू
तेलुगु- कांडी पप्पू

तुअर दाल की खेती के फायदे –

·        कम उपजाऊ मिट्टी और सूखे मौसम में भी इसकी खेती आसानी से होती है।

·        ये दाल उच्च प्रोटीन और पोषक तत्व से भरपूर होती है।

·        पौधे के पत्ते का इस्तेमाल पशु चारे के तौर पर भी होता है।

·        तुअर दाल तेजी से बढ़ने वाली फसल है और दूसरी फसलों जैसे कि शाक-सब्जियों, औषधीय पौधों और वनीला के लिए छाया का भी काम करती है।

·        पांच साल तक चलने वाला यह एक सदाबहार पौधा भी है।

·        पौधे का लकड़ी वाला हिस्सा जलावन के तौर पर भी उपयोग किया जाता है।

·        मुख्य जड़ मिट्टी के भीतर से पानी और पोषक तत्व खींचने में सहायक होता है।

·        तुअर के पौधे का इस्तेमाल भूमि कटाव को रोकने में भी बेहद कारगर होता है।

·        कृषि पारिस्थितिकी या पर्यावरण के लिए सहायक, बीच की फसल के तौर पर पीजन पी या तुअर दाल बेमिसाल है। यहां तक कि अंतर फसलीय या बीच की फसल की कटाई के बाद भी ये मिट्टी की सुरक्षा करता रहता है।

तुअर दाल की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु –

पहले आठ सप्ताह के लिए नमी युक्त 600 से 650 एमएम की औसत बारिश चाहिए। फूल आने और फली के विकास की अवधि तक सूखा मौसम चाहिए। इस तरह का मौसम रहने पर तुअर दाल की पैदावार बेहतरीन होती है। वहीं, फूल आने के दौरान अगर बारिश हो जाए तो परागण की क्रिया प्रभावित होती है। अरहर की दाल की अच्छी खेती ग्रीष्म(अप्रैल), बरसात(जून या खरीफ) और शरद(सितंबर या रबी) ऋतु में अच्छी होती है। ये फसल अर्ध उष्णकटिबंधीय है जो गहरे जड़ की बदौलत सूखे मौसम को भी आसानी से बर्दाश्त कर लेता है। फूल आना, फल आना और शाखाएं निकलने के दौरान अगर बारिश न हो तो इस फसल पर विपरीत असर डालता है। ऐसी स्थिति से बचाव के लिए सिंचाई की व्यवस्था होना बेहद जरूरी है।
तुअर या अरहर दाल के लिए नमी युक्त गर्म वातावरण चाहिए। उदाहरण के तौर पर अंकुरण के दौरान अपेक्षाकृत थोड़ा ज्यादा (30 से 35 सेंटीग्रेड) तापमान चाहिए,  वानस्पतिक विकास के दौरान अपेक्षाकृत थोड़ा कम (20 से 25 सेंटीग्रेड) तापमान चाहिए। फूल निकलने और फली के विकास के वक्त थोड़ा और कम (15 से 18 सेंटीग्रेड) तापमान चाहिए।  पौधे की परिपक्वता के दौरान सबसे ज्यादा (35 से 40 सेंटीग्रेड) तापमान चाहिए। जल जमाव या भारी बारिश, पाला आदि फसल के लिए बहुत हानिकारक है। फसल के पकने के वक्त ओलावृष्टि या बारिश पूरी फसल को चौपट कर देता है। इसकी जड़ों में गहराई से पानी खिंचने की ताकत की वजह से इसमें सूखे को झलने की अच्छी क्षमता होती है।

पौधे को नुकसान पहुंचाने वाले कारक –

  – जल जमाव, भारी बारिश और पाला
  – परिपक्वता के दौरान ओलावृष्टि और बारिश नुकसानदायक

वहीं, इसकी सबसे बड़ी खूबी ये है कि यह सूखे को भी आसानी से बर्दाश्त कर लेती है क्योंकि इसके जड़ें में गहराई से भी पानी खिंचने की क्षमता होती है।

तुअर दाल की खेती के लिए मिट्टी की आवश्यकता-

वैसे तो यह फसल सभी तरह की मिट्टी में आसानी से हो जाती है। लेकिन इसके लिए दोमट यानी चिकनी बलुई मिट्टी या रेतीली मिट्टी उपयुक्त है। बीच पहाड़ी पर ढलवां जमीन में भी ये फसल अच्छा परिणाम देती है। 6.5 से 7.5 पीएच रेंज वाली मिट्टी में इसकी फसल सफलतापूर्वक की जाती है। हां, यहां यह सुनिश्चित करना जरूरी होता है कि इस तरह की मिट्टी में जल-जमाव ना हो।

फसल के लिए मिट्टी या भूमि की तैयारी-

·        अच्छी जुताई होने पर लंबी जड़ वाली रेड ग्राम या तुअर दाल का उत्पादन बेहतर होता है। सूखे मौसम में जमीन को तैयार करने के लिए कम से कम एक बार जुताई की जाती है। इसके बाद दो से तीन बार गहरे तरीके से और चक्रीय जुताई की जाती है।

·        बीजारोपन के दो से तीन सप्ताह पहले जैविक खाद डालना चाहिेए

·        मिट्टी का इस तरह से समतलीकरण करना चाहिए ताकि पानी जमा नहीं हो सके

  ·        सामान्य या रिज यानी ऊंची जगह पर हल से चौड़ी क्यारियां बनाना ताकि पानी जमा न हो सके
   
·        फसल से खर-पतवार को अच्छी तरह से निकालना, छोटे-मोटे ढेले को तोड़कर मिला देना। यहां इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि इस कार्य के लिये मशीन का इस्तेमाल नहीं करना है।

·        हल्की सिंचाई पौधे के अंकुरण में मददगार साबित होता है।

बीज दर और पौधा रोपण की प्रक्रिया –

प्रति हेक्टेयर बीज की मात्रा 15 किलो।  लंबे किस्म की फसल की बुआई के लिए एक लाइन से दूसरी लाइन के बीच 50 सेमी की दूरी होनी चाहिए।  छोटे किस्म की फसल (एचपीए-92)  के लिए 30-35 सेमी की दूरी रखें और दोनों बीज के बीच की दूरी 15 से 20 सेमी हो। अगर फसल की बुआई मई के अंतिम सप्ताह में हो तो अच्छी पैदावार होती है। दो लाइन के बीच दूसरी फसल भी उगाई जा सकती है। एक लाइन में अरहर और दूसरी लाइन में तिल का पौधारोपन अच्छा परिणाम देता है। अगर एक लाइन की जोड़ी में खेती करनी हो तो एक जोड़ी अरहर की (30 सेमी की दूरी) और दूसरी जोड़ीदार लाइन तिल की (20सेमी की दूरी) की रखी जाती है। ऐसी स्थिति में तिल की खेती के लिए लगने वाला बीज और खाद की मात्रा भी घटकर आधी रह जाएगी।

बीज प्रबंधन –


·        बीजारोपन से 24 घंटे पहले प्रति किलो बीज पर 2 ग्राम कार्बेनडेजिम या थीरम को मिलाएं या त्रिकोडर्मा विराइड प्रति किलो 4 ग्राम, सूडोमोनस फ्लोरोसेंस प्रति किलो 10 ग्राम मिलाएं।

·        अच्छे किस्म का विकसित किया गया बीज ही खेती के लिए चुनाव करें
  
  ·        बीज दो साल से ज्यादा पुराना न हो। यहां बेहतर ये होगा कि बीज पिछले मौसम का हो

·        सही अंकुरण और फल के लिए उत्तम किस्म की बीज का इस्तेमाल करें

  ·        भारत के अलग-अलग इलाके में पीजन पी या तुअर दाल की फसल पारंपरिक तौर पर खरीफ फसल (जून-जुलाई) है जो मॉनसून की शुरुआत में की जाती है।

  ·        बारिश के मौसम की शुरुआत से एक पखवाड़ा पहले सिंचाई कर देनी चाहिए ताकि बरसात से पहले पौधा अच्छी तरह अपनी जड़ें जमा ले। हालांकि जहां बारिश के दौरान बुआई करनी हो वहां ठीक बारिश शुरु होते ही बुआई करनी चाहिए। बुआई में जून के अंतिम सप्ताह से ज्यादा की देरी नहीं होनी चाहिए।

पौधों के बीच अंतराल-


  ·        लंबी अवधि वाली फसल (लंबी और ज्यादा फैलने वाली) जो करीब 250 से 270 दिनों के लिए होती है उसके लिए दो लाइन के बीच 90 से 120 सेमी की दूरी होनी चाहिए (बारिश से सिंचाई वाली जगह पर दो पौधों के बीच 30 सेमी की जगह हो)।
·        सिंचाई की सुविधा से युक्त समय से पूर्व परिपक्व होने वाली फसल के लिए दो लाइन के बीच 50 से 75 सेमी और दो पौधों के बीच दूरी 15 से 20 सेमी हो।

·        प्रैल में बुआई की स्थिति में दो लाइन के बीच की दूरी 90 से 120 सेमी होनी चाहिए क्योंकि इस दौरान जून के मुकाबले तेजी से वृद्धि होती है।
·       आमतौर पर काली मिट्टी की स्थिति में दूरी 90 से 20 सेमी और लाल मिट्टी में 60 से 20 सेमी होनी चाहिए।

अंतर फसल या बीच की फसल –

तुअर दाल की फसल के साथ दो या तीन फसलों की खेती की परंपरा रही है ताकि कुल मिलाकर ज्यादा से ज्यादा फसल उगाई जा सके। परंपरागत तौर पर रेड ग्राम या लाल चने को तिलहन, कम अवधि वाली फसल जैसे की फलिया और कपास के साथ बोया जाता है। वहीं, ज्यादातर इसे अनाज की फसल जैसे ज्वार, बाजरा, रागी और मक्का आदि के साथ बुआई की जाती है। वहीं, रेड ग्राम के साथ तिलहन की अंतर फसल जैसे कि मूंगफली, सोयाबीन और तिल ज्यादा मशहूर हो रहा है। इसके साथ ही कम अवधि वाली दाल की फसल जैसे कि मूंग, राजमा, काबुली चना और उड़द की भी खेती की जाती है।

खाद डालने की प्रक्रिया –

प्रति हेक्टेयर 15 किलो नाइट्रोजन और 45 किलो पी2ओ5(p2op) की मात्रा इस फसल के लिए पर्याप्त है।

खर-पतवार नियंत्रण –

शुरुआती 45 से 50 दिनों के बीच इसकी वृद्धि दर बहुत धीमी होती है। ऐसी स्थिति में ये खर-पतवार से मुकाबला करने में ज्यादा सक्षम नहीं होती है। अगर वक्त रहते खर-पतवार पर नियंत्रण नहीं किया गया तो इसकी पैदावार में 90 फीसदी तक की भारी गिरावट आ सकती है। ऐसी स्थिति में सलाह दी जाती है कि पूरे खेत से हानिकारक घास-फूस की अच्छी तरह से सफाई कर देनी चाहिए। खेत में मौजूद खर-पतवार से मुक्ति के लिए दो स्तरीय रणनीति अपनानी होगी। पहला चरण 25 से 30 दिन के बाद और दूसरा चरण बुआई के 45 से 50 दिन के बाद चलाना चाहिए।

फसल की कटाई और भंडारण –

अलग-अलग मकसद से तुअर दाल की खेती में ग्रीन पीजन पी किस्म की खेती की जाती है। अच्छी तरह से विकसित चमकीली हरी बीज का इस्तेमाल सब्जी के तौर पर किया जाता है। फली के हरे रंग के खत्म होने से पहले ही इसे तोड़ लिया जाना चाहिए। इसके लिए मशीन नहीं बल्कि हाथ से तोड़ाई का काम किया जाता है। दूसरी फसलों के विपरीत पीजन पी की फली तोड़ने के दौरान भी उसके पत्ते हरे ही रहते हैं। ऐसे में किसान इस भ्रम में पड़ जाता है कि इसे अभी तोडूं या कुछ और वक्त का इंतजार करूं ? यहां ध्यान रखना चाहिये कि पीजन पी की कटाई उस वक्त करना चाहिए जब इसकी फली का रंग75 से 80 फीसदी तक भूरा और सूख जाए। खासकर खराब मौसम के दौरान देरी से कटाई महंगी पड़ सकती है और परिपक्व बीज को नुकसान पहुंच सकता है।
परंपरागत तौर पर पीजन पी फसल की कटाई हंसिया या दराती से नीचे जड़ से की जाती है लेकिन कभी-कभी मशीन से भी इसकी कटाई की जाती है। उसके बाद उसे सुखाया जाता है और फिर फली निकाली जाती है। मौसम को ध्यान में रखते हुए कटी फसल का पुलिंदा बनाकर ऊंची जगह पर सप्ताह भर के लिए सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। थ्रेसर की मदद से या फिर डंडे से पीटकर सूखे पौधे से फली या दाने को अलग किया जाता है। कुछ जगहों पर घरेलू जानवरों जैसे की गाय,बैल या भैंस से सूखी फसल पर चलवाकर फली को अलग किया जाता है।
आमतौर पर पीजन पी या अरहर की साबूत बीज का भंडारण लंबे समय के लिए किया जाता है। ऐसा मुख्य तौर पर दो मकसद से किया जाता है, पहला- अगली बार बुआई के लिए और दूसरा ग्राहक की जरूरत को पूरा करने के लिए।
और अंत में अहम बात ये कि इस फसल की बाजार में हमेशा अच्छी मांग रहती है और इसकी सही कीमत भी बाजार भाव के मुताबिक बिना किसी समस्या के मिल जाती है। यही वजह है कि ज्यादा से ज्यादा किसान इसकी खेती करना चाहते हैं। 

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