लहसुन की खेती (farming of garlic)
लहसुन (Garlic) का
वैज्ञानिक नाम एलियम सैटिवुम एल है। लहसुन में रासायनिक तौर पर गंधक की अधिकता होती
है। इसे पीसने पर ऐलिसिन नामक यौगिक प्राप्त होता है जो प्रतिजैविक विशेषताओं से भरा
होता है। इसके अलावा इसमें प्रोटीन, एन्ज़ाइम तथा विटामिन बी, सैपोनिन, फ्लैवोनॉइड
आदि पदार्थ पाये जाते हैं।
भूमि तथा जलवायु:
लहसुन की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है लेकिन इसके लिये प्रचुर जीवांश
और अच्छे जल निकास वाली दोमट मिट्टी सर्वोतम है। लहसुन की वृद्धि के लिये तुलनात्मक
दृष्टि से ठंडा व नम जलवायु उपयुक्त रहता है। गर्म व बड़े दिन पौधे की वृद्धि पर विपरित
प्रभाव डालते हैं। परन्तु कंद बनने क लिये लंबे व शुष्क दिन फायदेमंद हैं। परन्तु कंदों
के बनने के बाद यदि तापमान कम हो जाये तो कंदों का विकास और अधिक अच्छा होगा, एवं कन्दों
के विकास के लिये अधिक समय उपलब्ध होगा, अत: उनका विकास अच्छा होगा तथा उपज बढ़ेगी।
खेत की तैयारी :
लहसुन की जड़ें भूमि की ऊपरी सतह से करीब 15 सेमी गहराई तक ही सीमित रहती है अत: भूमि
की अधिक गहरी जुताई की आवश्यकता नहीं है, इसलिये दो जुताई करके, हेरो चलाकर भूमि को
भुरभुरा करके खरपतवार निकालकर, समतल कर देना चाहिए। जुताई के समय भूमि में उपयुक्त
मात्रा में नमी आवश्यक है अन्यथा पलेवा देकर जुताई करें।
उन्नत किस्में:
लाडवा, मलेवा, एग्रीफांउड व्हाइट, आर जी एल-1, यमुना सफेद-3 एवं गारलिक 56-4 नामक किस्में
अच्छी पैदावार देती है। लहसुन का चूर्ण बनाने के लिये बड़े आकार की लौंग वाली गुजरात
की जामनगर व राजकोट किस्मों को उपयुक्त माना गया है।
खाद एवं उर्वरक:
खेत की तैयारी के समय 20-25 टन प्रति हेक्टर गोबर खाद खेत में मिला देनी चाहिये क्योंकि
जैविक खाद का लहसुन की उपज पर बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा 50 किलो नत्रजन,
60 किलो फॉस्फोरस व 100 किलो पोटाश प्रति हेक्टर बुवाई के समय दें व 50 किलो नत्रजन
बुवाई के 30 दिन बाद दें।
बीज व बुवाई:
लहसुन की बुवाई के लिये अच्छी किस्म के स्वस्थ बड़े आकार के आकर्षक कंदों की कलियों
को अलग-अलग करके बुवाई के काम में लें। बुवाई हेतु प्रति हेक्टर 500 किलो कलियों की
आवश्यकता होती है। इसकी बुवाई (रोपाई) कतारों में 15 से.मी. की दूरी पर करें व पौधे
से पौधे की दूरी 7-8 से.मी. एवं गहराई 5 से.मी. ही रखें। इसकी बुवाई का उपयुक्त समय
15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक का है। भूमि का तापमान 300 से ज्यादा होने पर कलियों में
सडऩ उत्पन्न हो सकती है।
सिंचाई एवं निराई गुड़ाई:
लहसुन की कलियों की बुवाई के बाद एक हल्की सिंचाई करनी चाहिये इसके पश्चात वानस्पतिक
वृद्धि व कंद बनते समय 7-8 दिन के अन्तराल से व फसल के पकने की अवस्था में करीब 12
दिन के अन्तराल पर सिंचाई करें। सिंचाई के लिये क्यारी ज्यादा बड़ी नहीं बनावें। पकने
पर पत्तियां सूखने लगे तब सिंचाई बंद कर देंं। जिस क्षेत्र में पानी भरता हो उसमें
पैदा हुये कंद अधिक समय तक संग्रह नहीं किये जा सकते। खरपतवार नष्ट करने के लिये निराई
गुडाई आवश्यक है। गुड़ाई गहरी नहीं करें। इस फसल में निराई गुड़ाई अन्य फसलों की तुलना
में कठिन है क्योंकि पौधे पास-पास में होते हैं। अत: खरपतवार नाशी रसायनों का उपयोग
किया जा सकता है। इसके लिये अंकुरण के पूर्व प्रति हैक्टर 150 ग्राम आक्सीफ्लूरफेन
(600 ग्राम गोल) अथवा पेंडिमिथालिन 1 किलो सक्रिय तत्व (3.3 लीटर स्टॉम्प) का पानी
में घोल बनाकर छिड़कावव अंकुरण पश्चात ऑक्साडायाजोन 1 किलो प्रति हेक्टर का पानी में
घोल बनाकर छिड़का व करें या 25 से 30 दिन पर एक गुड़ाई करें।
लहसुन के पकाव की पहचान पत्तियाँ पीली पडऩे लगे (फसल बुवाई के 4-5 माह बाद), कंद दबाने
से नहीं दबे एवं कंद में 80 प्रतिशत कलियां बनी हुई दिखाई पड़े तब समझें लहसुन पक गया
है। कुछ कंद जमीन से निकालकर 2-3 दिन छाया में रखें अगर वह नीला पड़ जाय तो समझेंअभी
वह नहीं पका है, दो-चार दिन खेत में लहसुन खड़ा रहने देें।
खुदाई एवं उपज :
लहसुन खुदाई के वक्त भूमि में थोड़ी नमी रहनी चाहिये जिससे कंद आसानीसे बिना क्षति
पहुंचाये निकाले जा सकें। कंदों को पत्तियों सहित निकालने के तुरन्त बाद कंद पर लगी
मिट्टी उतार दें तथा छोटे-छोटे बंडल बनावें एवं छाया में सुखा देना चाहिये तथा सूखी
पत्तियाँ अलग कर देनी चाहिये। यदि फर्श पर सुखाना पड़े तो कंदों कोसमय-समय पर पलटना
चाहिये।
यदि कंदों को उनकी पत्तियों द्वारा गुच्छों में बांध कर किन्हीं अवलंबों पर लटका कर
सुखाया जाय तो उत्तम रहेगा। इससे लगभग 100-125 क्विंटल प्रति हेक्टर तक उपज प्राप्त
की जा सकती है।
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