Saturday, 11 November 2017

जरबेरा फूल की खेती

जरबेरा फूल की खेती (Gerbera flower farming)


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जरबेरा एक विदेशी और सजावटी फूल का पौधा है जो पूरी दुनिया में उगाया जाता है और जिसे ‘अफ्रीकन डेजी’ या ‘ट्रांसवाल डेजी’ के नाम से जाना जाता है।  इस फूल की उत्पत्ति अफ्रीका और एशिया महादेश से हुई है और यह ‘कंपोजिटाए’ परिवार से संबंध रखता है। भारतीय महाद्वीप में, जरबेरा कश्मीर से लेकर नेपाल तक 1200 मीटर से लेकर 3000 मीटर की ऊंचाई तक पाया जाता है। इसकी ताजगी और ज्यादा समय तक टिकने की खासियत की वजह से इस फूल का इस्तेमाल पार्टियों, समारोहों और बुके में किया जाता है। भारत के घरेलु बाजार में इसकी कीमत काफी अच्छी है।

भारत में जरबेरा कट फूल के प्रमुख उत्पादक राज्य-

पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल और अरुणाचलप्रदेश।

भारत में जरबेरा की अधिक उपजाऊ वाली संकर किस्में- 


लाल रंगीन- रुबी रेड, डस्टी, शानिया, साल्वाडोर, तमारा, फ्रेडोरेल्ला, वेस्टा और रेड इम्पल्स

पीला रंगीन- सुपरनोवा, नाडजा, डोनी, मेमूट, यूरेनस, फ्रेडकिंग, फूलमून, तलासा और पनामा

नारंगी रंगीन- कोजक, केरैरा, मारासोल, ऑरेंज क्लासिक और गोलियाथ

गुलाबी रंगीन- रोजलिन और सल्वाडोर

मलाई रंगीन- फरीदा, डालमा, स्नो फ्लेक और विंटर क्वीन

सफेद रंगीन- डेल्फी और व्हाइट मारिया

बैंगनी रंगीन- ट्रीजर और ब्लैकजैक

गुलाबी रंगीन- टेराक्वीन, पिंक एलीगेंस, एसमारा, वेलेंटाइन और मारमारा

जलवायु- 

जरबेरा फूलों को उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय प्रदेश दोनों ही तरह की जलवायु में पैदा किया जा सकता है। ऐसे फूलों की खेती उष्णकटिबंधीय जलवायु में खुले खेतों में की जा सकती है। ऐसे फूल पाला वाली स्थिति को लेकर संवेदनशील होते हैं, इनकी खेती पौधा घर (गरम घर), जालीदार पर्दा वाले घरों में उपोष्णकटिबंधीय या समशीतोष्ण जलवायु में की जाती है। जरबेरा की खेती के लिए दिन का सर्वोत्कृष्ट तापमान 20 डिग्री से 25 डिग्री सेंटीग्रेड और रात्रिकालीन तामपमान 12 डिग्री से 15 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच आदर्श माना जाता है।

मिट्टी-

मिट्टी अच्छी तरह से सूखी, हल्की, उपजाऊ, हल्की क्षारीय या प्रकृति में तटस्थ हो। जरबेरा की खेती के लिए पीएच का मान 5.5 से 6.5सबसे उपयुक्त मानी जाती है। जैसा कि पता है कि जरबेरा पौधे की जड़ें मिट्टी के काफी अंदर तक जाती हैं (करीब 60 सेमी), ऐसे में मिट्टी सुराखदार होनी चाहिए और आंतरिक जलनिकासी (50 सेमी गहराई) अच्छी होनी चाहिए ताकि जड़ों का विकास सर्वोत्कृष्ट हो सके।

भूमि या खेत की तैयारी-

देसी हल या ट्रैक्टर से खेत की तीन बार अच्छी तरह से जुताई करें ताकि खेत अच्छी तरह से तैयार हो जाए। क्यारी को 30 सेमी ऊंचा, एक मीटर से डेढ़ मीटर तक चौड़ा और दो क्यारियों के बीच 35 सेमी से 50 सेमी की जगह छोड़ते हुए तैयार करें। अच्छी तरह से गला हुआ फार्म की खाद, बालू और धान की भूसी को 2:1:1 के अनुपात में मिलाकर तैयार की हुई क्यारियों पर डालें।

 मिट्टी का रोगाणुनाशन या कीटाणुनाशन-

जरबेरा की खेती से पहले फसल को मिट्टी जनित बीमारियों से बचाने के लिए मिट्टी का विसंक्रमण या रोगाणुनाशन अच्छी तरह से जरूर किया जाना चाहिए। मुख्य रुप से मिट्टी जनित तीन तरह के रोगाणु होते हैं, उदाहरण के तौर पर, फुसेरियम, फाइटोफथोरा और पाइथियम। अगर मिट्टी का विसंक्रमण नहीं किया गया तो ये रोगाणु पूरी फसल को बर्बाद कर देंगे। तैयार की गई मिट्टी की क्यारियों को मिथाइल ब्रोमाइड (30 ग्राम प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र) का घोल या दो फीसदी फोरमेल्डिहाइड (प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र में 5 लीटर पानी में 100 एमएल फोरमोलिन) का घोल या मिथाइल ब्रोमाइड (30 ग्राम प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र) के घोल से धुंआ करना चाहिए। धुंआ किए गए क्यारियों को एक प्लास्टिक शीट से कम से कम तीन से चार दिनों के लिए ढंक दें। क्यारियों से रसायन को निकालने के लिए इसमे पानी डालना चाहिए।

पौधारोपण का मौसम-

जरबेरा की खेती वसन्त ऋतु के साथ-साथ ग्रीष्म ऋतु में भी की जा सकती है। जरबेरा को अच्छी और अधिकता के साथ रोशनी की जरूरत होती है, डेढ़ वर्षीय ऊतक संवर्धन के लिए इसकी रोपाई वसन्त ऋतु में (जनवरी से मार्च) करने से बहुत अच्छा रहता है। एक, डेढ़ और दो वर्षीय ऊतक संवर्धन के लिए ग्रीष्म ऋतु (जून से जुलाई) अनुकूल मानी जाती है। रोपाई या पौधा रोपण के लिए शरद और शीत ऋतु (नवंबर से दिसंबर) की अनुशंसा नहीं की जाती है क्योंकि इस दौरान उच्च तापमान खर्च होता है और रोशनी की अधिकता में कमी पाई जाती है। अगस्त के आखिरी में या सितंबर में रोपाई के काम को नजरअंदाज करना चाहिए क्योंकि यह शीत ऋतु को बर्दाश्त नहीं कर सकता है।

प्रजनन या प्रसारण-

व्यावसायिक तौर पर जरबेरा के पौधा का प्रजनन पौधे की महीन जड़ (चूषक) और ऊतक संवर्धन के माध्यम से होता है। जरबेरा की खेती में दो तरीके के प्रजनन का इस्तेमाल किया जाता है, विभाजन और सूक्ष्म प्रजनन का।

विभाजन-

 इस पद्धति में, प्रजनन जून-जुलाई महीने में पेड़ों के झुरमुट या गुच्छ में विभाजन कर के किया जाता है और इसी पद्धति का आमतौर पर इस्तेमाल किया जाता है।

सूक्ष्म प्रजनन-

 तेज और बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए यह पद्धति दिन-ब-दिन बहुत तेजी से लोकप्रिय होती जा रही है। इस पद्धति में फूल का सिर, शाखा का सिरा, फूल की कली, पुष्पवृन्त, फुनगी (बाली) और पत्ती की बीच वाली नस का इस्तेमाल पूर्ववर्ती पौधे के तौर पर की जाती है।

पौधारोपण की पद्धति-

क्यारी में जरबेरा की खेती हवा के बहाव और जलनिकास को बेहतर करता है। पौधारोपण के दौरान जब जड़ की व्यवस्था स्थापित होती है उस वक्त जरबेरा के पौधे के शिखर को मिट्टी के स्तर से एक से दो सेमी ऊपर रखना चाहिए और जमीन के स्तर से नीचे रखना चाहिए।

 दो पौधों में अंतराल-

पंक्ति या कतार के भीतर 25 से 30 सेमी का अंतराल और कतारों के बीच 30 से 40 सेमी की दूरी होनी चाहिेए ताकि प्रति वर्ग मीटर 7 से 10पौधे आ जाएं।

खाद और ऊर्वरक-

जरबेरा फूल की अच्छी बढ़त और बेहतरीन पैदावार के लिए खेत में भरपूर मात्रा में जैव खाद और दूसरे महत्वपूर्ण और कम महत्वपूर्ण पोषक तत्व इस्तेमाल करें। जरबेरा की खेती में डाले जाने वाले खाद और ऊर्वरक की मात्रा निम्न है-
– प्रति वर्ग मीटर 8 से 9 किलोग्राम फार्म की खाद का इस्तेमाल करें।
– पौधारोपण के शुरुआती तीन महीनों के दौरान नाइट्रोजन, फॉस्फेट और पोटाश (एनपीके) का 12:15:20 ग्राम इस्तेमाल करें।
– चौथे महीने के बाद जब फूल आना शुरू हो जाता है तब नाइट्रोजन, फॉस्फेट और पोटाश (एनपीके) 15:10:13 ग्राम प्रति वर्ग मीटर प्रति महीना इस्तेमाल करें। इन्हें दो-दो टुकड़े में बांट दें और प्रति दो सप्ताह के अंतराल पर इस्तेमाल करें।
– सूक्ष्म-पोषक तत्वों का इस्तेमाल करें- कैल्सियम, बोरोन, कॉपर और मैग्नेशियम 0.15 फीसदी की दर से प्रति लीटर 1.5 ग्राम होना चाहिए जिन्हें चार सप्ताह में एक बार छिड़काव करें। इससे जरबेरा फूल की गुणवत्ता काफी बढ़ जाती है।

सिंचाई-

पौधारोपण के तुरंत बाद सिंचाई की जरूरत होती है और जड़ें अच्छी तरह से जड़ जमा ले इसके लिए एक महीने तक लगातार सिंचाई करते रहें। उसके बाद प्रति दो दिन पर एक बार टपक सिंचाई की जानी चाहिए। इसमें प्रति पौधा 4 लीटर 15 मिनट के लिए सिंचाई की जानी चाहिए। प्रति पौधा प्रति दिन पानी की औसत जरूरत 700 मिली लीटर होती है।

घास-फूस नियंत्रण-

जरबेरा की खेती में घास-फूस नियंत्रण एक महत्वपूर्ण अभियान है और यह कार्य पौधारोपण की शुरुआत के तीन महीने तक दो सप्ताह में एक बार करना चाहिए। तीन महीने के बाद, अगला घास-फूस नियंत्रण का कार्य 30 दिनों के अंतराल पर किया जाना चाहिए। जब कभी जरूरत हो हाथ से घास-फूस को निकालने का काम करना चाहिए। निम्न घास-फूस नियंत्रण अभियान का पालन करें-
– आठ सप्ताह (दो महीने) के जरबेरा फूल की कली को निकाल दें और उसके बाद पुष्पन यानी विकसित होने के लिए छोड़ दें।
– जड़ों में पानी, खाद के अच्छी तरह अवशोषण के लिए और जड़ों में हवा के अच्छी तरह आवागमन के लिए दो सप्ताह में एक बार मिट्टी को उलट-पलट कर दें।
– हमेशा पुरानी पत्तियों को हटा दें ताकि नई पत्तियां विकास कर सकें।

हानिकारक कीट और बीमारियां-

जरबेरा के पौधे में पाए जाने वाले प्रमुख कीट-

एफिड्स-
 इस पर नियंत्रण के लिए दो एमएल पानी में डिमेथोएट 30 ईसी मिलाकर छिड़काव करें।
थ्रिप्स-
 इस पर नियंत्रण के लिए दो एमएल पानी में डिमेथोएट 30 ईसी मिलाकर छिड़काव करें।
व्हाइटफ्लाई-
 इस पर नियंत्रण के लिए दो एमएल पानी में डिमेथोएट 30 ईसी मिलाकर छिड़काव करें।
रेड स्पाइडर माइट-
 इस पर नियंत्रण के लिए 0.4 एमएल पानी में अबामेसटीन 1.9 ईसी मिलाकर छिड़काव करें।
नेमाटोड-
 इस पर नियंत्रण के लिए पौधारोपण के वक्त मिट्टी में ढाई किलोग्राम सूडोमोनासफ्लूरेसेंस प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करें।

मुख्य रोग-

फूल की कली का सड़ जाना-
 इस पर नियंत्रण के लिए प्रति लीटर पानी में दो ग्राम की दर से कॉपर ऑक्सीक्लोराइड को मिलाकर छिड़काव करें।
पाउडर फफूंद- 
इस पर नियंत्रण के लिए अजोक्सीस्ट्रोबिन की एक ग्राम मात्रा एक लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।

फसल कटाई-

आमतौर पर पौधारोपण के तीन महीने के बाद जरबेरा के पौधे में पुष्पण शुरू हो जाता है। जब फूल पूरी तरह खुले हुए होते हैं या डंठल में बाहरी फूल की दो से तीन कतारें सीधी खड़ी रेखा में आ जाती हैं तब फसल की कटाई की जाती है। फूल की जिंदगी को और लंबा करने के लिए फूल के डंठल को सोडियम हाइपोक्लोराइड (6 से 7 मिली प्रति एक लीटर में) के घोल में पांच घंटे के लिए डूबा देना चाहिए।

फसल कटाई के बाद-

डंठल के आधार से करीब दो से तीन सेमी उपर काटना चाहिए और उसे ताजा क्लोरीन मिले पानी में रखना चाहिेए। फूल को छांट लेना चाहिए, एकरुपता के लिए क्रम में लगा देना चाहिए और कार्टून के बक्से में पैक कर देना चाहिए।

पैदावार-

कोई भी फसल की पैदावार खेत प्रबंधन के तौर-तरीकों और मिट्टी की किस्मों पर निर्भर करता है। खुले तौर पर और पौधा घरों में जरबेरा की खेती करने से निम्न पैदावार होती है-
– खुले मैदान में या जालीदार शेड की खेती- 140 से 150 कटे हुए फूल प्रति वर्ग मीटर प्रति साल पैदावार की आस होती है।
– पौधा घरों में खेती- 225 से 250 कटे हुए फूल प्रति वर्ग मीटर प्रति साल हासिल किया जा सकता है।

सौ बात की एक बात-

यह एक बेहतरीन फायदेमंद उगाई जानेवाली फसल है जिसका पूरे भारत में और स्थानीय बाजार में भी बेहतरीन मूल्य मिलता है।

Monday, 6 November 2017

बहु कटाई वाली ज्वार की खेती


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भारत में  मात्र 4 प्रतिशत भूमि पर चारे की खेती की जाती है तथा एक गणना के अनुसार भारत में 36 प्रतिशत हरे चारे एवं 40 प्रतिशत सूखे चारे की कमी है | अत: बढती हुई आबादी एवं घटते हुए कृषि क्षेत्रफल को ध्यान में रखते हुए हमें उन चारा फसलों की खेती करनी होगी जो लम्बे समय तक पशुओं को पोष्टिक चारा उपलब्ध कराने के साथ साथ हमारी जलवायु में आसानी से लगाई जा सके |
शरद ऋतू में बरसीम, जई, रिजका, कुसुम आदि की उपलब्धता मार्च के पहले पखवाड़े तक बनी रहती है किन्तु बहु कट चारा ज्वार से पशुओं को लम्बे समय तक हरा चारा आसानी से मिल सकता है  ज्वार का चारा स्वाद एवं गुणवत्ता में बहुत अच्छा होता है |
शुष्क भार के आधार पर  ज्वार चारे में औसत 9 से 10 प्रतिशत प्रोटीन, 8-17 प्रतिशत शर्करा, 30-32 प्रतिशत फाइबर, 65-72 प्रतिशत एन.डी. एफ., 36 प्रतिशत सेलुलोज एवं 21 से 26 प्रतिशत हेमी सेलुलोज पाया जाता है |
ज्वार की पानी उपयोग करने की क्षमता भी अन्य चारा  फ़सलों की तुलना में अधिक है। शीघ्र बढवार एवं अधिक चारा उत्पादन क्षमता एवं कम पानी में भी अधिक उत्पादन देने के कारण यह  एक आदर्श चारा फसल है|
सामान्यत: एक कटान वाली ज्वार में 50 प्रतिशत पुष्प अवस्था आने तक एक विषैला तत्व (हाइड्रोसायनिक अम्ल) असुरक्षित मात्रा में विद्यमान रहता है  अत: इन किस्मों की कटाई के लिए  पुष्प अवस्था आने का अथवा 75 से 80 दिन का इंतजार करना पड़ता है | किन्तु बहुकट चारा ज्वार सूडान घास के गुण तथा सिचाई की दशाओं में खेती करने के कारण बुआई के 50 से 60 दिन में पशुओं को खिलाने के योग्य हो जाती है  तथा एक से  अधिक कटाई लेने के कारण यह लम्बे समय तक पशुओ को चारा  उपलब्ध कराने में सक्षम है |

चारा ज्वार की बहु कटाई वाली किस्में:

चारा उत्पादन हेतु भारत में ज्यादातर किसान ज्वार की स्थानीय किस्में लगाते है जो कम उत्पादन देने के साथ-साथ कीट एवं रोगों से प्रभावित होती है | अत: किसानो को अधिक उत्पादन देने वाली बहु कटाई चारा ज्वार किस्मों का अपने क्षेत्र के अनुरूप चयन करना चाहिए |
विगत कुछ वर्षो में विभिन्न कृषि जलवायु वाली परिस्थितियों के लिए राष्टीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर ज्वार की बहु कटाई वाली बहुत सी किस्में विकसित की गई है | किसान अपने क्षेत्र के अनुरूप संस्तुत किस्म का चयन कर अधिक से अधिक उत्पादन ले सकता है |

एस. एस. जी.-59-3:

 यह किस्म सम्पूर्ण भारत में लगाई जा सकती है  तथा  प्रति हेक्टेयर 600 से 700 क्विंटल हरा चारा एवं 150 क्विंटल सुखा चारा देती है| इस किस्म में 55 से 60 दिन में फूल आते है तथा यह लम्बे समय तक हरा चारा देने में सक्षम है इसका तना लम्बा, पतला  एवं कम  रसदार एवं कम मीठा होता है | इस किस्में बीज उत्पादन की समस्या रहती है तथा साथ ही साथ यह रोगों के प्रति सहिष्णु भी है |

एम. पी. चरी:

 इस किस्म का तना लम्बा एवं कम  रसदार, पत्तियां मध्यम लम्बी, पतली तथा मध्य शिरा सफेद होती है तथा इस किस्म में हाइड्रोसायनिक अम्ल कम होता है तथा इस किस्म में 65 से 70 दिन में फूल आते है | यह किस्म रोगों के प्रति सहिष्णु होने के साथ साथ ग्रीष्म ऋतू के लिए उपयुक्त  है तथा  सम्पूर्ण भारत में लगाई जा सकती है | इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 400 से 500 क्विंटल हरा चारा एवं 95 से 110 क्विंटल सुखा चारा मिलता है |

पूसा चरी 23:

 यह किस्म उत्तरी भारत में लगाई जा सकती है तथा प्रति हेक्टेयर 500 से 550 क्विंटल हरा चारा एवं 160 क्विंटल सुखा चारा देती है | इस किस्म का तना पतला, कम रस दार एवं कम मीठा  होता है तथा इसकी  पत्तीयां पतली एवं मध्य शिरा सफेद होती है| इस किस्म की बीज उत्पादन क्षमता तथा पोषण गुणवत्ता अच्छी होने के साथ साथ यह कम अवधि वाली किस्म है |

को. 29:

 इस किस्म में कटाई के बाद कल्ले फूटने की क्षमता अच्छी होती है तथा  बीज बारीक़ होने के कारण बीज उत्पादन की अत्यधिक समस्या रहती है | यह किस्म सम्पूर्ण भारत में लगाई जा सकती है तथा प्रति हेक्टेयर 800 से 900 क्विंटल हरा चारा एवं 180 क्विंटल सुखा चारा देती है|

सी. एस. एच. 20 एम. एफ. :

 यह एक संकर किस्म है  | इस किस्म का तना  लम्बा, मिठास एवं रस वाला, पत्तीयां गहरी हरी एवं मध्य शिरा हरी होती है| एह किस्म पत्तीधब्बा रोग रोधी होने के साथ साथ  पोषण गुणवत्ता वाली होती है तथा सम्पूर्ण भारत में लगाई जा सकती है तथा प्रति हेक्टेयर 850 से 950 क्विंटल हरा चारा एवं 200 क्विंटल सुखा चारा देती है|

सी. एस. एच. 24 एम. एफ. :

  यह  एक संकर किस्म है जो सम्पूर्ण भारत में लगाई जा सकती है | इस किस्म का तना  लम्बा, मध्यम मोटाई वाला, मिठास एवं रस युक्त होता है तथा  पत्तीयां हल्की  हरी एवं मध्य शिरा हरी होती है | यह किस्म पत्तीधब्बा रोग रोधी होने के साथ साथ इसकी बीज उत्पादन क्षमता एवं  पोषण गुणवत्ता अच्छी होती है तथा यह प्रति हेक्टेयर 850 से 950 क्विंटल हरा चारा एवं 200 क्विंटल सुखा चारा देती है|

पी. सी. एच. 106 :

 यह एक संकर किस्म है जो सम्पूर्ण भारत में लगाई जा सकती है तथा इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 700 से 800 क्विंटल हरा चारा एवं 180 क्विंटल सुखा चारा मिलता है | इस किस्म में 60 से 62 दिन में फूल आते है तथा इसका तना पतला सुखा एवं कम रसीला होता है इस किस्म से 3-4 कटाई आसानी से ले सकते है तथा  यह पत्तीधब्बा रोग सहिष्णु किस्म है |

पी. सी. एच. 109 :

 यह एक संकर किस्म है जो पत्तीधब्बा रोग से सहिष्णु होती है तथा इसका तना सुखा एवं कम रसीला होता है | यह सम्पूर्ण भारत में लगाई जा सकती है तथा प्रति हेक्टेयर 750 से 800 क्विंटल हरा चारा एवं 170 क्विंटल सुखा चारा देती है |

पंजाब सुड़ेक्स :

 यह एक संकर किस्म है | इस किस्म में 60 से 65 दिन में फूल आते है तथा  8-10 कल्ले निकलते है | इसका तना पतला एवं कम रसीला होता है | यदि सिचाई की सुविधा हो तो इस किस्म से 4 कटाई आसानी से ले सकते है | यह किस्म पंजाब में लगाई जा सकती है तथा प्रति हेक्टेयर 600 क्विंटल हरा चारा एवं 170 क्विंटल सुखा चारा देती है |

हरा सोना :

 यह एक संकर किस्म है | इस किस्म में 60 से 65 दिन में फूल आते है तथा 9-10 पत्तीयां होने के साथ साथ इसका तना पतला होता है तथा इसमें 5-6 कल्ले निकलते है| इस किस्म से  3 कटाई आसानी से ले सकते है | यह किस्म पंजाब में लगाई जा सकती है तथा प्रति हेक्टेयर 630 क्विंटल हरा चारा एवं 150 क्विंटल सुखा चारा देती है |

खेत का चुनाव एवं तैयारी :

चारा ज्वार की खेती  वैसे तो सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है परन्तु अच्छे जल निकास वाली दोमट मिट्टी इसके लिय उत्तम है | बुवार्इ से पहले 10-15 से.मी. गहरी जुताई करें तथा इसके बाद 2-3 जुताई कल्टीवेटर से करके जमीन को भुरभुरी बनाऐ तथा इसके बाद जमीन को समतल करे, अंतिम जुताई से पहले खेत में 8-10 टन गोबर की सड़ी हुई खाद अच्छी तरह मिला दें |

ज्वार की बुआई के लि‍ए बीजोपचार :

बीज को थीरम अथवा कैप्टान दवा 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से शोधित कर लेना चाहिये। तथा प्ररोह मक्खी एवं चुसक प्रकार के कीटों के प्रकोप को प्रारंभिक अवस्था में रोकनें  के लिए बीज को इमिडाक्लोरोप्रिड (गोचो) 14 मि.ली. प्रति किलोग्राम  बीज की दर से उपचारित करना चाहिए |

बुआई का समय :

 बहु कटाई वाली किस्मों की बुआर्इ अप्रेल के पहले पखवाड़े में करनी चाहिए तथा असिंचित क्षेत्रों में मानसून के आने के बाद अथवा 15 जून बाद बुआई करें |

बुआर्इ की विधि :

 बुआर्इ कतारों में करे तथा कतार से कतार की दूरी 25 से 30 से.मी. रखें | बीज की बुआर्इ ड्रील या पोरे की मदद से 2.5 से.मी. से 4 से.मी. की गहराई में करें |

बीज की दर :

 बहुकट चारा ज्वार की किस्मों हेतु  बीज की मात्रा 40 से 50 की.ग्रा. प्रति हेक्टेयर रखें |

खाद एवं उर्वरक :

अंतिम जुताई से पहले खेत में 8-10 टन गोबर की सड़ी हुई खाद अच्छी तरह मिला दें | प्राय: ज्वार की फसल को 80 कि. ग्रा. नत्रजन एवं 40 कि. ग्रा. फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है  लेकिन नत्रजन की मात्रा 120 कि. ग्रा. / है. रखने से उत्पादन अधिक मिलता है इसके लिए 40 कि. ग्रा. नत्रजन एवं 40 कि. ग्रा. फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के समय दें तथा 25 से 30 कि. ग्रा. नत्रजन  फसल 30 से 35 दिवस की होने पर यूरिया के रूप में देवें तथा प्रत्येक कटाई के  बाद 20 से 25 कि. ग्रा. नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर  से दें तथा  यूरिया देते समय ध्यान रखे की खेत में नमी अवश्य हो |

चारा ज्वार की खेती में सिंचाई :

बहु कटाई वाली चारा ज्वार की बुआई अप्रेल के पहले पखवाड़े में करते है अत: इसमें पानी की आवश्यकता होती है | बुआई के तुरंत बाद सिचाई करें तथा इसके बाद 8 से 10 दिन के अन्तराल पर सिचाई करें| प्रत्येक कटाई के  बाद सिंचाई दें ताकि फसल में फुटाव ठीक प्रकार से हो | मानसून शुरू होने के बाद आवश्यकता अनुसार सिचाई करें |

खरपतवार नियन्त्रण :

कतार से कतार की दूरी कम होने के कारण खरपतवार का प्रकोप कम होता है फिर भी फसल को खरपतवार मुक्त रखने के लिए बुआई के बाद अंकुरण से पहले एट्राजिन का 0.5 से 0.75 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करें। इन्टर कल्चर के द्वारा भी खरपतवार को नष्ट किया जा सकता है |

चारा ज्वार में रोग एवं कीट :

प्ररोह मक्खी के प्रकोप को  रोकनें  के लिए बीज को कार्बोसल्फान 50 एस. टी. 160 ग्राम अथवा इमिडाक्लोरोप्रिड (गोचो) 14 मि. ली. प्रति किलोग्राम  बीज की दर से उपचारित करके बुआई करनी चाहिए | अधिक प्रकोप होने पर फसल में कार्बेरिल 50% घु.पा. प्रति हेक्टेयर को 500 ली. पानी में मिलाकर छिडकाव करें  जरूरत पड़ने पर दूसरा छिडकाव 10 से 12 दिन के अन्तराल पर करें |
तना भेदक कीट का प्रकोप फसल में 10 से 15 दिन से शुरू होकर फसल के पकने तक रहता है! खेत में बुआई के समय रासायेनिक खाद के साथ 10 की. ग्रा. की दर से फोरेट 10 जी अथवा कार्बोफ्युरोंन दवा खेत में अच्छी तरह मिला दें तथा बुआई के 15 से 20 दिन बाद कार्बेरिल 50 प्रतिशत घुलनशील पाउडर 2ग्रा./ली. पानी में घोल बना कर 10 दिन के अन्तराल पर दो छिड़काव करना चाहिए |
फसल में चूसक प्रकार के कीटो के प्रकोप को रोकने के लिए  फसल में 0.5 मि.ली./ली. की दर से  इमिडाक्लोरोप्रिड का छिडकाव कर सकते है | दवा के छिडकाव के बाद 20 दिन तक यह चारा पशुओं को नहीं खिलाएं तथा फसल 30-40 दिन की हो जाने पर ज्यादा कीट एवं रोग नाशक दवाओं का प्रयोग नहीं करना चाहिए ताकि चारे की गुणवत्ता बनी रहे |

फसल की कटाई :

बहु-कट चारा ज्वार की पहली कटाई बुआई के 60 दिन बाद करें एवं उसके बाद प्रत्येक कटाई 45 दिन बाद करें | तथा हर कटाई के समय जमीन से 10-12 सेमी. की ठूंठी छोड़ देनी चाहिए फसल में फुटाव ठीक प्रकार से हो |

उत्पादन : 

बहु कटाई वाली किस्मों से  2-3 कटाई में औसत 650 से 700 क्विंटल/है. हरा चारा एवं 150 क्विंटल/ है. सूखा चारा तथा संकर किस्मों से औसत 850 से 950 क्विंटल/ है. हरा चारा एवं 200 क्विंटल/ है. सूखे चारे का उत्पादन लिया जा सकता है |

विषैले तत्वों का प्रबंधन:


ज्वार में हाइड्रोसायनिक अम्ल असुरक्षित मात्रा में विद्यमान रहता है तथा इसकी अधिक सांद्रता पशुओं के लिए हानिकारक होती है | हाइड्रोसायनिक अम्ल की सांद्रता यदि चारे में  200 पी. पी. एम. से अधिक है तो यह पशुओं के लिए घातक हो सकता है | प्राय: बहुकट चारा ज्वार सूडान घास के गुण तथा सिचाई की दशाओं में खेती करने के कारण बुआई के 50 से 60 दिन में पशुओं को खिलने के योग्य हो जाती है  लेकिन जमीन में नमी की कमी होती है तो फसल में विषैला तत्व धुरीन एवं नाइट्रेट जमा हो जाता है तथा सूखे की दशा में कटाई के बाद आने वाले कल्लों में 
हाइड्रोसायनिक अम्ल की सांद्रता अधिक होती है अत: कटाई से पहले सिंचाई करें तथा कटाई के बाद हरे चारे को 4-5 घंटे धुप में रखे तथा अन्य चारे के साथ उचित मात्रा में मिलाकर पशुओं को खिलाना चाहिए |

Sunday, 5 November 2017

बीजोपचार का महत्व

बीजोपचार का महत्व (Importance of Seed Treatment)


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कृषि क्षेत्र की प्राथमिकता उत्पादकता को बनाये रखने तथा बढ़ाने मे बीज का महत्वपूर्ण स्थान है। उत्पादकता बढ़ाने के लिए उत्तम बीज का होना अनिवार्य है। उत्तम बीजों के चुनाव के बाद उनका उचित बीजोपचार भी जरूरी है क्यों कि बहुत से रोग बीजो से फैलते है। अतः रोग जनको, कीटों एवं असामान्य परिस्थितियों से बीज को बचाने के लिए बीजोपचार एक महत्वपूर्ण उपाय है।

बीजोपचार के लाभ

अनुसंधान द्वारा पाया गया कि बीजोपचार के लाभ उत्तम पौधों, अच्छी गुणवत्ता, ऊँची पैदावार और रोगों तथा कीट नियंत्रण मे लगी पूंजी पर अच्छी आय के रूप में दिखाई देते है। परंतु आज भी ऐसे किसानों की संख्या बहुत अधिक है, जो अनुपचारित बीज बोते है। इसलिए उपचारित बीजों के लाभों का व्यापार प्रचार तथा प्रसार करना बहुत आवश्यक है।

बीजोढ़ रोगों का नियंत्रण:-

 छोटे दाने की फसलों, सब्जियों व कपास के बीज के अधिकांश बीजोढ़ रोगों के लिए बीज निसंक्रमण व बीज विग्रसन  बहुत प्रभावकारी होता है।

मृदोढ़ रोगों का नियंत्रण:-

 मृदोढ़ कवक, जीवाणु व सूत्रकृमि से बीज व तरूण पौधों को बचाने के लिए बीजों को कवकनाशी रसायन से उपचारित किया जाता है, जिससे बीज जमीन मे सुरक्षित रहते है, क्योंकि बीजोपचार रसायन बीज के चारो और रक्षक लेप के रूप में चढ़ जाता है और बीज की बुवाई ऐसे जीवों को दूर रखता है।

अंकुरण मे सुधार:-

 बीजों को उचित कवकनाशी से उपचारित करने से उनकी सतह कवकों के आक्रमण से सुरक्षित रहती है, जिससे उनकी अंकुरण क्षमता बढ़ जाती है। यदि बीज पर कवकों का प्रभाव बहुत अधिक होता है तो भंडारण के दौरान भी उपचारित सतह के कारण उनकी अंकुरण क्षमता बनी रहती है।

कीटों से सुरक्षा:-

 भंडार में रखने से पूर्व बीज को किसी उपयुक्त कीटनाशी से उपचारित कर देने से वह भंडारण के दौरान सुरक्षित रहता हैं कीटनाशी का चयन संबधित फसल बीज के प्रकार और भंडारण अवधि के आधार पर किया जाता है।

मृदा कीटों का नियंत्रण:-

 कीटनाशी और कीटनाशी का संयुक्त उपचार करने से बुआई के बाद मृदा में सुरक्षित रहता है और बीज अवस्था में उसका विकास निर्विधन होता है।

बीजोपचार की विधियाँ:

नमक के घोल से उपचार:-

पानी में नमक का 2 प्रतिशत का घोल तैयार करे, इसके लिए 20 ग्राम नमक को एक लीटर पानी में अच्छी तरह मिलाएँ। इनमें बुवाई के लिए काम मे आने वाले बीजों को डालकर हिलाएँ। हल्के एवं रोगी बीज इस घोल में तैरने लगेंगे। इन्हे निथार कर अलग कर दें और पैंदे में बैठे बीजों को साफ पानी से धोकर सुखाले फिर फफूंदनाशक, कीटनाशक एवं जीवाणु कल्चर से उपचारित करके बोयें।

ताप का उपचार:-

कुछ रोगों के जीवाणु जो बीज के अन्दर रहते है, इनकी रोकथाम के लिए बीजों को मई- जुन के महिनों में जब दिन का तापमान 40 से 50 सेन्टीग्रेड के मध्य होता है तक बीजों को 6 से 7 घण्टे तक पक्के फशॆ पर धूप लगा दे जैसे गेहूँ के कुंडूआ रोग में।

फफूंदनाशक दवाओं से उपचार:-

बीजों को फफूंदनाशक दवाओं से उपचारित करने के लिए इन्हें पाउडर या तरल अवस्था में उपयोग कर सकते है। इन रसायनों के रक्षणीयता के आधार पर इन्हें दो भागों में बांटा गया है।

रोगनाशक:

 ये रसायन बीजोपचार के बाद बीज को एक बार रोगाणुनाशक बना देते है। परन्तु बुवाई के बाद ये रसायन अधिक समय तक सक्रिय नहीं हर पाते है।

रक्षक:

 इस प्रकार के रसायन बीज की सतह पर चिपक कर बुवाई के बाद पौध अवस्था मे भी रोगो से रक्षा करते है। अधिकतर बीजोपचार वाले रसायन या तो कार्बनिक पारद पदार्थ होते है या अपारद पदार्थ जैसे सल्फेट, कापर कार्बोनेट आदि।

फफूंदनाशक दवाओं से बीजोपचार की विधियाँ:

सूखी विधि:

इस विधि में रसायनों के पाउडर का उपयोग किया जाता है। इनमे एग्रोसेन जी.एन. सेरेरान, बीटावेक्स, कॅापर सल्फेट, ऐसीटान, बाविस्टिन इत्यादि की 2 से 2.5 ग्राम/कि.ग्राम बीज दर से उपचारित करते है।

गीली विधि:

जब रसायनों को बीजों के अन्दर पहुंचाना जरूरी होता है तब पानी मे घुलनशील फफूंदनाशक दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है। अलग-अलग रोगों के लिए अलग-अलग सान्द्रता के घोल में डालकर उपचारित करके बोया जाता है। उदाहरण के लिए आलू के स्कर्वी रोग से फसल को बचाने के लिए आलू के बीजों का एरीटॅान या टुफासान के 0.5 प्रतिशत घोल मे 2 मिनट तक डुबोया जाना चाहिए। मूंगफली के टिक्का रोग से बचाने के लिए बीजों को 2.5 प्रतिशत फार्मेलिन घोल में आधा घंटे रखते है।

कीटनाशी उपचार:

मृदा में तंतु कृमि, दीमक तथा अन्य कीट पौधों को क्षति पहुँचाते हैं। बीज को कीटनाशकों से उपचारित कर बुवाई करने से बीज तथा तरूण पौधों को कीटों से मुक्त रख सकते हैं। इसके अतिरिक्त संसाधित बीज को भंण्डारण के दौरान सुरक्षित रखा जा सकता है। दीमक के उपचार के लिए क्लोरोपाईरीफॅास 20 ई.सी. का पानी में घोल बनाकर बीज पर छिडकाव किया जाता है। कीटनाशक की तरल अवस्था नहीं मिलने पर इसे पाउडर अवस्था में भी काम में लिया जा सकता है। कीटनाशी की मात्रा बीज दर तथा आकार पर निर्भर करती है।

जीवाणु कल्चर से उपचार:

विभिन्न जीवाणु कल्चर से बीजोपचार कर पौधों के लिये मृदा में पोषक तत्वों की उपलब्धता को बढाया जाता है। जीवाणु कल्चर के बीजोपचार से अच्छे परिणाम के लिये सही विधि का महत्वपूर्ण योगदान है।
वाहक आधरित जीवाणु खाद (200 ग्राम) को गुड़ के 10 प्रतिषत घोल (एक लीटर पानी में 100 ग्राम गुड़) में मिलाया जाता है और इस घोल को एक एकड़ के बीजों की मात्रा पर छिडक कर मिलाया जाता है। ताकि बीजों पर वाहक की परत बन जाये। इन बीजों को छाया में सुखाकर तुरन्त बुवाई करनी चाहिए। उपचारित बीजों को रासायनिक उर्वरकों तथा कृषि रसायनों के सम्पर्क से बचाना चाहिये।

सामान्यतया उपयोग में आने वाले जीवाणु कल्चर निम्न हैं -

राइजोबियम जीवाणु:

 इन जीवाणुओं का दलहनी फसलों के साथ प्राकृतिक सहजीवता का सम्बन्ध होता है। ये दलहनी फसलों की जडों में रहकर ग्रथिया बनाते है एवं नत्रजन स्थिर करते हैं। इनके द्वारा नत्रजन की स्थिर की गयी मात्रा जीवाणु विभेद, पौधों की किस्में, मृदा गुणों, वातावरण, सस्य क्रियाओं आदि पर निर्भर करती है। राइजोबियम - दलहन सहजीवता से 100-200 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टर प्रतिवर्ष होती है।

ऐजोटोबेक्टर जीवाणु:

 ये जीवाणु गैर दलहनी फसलों जैसे गेहूँ, जौ, मक्का, ज्वार, बाजरा, आदि के लिये उपयुक्त है। ये 20-30 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेकटर तक स्थिर कर सकते है।

फास्फोरस विलेयकारी जीवाणु:

 ये जीवाणु मृदा में उपस्थित अविलेय, स्थिर तथा अप्राप्त फास्फोरस की विलेयता को बढ़ाकर उसे पौधों को उपलब्ध कराने में सहायक होते है। इसका उपयोग लगभग सभी फसलों में हो सकता है। अलग-अलग दलहनी फसलों की जड़ों में राइजोबियम नामक जीवाणु की अलग-अलग प्रजाति होती है, इसलिये अलग-अलग जीवाणु या कल्चर की जरूरत पड़ती है।


फसल में अगर कीटनाशी, फफूंदनाशी और जीवाणु कल्चर का उपयोग बीजोपचार द्वारा करना हो तो सर्वप्रथम कीटनाशी के उपचार के बाद क्रमशः फफूंदनाशी व जीवाणु कल्चर का उपयोग करें।

Tuesday, 24 October 2017

ग्वारपाठा की खेती

ग्वारपाठा की खेती (Farming of aloevera)


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ग्वारपाठा, घृतकुमारी या एलोवेरा जिसका वानस्पतिक नाम एलोवेरा बारबन्डसिस हैं तथा लिलिऐसी परिवार का सदस्य है। इसका उत्पत्ति स्थान उत्तरी अफ्रीका माना जाता है। एलोवेरा को विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है, हिन्दी में ग्वारपाठा, घृतकुमारी, घीकुंवार, संस्कृत में कुमारी, अंग्रेजी में एलोय कहा जाता है। एलोवेरा में कई औषधीय गुण पाये जाते हैं, जो विभिन्न प्रकार की बीमारियों के उपचार में आयुर्वेदिक एंव युनानी पद्धति में प्रयोग किया जाता है जैसे पेट के कीड़ों, पेट दर्द, वात विकार, चर्म रोग, जलने पर, नेत्र रोग, चेहरे की चमक बढ़ाने वाली त्वचा क्रीम, शेम्पू एवं सौन्दर्य प्रसाधन तथा सामान्य शक्तिवर्धक टॉनिक के रूप में उपयोगी है। इसके औषधीय गुणों के कारण इसे बगीचों में तथा घर के आस पास लगाया जाता है। पहले इस पौधे का उत्पादन व्यावसायिक रूप से नहीं किया जाता था तथा यह खेतों की मेढ़ में नदी किनारे अपने आप ही उग जाता है। परन्तु अब इसकी बढ़ती मांग के कारण कृषक व्यावसायिक रूप से इसकी खेती को अपना रहे हैं, तथा समुचित लाभ प्राप्त कर रहे हैं।

एलोवेरा के पौधे की सामान्य उंचाई 60-90 सेमी. होती है। इसके पत्तों की लंबाई 30-45 सेमी. तथा चौड़ाई 2.5 से 7.5 सेमी. और मोटाई 1.25 सेमी. के लगभग होती है। एलोवेरा में जड़ के ऊपर जो तना होता है उसके उपर से पत्ते निकलते हैं, शुरूआत में पत्ते सफेद रंग के होते हैं। एलोवेरा के पत्ते आगे से नुकीले एवं किनारों पर कटीले होते हैं। पौधे के बीचो बीच एक दण्ड पर लाल पुष्प लगते हैं। हमारे देश में कई स्थानों पर एलोवेरा की अलग- अलग प्रजातियां पाई जाती हैं। जिसका उपयोग कई प्रकार के रोगों के उपचार के लिये किया जाता है। इसकी खेती से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए किसान भाई निम्न बातें ध्यान में रखे:-

जलवायु एवं मृदा

यह उष्ण तथा समशीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। कम वर्षा तथा अधिक तापमान वाले क्षेत्रों में भी इसकी खेती की जा सकती है। इसकी खेती किसी भी प्रकार की भूमि में की जा सकती है। इसे चट्टानी, पथरीली, रेतीली भूमि में भी उगाया जा सकता है, किन्तु जलमग्न भूमि में नहीं उगाया जा सकता है। बलुई दोमट भूमि जिसका पी.एच. मान 6.5 से 8.0 के मध्य हो तथा उचित जल निकास की व्यवस्था हो उपयुक्त होती है।

खेत की तैयारी

ग्रीष्मकाल में अच्छी तरह से खेत को तैयार करके जल निकास की नालियां बना लेना चाहिये तथा वर्षा ऋतु में उपयुक्त नमी की अवस्था में इसके पौधें को 50 & 50 सेमी. की दूरी पर मेढ़ अथवा समतल खेत में लगाया जाता है। कम उर्वर भूमि में पौधों के बीच की दूरी को 40 सेमी. रख सकते हैं। जिससे प्रति हेक्टेयर पौधों की संख्या लगभग 40,000 से 50,000 की आवश्यकता होती है। इसकी रोपाई जून-जुलाई माह में की जाती है। परन्तु सिंचित दशा में इसकी रोपाई फरवरी में भी की जा सकती है।

निराई - गुडाई

प्रारंभिक अवस्था में इसकी बढ़वार की गति धीमी होती है। अत: प्रारंभिक तीन माह तक में 2-3 निंदाई गुड़ाई की आवश्यकता होती है। क्योंंकि इस काल मे विभिन्न खरपतवार तेजी से वृद्धि कर ऐलोवेरा की वृद्धि एवं विकास पर विपरीत असर डालते हैं। 8 माह के बाद पौधे पर मिट्टी चढ़ाएं जिससे वे गिरे नहीं ।

खाद एवं उर्वरक

सामान्यतया एलोवेरा की फसल को विशेष खाद अथवा उर्वरक की आवश्यकता नहीं होती है। परन्तु अच्छी बढ़वार एवं उपज के लिए 10-15 टन अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद को अंतिम जुताई के समय खेत में डालकर मिला देना चाहिए । इसके अलावा 50 किग्रा. नत्रजन, 25 किग्रा. फास्फोरस एवं 25 किग्रा. पोटाश तत्व देना चाहिये । जिसमे से नत्रजन की आधी मात्रा एवं फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी रोपाई के समय तथा शेष नत्रजन की मात्रा 2 माह पश्चात् दो भागों में देना चाहिए अथवा नत्रजन की शेष मात्रा को दो बार छिड़काव भी कर सकते हैं।

सिंचाई

एलोवेरा असिंचित दशा में उगाया जा सकता है। परन्तु सिंचित अवस्था में उपज में काफी वृद्धि होती है। ग्रीष्मकाल में 20-25 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करना उचित रहता है। सिंचाई जल की बचत करके एवं अधिक उपयोग करने के लिये स्प्रिंकलर या ड्रिप विधि का उपयोग कर सकते हैं।

पौध संरक्षण

इस फसल में साधारणतया कोई कीड़े अथवा रोग का प्रकोप नहीं होता है। परन्तु भूमिगत तनों व जड़ों को ग्रब नुकसान पहुंचाते हैं। जिसकी रोकथाम के लिये 60-70 किलोग्राम नीम की खली प्रति हेक्टर के अनुसार दें अथवा 20-25 किग्रा. क्लोरोपायरीफॉस डस्ट प्रति हेक्टर का भुरकाव करें । वर्षा ऋतु में तनों एवं पत्तियों पर सडऩ एवं धब्बे पाये जाते हैं, जो फफूंदजनित रोग है। जिसके उपचार के लिये मेन्कोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना उपयुक्त रहता है।

अंतरवर्तीय फसल

एलोवेरा की खेती अन्य फल वृक्ष औषधीय वृक्ष या वन में रोपित पेड़ों के बीच में सफलतापूर्वक की जा सकती है।

कटाई एवं उपज

इस फसल की उत्पादन क्षमता बहुत अधिक हैं फसल की रोपाई के बाद एक वर्ष के बाद पत्तियां काटने लायक हो जाती है। इसके बाद दो माह के अन्तराल से परिपक्व पत्तियों को काटते रहना चाहिए। सिंचित क्षेत्र मे प्रथम वर्ष में 35-40 टन प्रति हेक्टर उत्पादन होता है। तथा द्वितीय वर्ष में उत्पादन 10-15 फीसदी तक बढ़ जाता है। उचित देखरेख एवं समुचित पोषक प्रबंधन के आधार पर इससे लगातार तीन वर्षों तक उपज ली जा सकती है। असिंचित अवस्था में लगभग 20 टन प्रति हेक्टर उत्पादन मिल जाता है।

प्रवर्धन विधि एवं रोपाई

इसका प्रवर्धन वानस्पतिक विधि से होता है। व्यस्क पौधों के बगल से निकलने वाले चार पांच पत्तियों युक्त छोटे पौधे उपयुक्त होते हैं, प्रारंभ में ये पौधे सफेद रंग के होते हैं, तथा बड़े होने पर हरे रंग के हो जाते हैं। इन स्टोलन/सर्कस को मातृ पौधे से अलग करके नर्सरी या सीधे खेत में रोपित करते हैं।

Sunday, 22 October 2017

मूंग की उन्नत खेती

मूंग की उन्नत खेती (Advanced cultivation of Moong)


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मूंग भारत में उगायी जाने वाली, कम समय मे पकने वाली, महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। इन फसल में वातावर्णीय नाइट्रोजन को पौधों द्वारा ग्रहण करने योग्य बनाने की अदभुत क्षमता होती हैं। जिससे पौधों को कम उर्वरक की आवश्यकता पड़ती है, और उत्पादन लागत कम हो जाती है।
इनकी खेती लगभग सभी राज्यों मे की जाती है। परन्तु महाराष्ट, आन्ध्र प्रदेश,  उत्तर प्रदेश , राजस्थान, मध्य प्रदेश तमिलनाडु तथा उड़ीसा, मूंग तथा उड़द उत्पादन के प्रमुख राज्य हैं।

मूंग की खेती के लि‍ए भूमि की तैयारी

मूंग की खेती के लिए दोमट एवं बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम होती है। भूमि में उचित जल निकासी की उचित व्यवस्था होनी चहिये। पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल या डिस्क हैरो चलाकर करनी चाहिए तथा फिर एक क्रॉस जुताई हैरो से एवं एक जुताई कल्टीवेटर से कर पाटा लगाकर भूमि समतल कर देनी चाहिए।

मूंग की  बीज की बुवाई

मूंग की बुवाई 15 जुलाई तक कर देनी चाहिए।  देरी से वर्षा होने पर शीघ्र पकने वाली किस्म की वुबाई 30 जुलाई तक की जा सकती है। स्वस्थ एवं अच्छी गुणवता वाला तथा उपचरित बीज बुवाई के काम लेने चाहिए। वुबाई कतरों में करनी चाहिए। कतरों के बीच दूरी 45 से.मी. तथा पौधों से पौधों की दूरी 10 से.मी. उचित है।

मूंग फसल में खाद एवं उर्वरक

दलहन फसल होने के कारण मूंग को कम नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है। मूंग के लिए 20 किलो नाइट्रोजन तथा 40  किलो फास्फोरस प्रति हैक्टेयर की आवश्कता होती है। नाइट्रोजन एवं फास्पोरस की मात्रा 87 किलो ग्राम डी.ए.पी. एवं 10 किलो ग्राम यूरिया के द्वारा  बुवाई के समय देनी चाहिए। मूंग की खेती हेतु खेत में दो तीन वर्षों में कम एक बार  5 से 10 टन गोबर या कम्पोस्ट खाद देनी चाहिए। इसके अतिरिक्त 600 ग्राम राइज़ोबियम कल्चर को एक लीटर पानी में 250 ग्राम गुड़ के साथ गर्म कर ठंडा होने पर बीज को उपचारित कर छाया में सुखा लेना चाहिए तथा बुवाई कर देनी चाहिए। खाद एवं उर्वरकों के प्रयोग से पहले मिटटी की जाँच कर लेनी चहिये।

मूंग में खरपतवार नियंत्रण

फसल की बुवाई के एक या दो दिन पश्चात तक पेन्डीमेथलिन (स्टोम्प )की बाजार में उपलब्ध 3.30 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करना चाहिए फसल जब 25 30 दिन की हो जाये तो एक गुड़ाई कस्सी से कर देनी चहिये या  इमेंजीथाइपर(परसूट) की 750 मी. ली . मात्रा प्रति हेक्टयर की दर से पानी में घोल बनाकर छिड़काव कर देना चाहिए।

मूंग फसल के रोग तथा किट नियंत्रण

दीमक :

 दीमक फसल के पौधों की जड़ो को खाकर नुकसान पहुंचती है। बुवाई से पहले अंतिम जुताई के समय खेत में क्यूनालफोस 1.5 प्रतिशत या क्लोरोपैरिफॉस पॉउडर की 20-25 किलो ग्राम मात्रा प्रति हेक्टयर की दर से मिटटी में मिला देनी चाहिए  बोनेके समय बीज को क्लोरोपैरिफॉस कीटनाशक की 2 मि.ली. मात्रा को प्रति किलो ग्राम बीज दर से उपचरित कर बोना चाहिए। 

कातरा:


 कातरा का प्रकोप बिशेष रूप से दलहनी फसलों में बहुत होता है। इस किट की लट पौधों को आरम्भिक अवस्था में काटकर बहुत नुकसान पहुंचती है। इसके  नियंत्रण हेतु खेत के आस पास कचरा नहीं होना चाहिये। कतरे की लटों पर क्यूनालफोस 1.5  प्रतिशत पॉउडर की 20-25 किलो ग्राम मात्रा प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव कर देना चाहिये। 

मोयला,सफ़ेद मक्खी एवं हरा तेला:


 ये सभी कीट मूंग की फसल को बहुत नुकसान पहुँचाते हैंI इनकी रोकथाम के किये मोनोक्रोटोफास 36 डब्ल्यू ए.सी या  मिथाइल डिमेटान 25 ई.सी. 1.25 लीटर को प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए आवश्यकतानुसार दोबारा चिकाव किया जा सकता है।

पती बीटल:

 इस कीट के नियंत्रण के लिए क्यूंनफास 1.5 प्रतिशत पॉउडर की 20-25 किलो ग्राम का प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव कर देना चाहिए ।

फली छेदक:


 फली छेदक को नियंत्रित  करने के लिए मोनोक्रोटोफास आधा लीटर या मैलाथियोन या क्युनालफ़ांस 1.5 प्रतिशत पॉउडर की 20-25 किलो हेक्टयर की दर से छिड़काव /भुरकाव करनी चहिये। आवश्यकता होने पर 15 दिन के अंदर दोबारा छिड़काव /भुरकाव  किया जा सकता है।

रस चूसक कीड़े :


 मूंग की पतियों ,तनो एवं फलियों का रस चूसकर अनेक प्रकार के कीड़े फसल को हानि पहुंचाते हैं। इन कीड़ों की रोकथाम हेतु एमिडाक्लोप्रिड 200 एस एल का 500 मी.ली. मात्रा का प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। आवश्कता होने पर दूसरा छिड़काव 15  दिन  के अंतराल पर करें ।

चीती जीवाणु रोग :


 इस रोग के लक्षण पत्तियों,तने एवं फलियों पर छोटे गहरे भूरे धब्बे  के रूप में दिखाई देते है । इस रोग की रोकथाम हेतु एग्रीमाइसीन 200 ग्रामया स्टेप्टोसाईक्लीन 50 ग्राम को 500 लीटर में घोल बनाकर प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करना चाहिए ।

पीत शिरा मोजेक:


 इस रोग के लक्षण फसल की पतियों पर एक महीने के अंतर्गत दिखाई देने लगते हैI फैले हुए पीले धब्बो के रूप  में रोग दिखाई देता हैI यह रोग एक मक्खी के कारण फैलता है। इसके नियंत्रण हेतु मिथाइल दिमेटान 0.25 प्रतिशत व मैलाथियोन 0.1प्रतिशत मात्रा को मिलकर प्रति हेक्टयर की दर से 10 दिनों के अंतराल पर घोल बनाकर छिड़काव करना काफी प्रभावी  होता है।  

तना झुलसा रोग:


 इस रोग की रोकथाम हेतु 2 ग्राम मैकोजेब से प्रति किलो बीज दर से उपचारित करके बुवाई करनी चहिये बुवाई के 30-35 दिन बाद 2 किलो मैकोजेब प्रति हेक्टयर की दर से 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चहिये ।

पीलिया रोग :


 इस रोग के कारण फसल की पत्तियों में पीलापन दिखाई देता है। इस रोग के नियंत्रण हेतू गंधक का तेजाब या 0.5 प्रतिशत फैरस सल्फेट का छिड़काव करना चहिये। 

सरकोस्पोरा  पती धब्बा :


 इस रोग के कारण पौधों के ऊपर छोटे गोल बैगनी लाल रंग के धब्बे दिखाई देते हैं । पौधों की पत्तियां,जड़ें व अन्य भाग भी सुखने लगते हैं। इस के नियंत्रण हेतु कार्बेन्डाजिम की1ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चहिये बीज को 3 ग्राम केप्टान या २ ग्राम कार्बेंडोजिम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर बोना चाइये ।

किंकल विषाणु रोग:


  इस रोग के कारण पोधे की पत्तियां सिकुड़ कर इकट्ठी हो जाती है तथा पौधो पर फलियां बहुत ही कम बनती हैं। इसकी रोकथाम हेतु डाइमिथोएट 30 ई.सी. आधा लीटर अथवा मिथाइल डीमेंटन 25 ई.सी.750 मि.ली.प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करना चाहिए । ज़रूरत पड़ने पर 15 दिन बाद दोबारा छिड़काव करना चहिये ।

जीवाणु पती धब्बा, फफुंदी पती धब्बा  और विषाणु रोग :


 इन रोगो की रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम १ ग्राम , सरेप्टोसाइलिन की 0.1 ग्राम एवं मिथाइल डेमेटान  25 ई .सी.की एक मिली.मात्रा को प्रति लीटर पानी में एक साथ मिलाकर पर्णीय छिड़काव करना चहिये ।

फसल चक्र

अच्छी पैदावार प्राप्त करने एवं भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने हेतु उचित फसल चक्र आवश्यक है । वर्षा आधारित खेती के लिए मूंग -बाजरा तथा सिंचित क्षेत्रों में मूंग-गेहू/जीरा/सरसो फसल चक्र अपनाना चहिये ।

बीज उत्पादन

मूंग के बीज उत्पादन हेतु ऐसे खेत चुनने चहिये जिनमें पिछले मौसम में मूंग अन्हिं उगाया गया हो। मूंग के लिए निकटवर्ती खेतो से संदुषण को रोकने के लिए फसल के चारो तरफ 10 मीटर की दुरी तक मूंग का दूसराखेत नहीं होना चहिये ।
भूमि की अच्छी तैयारी,उचित खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग ,खरपत वार, कीड़े एवं विमारियों के नियंत्रण के साथ साथ समय समय पर अवांछनीय पौधों को निकालते रहना चहिय तथा फसल पकने पर लाटे को अलग सुखाकर दाना निकाल कर ग्रेडिंग कर लेना चहिये। बीज को साफ करके उपचारित कर सूखे स्थान में रख देना चाहिये। इस प्रकार पैदा किये गये बीज को अगले वर्ष बुवाई के लिए प्रयोग किया जा सकता है ।

कटाई एवं गहाई

मूंग की फलियों जब काली परने लगे तथा सुख जाये तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए  अधिक सूखने पर फलियों चिटकने का डर रहता है। फलियों से बीज को थ्रेसर द्वारा या डंडे द्वारा अलग कर लिए जाता है ।

मूंग की किस्में 

Pusa 1371
पुसा 1371 को नॉर्थ हिल जोन के राज्यों की बारिश की स्थिति के लिए अधिसूचित किया गया है: (त्रिपुरा, मणिपुर, जम्मू और कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में एक राज्य शामिल है) ने एमएनवीवी, रूट सड़ांध, वेब फॉल और एंथ्राकनोज में कई प्रतिरोध दिखाए हैं। पुसा 1371 की औसत प्रोटीन सामग्री 24.06% है जो चेक के बराबर है। पुसा 1371 में बुवाई के 46 दिन बाद 50% फूल दिखाई देता है, यह 87 दिनों में परिपक्व होता है और 100 बीज वजन 3.26 ग्राम होता है।
Pusa Vishal
(पूसा विशाल)
औसत उपज 12-14 क्विं / हेक्टेयर है, यह एक समय की परिपक्वता के साथ लघु अवधि की विविधता है। सर्दियों में परिपक्व अवधि 65-70 दिन और संक्षिप्त सत्र में 60-65 दिन होती है। बीज बोल्ड और हरे रंग की हरे रंग के साथ 100 बीज वजन 4.5-5.8 ग्राम हैं। यह मूंग पीले मोज़ेक वायरस के लिए सहिष्णु है। पंजाब हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चावल-गेहूँ-मुंगबीन और मक्का-आलू / सरसों-मूँगिन फसल सिस्टम के लिए उपयुक्त.
Pusa 9531
परिपक्वता अवधि 60-65 दिनों के साथ लघु अवधि की विविधता की विविधता। वसंत / समर सीजन में खेती के लिए उपयुक्त। 4 से 4.4 ग्राम के साथ बोल्ड होते हैं 100 बीज wt, बीज रंग चमकदार हरी औसत बीज उपज 12-13 क्विंटल / हे। पंजाब हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चावल-गेहूं-मूँग्वन और मक्का-आलू / सरसों-मूँगिन फसल सिस्टम के लिए उपयुक्त है।
पूसा रत्‍ना (पूसा-9972)
Pusa Ratna
यह दिल्‍ली राज्‍य के क्षेत्रों में खरीफ ऋतु में बुआई के लिए उपयुक्‍त प्रजाति हैं। इसकी फलिया एक साथ पकने वाली 65 से 70 दिन में पक कर तैयार हो जाती हैं। दाने बडे आकार के हरे चमकदार होते हैं। यह पीले विषाणू रोग की सहिष्‍णु है। दानों की औसत उपज 12 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर तथा उत्‍पादन क्षमता 16 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर है।
के 851
(K-851)
यह सभी क्षेत्रों के लि‍ए उपयुक्‍त है। उत्‍पादन क्षमता 8-9 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर है तथा फसल पकने मे 75 दि‍न का समय लगता है।
आशा
(Asha)
हरि‍याणा के लि‍ए उपयुक्‍त किस्म, उत्‍पादन क्षमता 10-14 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर तथा फसल पकने मे 70-80 दि‍न का समय लेती है।
एम एल 613
(M.L.-613)
यह पंजाब के लि‍ए उपयुक्‍त किस्म है। उत्‍पादन क्षमता 13-23 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर है तथा फसल पकने मे 84 दि‍न का समय लगता है।
हम-2
(HUM-2)
यह उत्‍तरी क्षेत्र, पूर्व-पश्‍चि‍मी मैदानी क्षेत्रों के लि‍ए उपयुक्‍त किस्म है। उत्‍पादन क्षमता 11-12 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर है तथा फसल पकने मे 65 दि‍न का समय लगता है।
हम-8
(HUM-8)
यह पूर्व-पश्‍चि‍मी मैदानी क्षेत्रों के लि‍ए उपयुक्‍त किस्म है। उत्‍पादन क्षमता 11-12 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर है तथा फसल पकने मे 66 दि‍न का समय लगता है।
पी डी एम 139
(PDM-139)
यह उत्‍तर प्रदेश के लि‍ए उपयुक्‍त किस्म है। उत्‍पादन क्षमता 11-12 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर है तथा फसल पकने मे 60 से 65 दि‍न का समय लगता है।
एस एम एल 668
(SML-668)
यह पंजाब के लि‍ए उपयुक्‍त किस्म है। उत्‍पादन क्षमता 10-11 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर है तथा फसल पकने मे 60 दि‍न का समय लगता है।



Monday, 2 October 2017

भारत में फूलगोभी की अगेती खेती

भारत में फूलगोभी की अगेती खेती (Early cultivation of cauliflower in India)


https://smartkhet.blogspot.com/2017/10/Farming-of-cauliflower.html



फूलगोभी की खेती पूरे वर्ष में की जाती है। इसको सब्जी, सूप और आचार के रूप में प्रयोग करते है। इसमे विटामिन बी पर्याप्त मात्रा के साथ-साथ प्रोटीन भी अन्य सब्जियों के तुलना में अधिक पायी जाती है फूलगोभी के लिए ठंडी और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है यदि दिन अपेक्षाकृत छोटे हों तो फूल की बढ़ोत्तरी अधिक होती है
फूल तैयार होने के समय तापमान अधिक होने से फूल पत्तेदार और पीले रंग के हो जाते है अगेती जातियों के लिए अधिक तापमान और बड़े दिनों की आवश्यकता होती है फूल गोभी को गर्म दशाओं में उगाने से सब्जी का स्वाद तीखा हो जाता है | फूलगोभी की खेती प्राय: जुलाई से शुरू होकर अप्रैल तक होती है

फूलगोभी की खेती के लि‍ए भूमि:-

जिस भूमि का पी.एच. मान 5.5 से 7 के मध्य हो वह भूमि फूल गोभी के लिए उपयुक्त मानी गई है अगेती फसल के लिए अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी तथा पिछेती के लिए दोमट या चिकनी मिट्टी उपयुक्त रहती है साधारणतया फूल गोभी की खेती बिभिन्न प्रकार की भूमियों में की जा सकती है
 भूमि जिसमे पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद उपलब्ध हो इसकी खेती के लिए अच्छी होती है हलकी रचना वाली भूमि में पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद डालकर इसकी खेती की जा सकती है

खेत की तयारी:-

पहले खेत को पलेवा करें जब भूमि जुताई योग्य हो जाए तब उसकी जुताई 2 बार मिटटी पलटने वाले हल से करें इसके बाद 2 बार कल्टीवेटर चलाएँ और प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं |

फूलगोभी की उन्नत किस्मे:-
अगेती (तापमन 20-27 डिग्री सेंटी.)
मध्यम (तापमन 12-16 डिग्री सेंटी.)
पछेती (तापमन 10-16 डिग्री सेंटी.)
पूसा दिपाली
पूसा हाइब्रिड 2
पूसा स्नोबाल 1
पूसा कार्तिक
 इम्प्रूव जापानी
पूसा स्नोबाल 2
पूसा अर्ली सेन्थेटिक
पंत शुभ्रा
पूसा स्नोबाल – के 1
पूसा कार्तिक संकर
पूसा शरद
पूसा स्नोबाल 16
पूसा मेघना
पंत गोभि -4

अर्का कांती
पूसा सेन्थेटिक

काशि कुवारी
पूसा हिम ज्योति


हिसार 1

फूलगोभी की बुआई के लि‍ए बीज दर:-
फूल गोभी
बुवाई का समय
बीज दर  (ग्राम / हेक्टेयर)

पोध एव पंक्ति की दुरी (सेंटी मीटर)
अगेती फसल
मई जून
500-600
45 x 45
मध्यकालीन
जुलाई अगस्त

350-400
50 x 50
पछेती
अक्टूम्बर नवम्बर
350-400
60 x 60


पौधशाला या नर्सरी:-


इसका बीज बारीक़ होता है अत: पहले उन्हें भली-भांति तैयार कि गई पौधशाला में बोया जाता है ताकि थोड़े समय में उसकी पौध तैयार हो सके पौधशाला में 1 मीटर चौड़ी और 3 मीटर लम्बी क्यारियां बनाएं और दो क्यारियों के मध्य 30 से. मी. नाली बनाएं
क्यारियां बनाने से पूर्व उनमे पर्याप्त मात्रा में गोबर कि खाद या कम्पोस्ट खाद डाल दें फिर उसे मिटटी से भली-भांति मिला दें बीज को बुवाई से पहले 2 से 3 ग्राम कैप्टन प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारीत कर लेना चाहिए। फिर क्यारियां मे बुवाई करे।
जब पौधे निकल आएं तब क्यारियों के मध्य बनी नालियों से सिचाई करें तेज धुप और अधिक वर्षा से पौधों को बचाने के लिए उस पर छप्पर का प्रबंध करें 4-5 सप्ताह बाद पौध रोपाई के लिए तैयार हो जाएगी |

खाद एवं उर्वरक:-

फूल गोभी कि अधिक उपज लेने के लिए भूमि में पर्याप्त मात्रा में खाद डालना अत्यंत आवश्यक है मुख्य मौसम कि फसल को अपेक्षाकृत अधिक पोषक तत्वों कि आवश्यकता होती है इसके लिए एक हे. भूमि में 35-40 क्विंटल गोबर कि अच्छे तरीके से सड़ी हुई खाद एवं 1 कु. नीम की खली डालते है रोपाई के 15 दिनों के बाद वर्मी वाश का प्रयोग किया जाता है 
रासायनिक खाद का प्रयोग करना हो 120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस तथा 60 किलोग्राम पोटाश तत्व के रूप में प्रयोग करना चाहिए

सिचाई:-

रोपाई के तुरंत बाद सिचाई करें अगेती फसल में बाद में एक सप्ताह के अंतर से, देर वाली फसल में 10-15 दिन के अंतर से सिचाई करें यह ध्यान रहे कि फूल निर्माण के समय भूमि में नमी कि कमी नहीं होनी चाहिए |

खरपतवार नियंत्रण:-

फूल गोभी कि फसल के साथ उगे खरपतवारों कि रोकथाम के लिए आवश्यकता अनुसार निराई- गुड़ाई करते रहे चूँकि फूलगोभी उथली जड़ वाली फसल है इसलिए उसकी निराई- गुड़ाई ज्यादा गहरी न करें और खरपतवार को उखाड़ कर नष्ट कर दें |

फूल गोभी में कीट नियंत्रण:-

कटुवा इल्ली:-

 यह गोभी के छोटे पौधों को रात्रि के समय बहुत नुकसान पहुचाते है। इस कीट की सुंडीयां स्लेटी रंग की चिकनी होती है। व्यस्क शलभ गहरे भूरे रंग के होते है एंव सुंडीयाँ आर्थिक नुकसान पहुँचाती है। इस कीट से लगभग 40 प्रतिशत तक नुकसान हो जाता है।

नियंत्रण:-

 प्रकाश प्रपंच का प्रयोग व्यस्क शलभों को पकडने के लिए करना चाहिए। खेत में जगह-जगह अनुपयोगी पतियों का ढेर लगा कर इनमें शरण ली सूडियों को आसानी से नष्ट किया जा सकता है। खेत के चारों ओर 20-25 से.मी. गहरी चौडी नाली खोद देनी चाहिए ताकी सूंडिया गिरकर एकत्र हो जायेगी और सुबह इन्हे आसानी से नष्ट किया जा सकता है। फोरेट (10 जी) की 10 कि.ग्रा मात्रा प्रति हैक्टेयर के हिसाब से बुवार्इ के साथ प्रयोग करें।

माहू:-

 यह छोटे आकर के हरे पीले पंखदार व पंखविहीन कीट होते है। इस कीट के शिशु एवं व्यस्क दोनों ही पतितयों से रस चूसते है। जिससे पतितयाँ पीली पड़ जाती है। उपज का बाजार मूल्य कम हो जाता है। माहो अपने शरीर से मधु रस उत्सर्जित करते है जिस पर काली फफं;दी विकसित हो जाती है जिससे पौधों पर जगह जगह काले धब्बे दिखार्इ देतें है। इस कीट से लगभग 20-25 प्रतिशत तक नुकसान हो जाता है।

नियंत्रण:-

 परभक्षी कीट लेडी बर्ड बीटल (काक्सीनेला स्पी.) को बढावा दें। मैलाथियान 5 प्रतिशत या कार्बेरिल 10 प्रतिशत चुर्ण का 20 से 25 किलो ग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव करे या मिथाइल डिमेटान (25 र्इ.सी.) या डार्इमिथोएट (30 र्इ.सी.) 1.5 मि.ली. प्रति ली. पानी में घोल कर छिडकाव करना चाहिए।

हीरक पृष्ठ पतंगा (डाइमंड बैक मौथ):-

 दुनियाभर में इस कीट से गोभीवर्गीय सब्जियों को अत्यधिक नुकसान हो रहा है। इस कीट की इल्लियां पीलापन लिये हुये हरे रंग की और शरीर का अगला भाग भूरे रंग का होता है एवं व्यस्क, घूसर रंग का होता है । जब यह बैठता है तो इसके पृष्ट भाग पर 3 हीरे की तहर चमकीले चिन्ह दिखार्इ देते है। इसी वजह से इसे हीरक पृष्ट पंतगा कहते है। नुकसान पहुँचाने का काम इल्लियां करती है। जो पत्तियों की निचली सतह को खाती है और उनमें छोटे छोटे छिद्र बना देती है। अधिक प्रकोप होने पर छोटे पौधे मर जाते है। बडे़ पौधो पर फूल छोटे आकार के लगते है। इस कीट से लगभग 50-60 प्रतिशत तक नुकसान हो जाता है।

नियंत्रण:-

 हीरक पृष्ठ शलभ के रोकथाम के लिये बोल्ड सरसों को गोभी के प्रत्येक 25 कतारों के बाद 2 कतारों में लगाना चाहिये। डीपेल 8 एल. या पादान (50 र्इ.सी.) का 1000 मि.ली. की दर से प्रति हेक्टेयर छिडकाव करें। स्पाइनोशेड़ (25 एस. सी.) 1.5 मि.ली.ली. या थायोडार्इकार्ब 1.5 गा्र.ली. की दर से या बेसिलस थूरीजेंसिस कुस्टकी (बी.टी.के.) 2 गा्र.ली. के दर से 500 ग्राम प्रति हैक्टेयर के दो छिड़काव करें। छिडकाव रोपण के 25 दिन व दूसरा इसके 15 दिन बाद करे।

तंबाकु की इल्ली:-

 इस कीट के पतंगे गहरे भूरे रंग के व आगे के पंखों पर सफेद धारीया होती है। जिसके बीच में काले धब्बे पाये जाते है। यह पतगें रात को बहुत सक्रिय होते है। प्रांरभिक अवस्था में सुंडीयाँ हरे रंग की होती है। जो पत्तों को खुरच कर खाती है। बडी अवस्था में सुडियाँ पत्तों को गोल- गोल काट कर खाती है। गोभी के शीर्षो और गाँठों में यह सुडियाँ ऊपर से घुसकर नुकसान करती है। मादा व्यस्क पतितयों की निचली सतह में समूह मे अण्ड देती है। इस कीट से लगभग 30-40 प्रतिशत तक नुकसान हो जाता है।

नियंत्रण:-

 अण्डे के समूहों को एकत्र कर नष्ट करना चाहिये। न्यूक्लियर पालीहाइडोसिस वायरस 250 एल. र्इ.हेक्टेयर की छिडकाव करें। मेलाथियान 2 मि.ली. प्रति लीटर या स्पाइानेशेड 25 एस. सी. को 15 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हैक्टेयर की दर से 10-15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करना चाहिए।

अर्धकुंडलक कीट (सेमीलूँपर):-

 यह बहुभक्षी कीट है यह चलते समय अर्धकुंडलाकार रचना बनाते है। इस कीट की इलिलयां हरे रंग की होती है एवं शरीर पर सफेद रंग की धारियां होती है। इल्लियां पतितयों को खा जाती है परिणाम स्वरूप केवल शिराएँ ही रह जाती है। इस कीट के आक्रमण से लगभग 30-60 प्रतिशत उपज में कमी आ जाती है।

नियंत्रण:-

 प्रारभिक अवस्था में सुडीयाँ समूह में रहती है। अत: इन्हे पतितयो समेत नष्ट कर देना चाहिए। प्रकाश प्रपंच का प्रयोग व्यस्क शलभो को पकडने के लिए करना चाहिए। मेलाथियान (50 र्इ.सी.) को 1.5 मि.ली. प्रति ली. की दर से पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।

गोभी की तितली:-

 यह मध्यम आकार की पीलापन लिए हुए सफेद रंग की होती है और बाद में वृद्वि होने पर यह हरापन लिए पीले रंग की हो जाती है। तितली की इल्लियां शीर्ष पत्तियों को खाकर नुकसान पहुँचाती है। अधिक प्रकोप होने पर पत्तियों की सिर्फ शिराएँ रह जाती है।

नियंत्रण:-

 प्रतिरोधी किस्मे लगानी चाहिए जैसे बन्दगोभी में र्इ.सी. 24856 एवं सेवाय बेस्ट आल। मेलाथियान (50 र्इ.सी.) को 1.5 मि.ली. प्रति ली. की दर से पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।

सरसों की आरा मक्खी:-

 यह कीट मध्यम आकार की मक्खी की तरह व्यस्क होता हैं इसका शरीर नारंगी, सिर काला व पंख स्लेटी रंग के होते है। मादा अपने आरीनुमा अंड निक्षेपक से पतितयों के किनारे चीर कर अंडे देती है। इस कीट की ग्रब अवस्था हानिकारक होती है। भंृगक पतितयाँ खाते हैं और अधिक प्रकोप होने पर सिर्फ शिराएँ रह जाती है। भृंगक फूल के शीर्ष, भीतरी भाग या फिर डंठलों के बीच के भाग को खाकर, उसमें अपशिष्ट पदार्थ छोडने पर जीवाणु आक्रमण करते है।

नियंत्रण:-

 सुबह के समय इलिलयों को हाथ से पकडकर नष्ट करें। मेलाथियान (50 र्इ.सी.) को 1.5 मि.ली. प्रति ली. की दर से पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।

प्रमुख व्याधियाँ एव प्रबंधन:-

आद्र गलन रोग:-

 इस रोग का प्रकोप गोभी में नर्सरी अवस्था में होता है। इसमे जमीन की सतह वाले तने का भाग काला पडकर गल जाता है। और छोटे पोधे गिरकर मरने लगते हैं।

नियंत्रण:-

 बुआर्इ से पूर्व बीजों को 3 ग्राम थाइरम या 3 ग्राम केप्टान या बाविसिटन प्रति किलों बीज की दर से उपचारित कर बोयें। नर्सरी, आसपास की भूमि से 6 से 8 इंच उठी हुर्इ भूमि में बनावें। मृदा उपचार के लिये नर्सरी में बुवार्इ से पूर्व थाइरम या कैप्टान या बाविस्टिन का 0.2 से 0.5 प्रतिषत सांद्रता का घोल मृदा मे सींचा जाता है जिसे ड्रेंचिंग कहते है। रोग के लक्षण प्रकट होने पर बोडों मिश्रण 5:5:50 या कापर आक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कार छिडकाव करें।

भूरी गलन या लाल सड़न:-

 यह रोग बोरान तत्व की कमी के कारण होता है। गोभी के फूलों पर गोल आकार के भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते है। और फूल को सडा देते है।

नियंत्रण:-

 रोपार्इ से पूर्व खेत में 10 से 15 किलो बोरेक्स प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव करना चाहिए या फसल पर 0.2 से 0.3 प्रतिशत बोरेक्स के घोल का छिड़काव करना चाहिए।

तना सड़न (स्टाक राट):-

 रोग की प्रारंभिक अवस्था में दिन के समय पौधे की पतितया लटक जाती है। और रात्रि में पुन: स्वस्थ दिखार्इ देती है। तने के निचले भाग पर मृदा तल के समीप जल सिक्त धब्बे दिखार्इ देते है। धीरे-धीरे रोगग्रसित भाग पर सफेद कवक दिखार्इ देने लगती है व तना सडने लग जाता है। इसे सफेद सड़न भी कहते है।

नियंत्रण:-

 बाविस्टीन 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। डायथेन एम-45, 2.0 ग्राम व बाविस्टिन 1 ग्राम को मिलाकर 15 दिन के अन्तराल पर जब फूल बनना प्रारभ हो 3 छिड़काव करें।

काला सड़न रोग:-

 इस बीमारी के लक्षण सर्वप्रथम पत्तियों के किनारो पर 'वी आकार में हरिमाहीन एवं पानी में भीगे जैसे दिखार्इ देते है। तथा पत्तियों की शिराएँ काली दिखार्इ देती है। उग्रावस्था में यह रोग गोभी के अन्य भागों पर भी दिखार्इ देता है। जिससे फूल के डंठल अन्दर से काले होकर सडनें लगते हैं।

नियंत्रण:-

 बीजों को बुंवार्इ से पूर्व स्टेप्टोसाइक्लिन 250 मि.ग्रा. या एवं बाविस्टिन 1 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल में 2 घंटे उपचारित कर छाया में सुखाकर बुवार्इ करें। पौध रोपण से पूर्व जडों को स्टे्रप्टोसाइकिलन एंव बाविसिटन के घोल में 1 घटें तक डूबाकर लगावें तथा फसल में रोग के लक्षण दिखने पर उपरोक्त दवाओं का छिड़काव करना चाहिए।

मुलायम/ नरम सडन (साफ्ट राट):-

 यह रोग पौधे की विभिन्न अवस्थाओं में दिखार्इ देता है। यह मुख्य रूप सें काला सड़न रोग के बाद या फूल पर चोट लगने पर अधिक होता है।

नियंत्रण:-

 रोगग्रसित फूलों को तोडकर नष्ट कर देना चाहिए, स्ट्रेप्टोसाइक्लिन 200 मि.ग्रा. व कापर आक्सीक्लोराइड 2 ग्राम प्रति ली. पानी में मिलाकर 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए।

झुलसा रोग या अल्टनेरिया पानी धब्बा रोग:-

 इस रोग से पत्तियों पर गोल आकार के छोटे से बडे़ भूरे धब्बे बन जाते है। और उनमें छल्लेनुमा धारियाँ बनती है। अन्त में धब्बे काले रंग के हो जाते है।

नियंत्रण:-

 मेंकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करे।

काला धब्बा (ब्लेक स्पाट):-

 यह कवक जनित रोग है। प्रारंभ में छोटे काले धब्बे पतितयों पर व तने पर दिखाइ देते है। जो बाद में फूल को भी ग्रसित कर देते है।

नियंत्रण:-

 डायथेन एम 45 के 3 छिड़काव 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से 15 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए।

मृदुरोमिल (डाउनी मिल्डयू):-

 यह रोग पोधे की सभी अवस्थाओं में आता है व काफी नुकसान करता है। इसमें पत्तियो की निचली सतह पर हल्के बैंगनी से भूरे रंग के धब्बे दिखार्इ देते है।

नियंत्रण:-

 रिडोमिल एम. जेड.-72 एक ग्राम प्रति लीटर की दर से या डायथेन एम.- 45, 2.0 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर 10 से 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करें।

जड गांठ (रूट नाट):-

 इस रोग से पौधों की जडा़ में गोलकृमि के सक्रंमण से गांठे पड जाती है। जिससे पौधे की वृद्वि रूक जाती हैं पत्तियो पर झुर्रियाँ पड़ जाती है। तथा पत्तियाँ पीली व जडे़ मोटी दिखार्इ देती है। जिससे पौधों पर फल कम संख्या में तथा छोटे लगते है।

नियंत्रण:-

 मर्इ-जून में खेत की गहरी जुतार्इ कर दें। फसल चक्र अपनाना चाहिए। मेंड़ के चारो तरफ गेंदा के पौधे लगाना चाहिए। बुवार्इ से पूर्व खेत में 25 किवंटल नीम की खाद प्रति हैक्टेयर डालकर मिलाना चाहिए व एल्डीकार्ब 60-65 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से पौधे रोपने के पूर्व खेत में मिला देनी चाहिए।

कटाई:-

फूल गोभी कि कटाई तब करें जब उसके फूल पूर्ण रूप से विक़सित हो जाएँ फूल ठोस और आकर्षक होना चाहिए जाति के अनुसार रोपाई के बाद अगेती 60-70 दिन, मध्यम कटाई
फूल गोभी कि कटाई तब करें जब उसके फूल पूर्ण रूप से विक़सित हो जाएँ फूल ठोस और आकर्षक होना चाहिए

जाति के अनुसार रोपाई के बाद अगेती 60-70 दिन, मध्यम 90-100 दिन , पछेती 110-180 दिन में कटाई के लिए तैयार हो जाती है |

उपज:-

यह प्रति हे. 200-250 क्विंटल तक उपज मिल जाती है |

भण्डारण:-

फूलों में पत्तियां लगे रहने पर 85-90 % आद्रता के साथ 14.22 डिग्री सेल्सियस तापमान पर उन्हें एक महीने तक रखा जा सकता है ||

फूलगोभी में दैहिक या कायि‍क वि‍कार:-

ब्राउन स्पोट:-

क्षारीय और अधिक अम्लीय भूमि में पत्तियां और फूल पीले पड़ जाते है पुरानी पत्तियों का नीचे कि ओर मुड़ जाना और तनों का खोखला हो जाता है इसकी रोकथाम के लिए भू-पावर या माइक्रो फर्टी सिटी कम्पोस्ट या माइक्रो गोल्ड उपयोग करें |

बटनिंग या बोल्टिंग:-

फूलों के पकने से पूर्व फूल छोटे रहकर फटने लगते है और पौधे का विकास भी सामान्य नहीं होता अगेति जातियों को देर से बोने पर यह भी कमी उत्पन्न हो जाती है इसका मुख्य कारण नाइट्रोजन का अभाव है |
इसकी रोकथाम के लिए माइक्रो झाइम का या माइक्रो भू-पावर का छिडकाव करें |

व्हिप टेल:-


अम्लीय भूमि में पौधों कि मोलिबडिनम पर्याप्त न मिलने के कारण पत्र दल का उचित विकास न होकर केवल मध्य शिरा का ही विकास होता है इसकी रोकथाम के लिए भू-पावर,माइक्रो फर्टी , माइक्रो गोल्ड का इस्तेमाल करें |