Sunday 1 October 2017

तोरई की उन्नत खेती

तोरई की उन्नत खेती (Advanced farming of Ridge gourd)


https://smartkhet.blogspot.com/2017/10/farming-of-Ridgegourd.html           , torai (tori) (ridge gourd) plant photos



लगानें का समय:- 

ग्रीष्म कालीन फसल के लिए  -  जनवरी से मार्च 
वर्षा कालीन फसल के लिए  -    जून से जुलाई 

जलवायु:-

यह हर प्रकार  की जलवायु में हो जाती  है  तोरई के सफल उत्पादन के लिए उष्ण और नम जलवायु उतम मानी गई है भारत में इसकी खेती केरल, उड़ीसा, बंगाल, कर्नाटक और उ. प्र. में विशेष रूप से की जाती है |

भूमि:-

इसको सभी  प्रकार की मिट्टियों  में उगाया जा सकता है परन्तु  उचित जल निकास धारण क्षमता वाली जीवांश युक्त हलकी दोमट भूमि इसकी सफल खेती के लिए सर्वोत्तम मानी गई है वैसे उदासीन पी.एच. मान वाली भूमि इसेक लिए अच्छी रहती है नदियों के किनारे वाली भूमि इसकी खेती के लिए उपयुक्त रहती है कुछ अम्लीय भूमि में इसकी खेती की जा सकती है पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करें इसके बाद 2-3 बार हैरो या कल्टीवेटर चलाएँ | खेत कि तैयारी में मिट्टी भुरभुरी हो जानी  चाहिए  यह फसल अधिक निराइ  की फसल है

फसल लगाने का तरीका:- 


पंक्तियों और पौधों की आपसी दूरी 1.0-1.20 मी. और 1 मी. रखें एक स्थान पर 2 बीज बोने चाहिए  बीज अधिक गहराई  में नहीं लगाया जाता है  यदि बीज गहराई  में डाल दिया जाता है तो  अंकुरण में कामे आ जाती है बीज की पर्याप्त मात्रा 4-5 किलो ग्राम प्रति हे. होती है | बीज को खेत में लगाने से पहले  गौ मूत्र में संशोधित करना चाहिए 

आर्गनिक खाद :-

तोरई की फसल में अच्छी उपज लेने के लिए उसमे आर्गनिक खाद , कम्पोस्ट खाद का होना बहुत जरुरी है इसके लिए एक हे. भूमि में 35-40 टन गोबर की अच्छे तरीके सड़ी हुई खाद लें और  बिखेर कर खेत की अच्छे तरीके से जुताई करके खेत को तैयार करें उसके बाद बीज की बुवाई करें |
और जब फसल 20-20 दिन की हो जाए तब उसमेजीवाम्रत फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें दूसरा व तीसरा छिडकाव हर 10-15 दिन के अंतर से करें |

प्रजातियाँ:- 

सरपूतिया :-

इस जाति के फल छोटे और गुच्छों में लगते है एक गुच्छे में 5-7 फल लगते है बुवाई के 60-70 दिनों बाद फल तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते है यह जाति बिहार और पंजाब में अधिक प्रचलित है |

पंजाब सदा बहार  :-

पौधे मध्यम आकार के होते है फल 20 से. मी. लम्बे और 3-5 से. मी. चौड़े होते है फल पतले, कोमल, गहरे हरे रंग के और धारी दार होते है इस जाति में अन्य जाति की तुलना में अधिक प्रोटीन होती है |
पूसा नसदार 
एम्.ए 11
कोयम्बूर  1
कोयम्बूर 2
पी.के.एम्. 1
पूसा चिकनी
आर. 165
कल्याणपुर चिकनी 
राजेन्द्र नेनुआ 1
राजेन्द्र आशीष 
सी.एच.आर.जी. 1 
पी.आर.जी. 7
पूसा स्नेहा 
स्वर्ण मंजरी 

सिचाई :-

गर्मियों वाली फसल की 5-6 दिन के अन्तर से सिचाई करें जबकि वर्षाकालीन फसल की सिचाई वर्षा के उपर निर्भर करती है |

खरपतवार :-

फसल के साथ उगे खरपतवारों को निकालकर नष्ट करते रहे इसमें कुल २-३ निराइयां पर्याप्त होंगी |

कीट नियंत्रण :-

लालड़ी :-

पौधों पर दो पत्तियां निकलने पर इस कीट का प्रकोप शुरू हो जाता है यह कीट पत्तियों और फूलों को खाता है इस कीट की सुंडी भूमि के अन्दर घुसकर पौधों की जड़ों को काटती है |

रोकथाम :-

इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. को प्रति पम्प में डालकर फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

फल की मक्खी :-

यह मक्खी फलों में प्रवेश कर जाती है और वहीँ पर अंडे देती है अण्डों से बाद में सुंडी निकलती है यह फल को वेकार कर देती है यह मक्खी विशेष रूप से खरीफ वाली फसलों को हानी पहुंचाती है |

रोकथाम :-

इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. को प्रति पम्प में डालकर फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

सफ़ेद ग्रब :-

यह कीट कद्दू वर्गीय पौधों को काफी हानी पहुंचाता है यह भूमि के अन्दर रहता है और पौधों की जड़ों को खा जाता है |

रोकथाम :-

इसकी रोकथाम के लिए भूमि में बुवाई से पहले नीम की खाद का प्रयोग करें |

रोग नियत्रण :-

चूर्णी फफूंदी :-

यह रोग ऐरीसाइफी सिकोरेसिएरम नामक फफूंदी के कारण होता है पत्तियों एवं तनों पर सफ़ेद दरदरा और गोलाकार जाल सा दिखाई देता है जो बाद में आकार में बढ़ जाता है और कत्थई रंग का हो जाता है पूरी पत्तियां पिली पड़कर सुख जाती है पौधों की बढ़वार रुक जाती है |

रोकथाम :-

इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. को प्रति पम्प में डालकर फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

मृदुरोमिल  फफूंदी :-

यह रोग स्यूडोपरोनोस्पोरा क्यूबेन्सिस नामक फफूंदी के कारण होता है रोगी पत्तियों की निचली सतह पर कोणाकार धब्बे बन जाते है जो ऊपर से पीले या लाल भूरे रंग के होते है |

रोकथाम :-

इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. को प्रति पम्प में डालकर फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

मोजैक :-

यह विषाणु के द्वारा होता है पत्तियों की बढ़वार रुक जाती है और वे मुड़ जाती है फल छोटे बनते है उपज कम मिलती है यह रोग चैंपा द्वारा फैलता है |

रोकथाम :-

इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. को प्रति पम्प में डालकर फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

एन्थ्रेक्नोज :-

यह रोग कोलेटोट्राईकम स्पीसीज के कारण होता है इस रोग के कारण पत्तियों और फलों पर लाल- काले धब्बे बन जाते है ये धब्बे बाद में आपस में मिल जाते है यह रोग बीज द्वारा फैलता है |

रोकथाम :-


इसकी रोकथाम के लिए बीज को बोने से पूर्व गौमूत्र या नीम का तेल या कैरोसिन से उपचारित कर बोएं और उचित फसल चक्र अपनाएं और खेत को खरपतवारों से मुक्त रखें |

तुड़ाई :-

फलों की छोटी अवस्था से ही तुड़ाई कर लें अन्यथा फल कठोर हो जाते है जिसके कारण तोरई के गुणों में कमी आ जाती है और बाजार भाव भी कम मिलता है |

उपज :-

इसकी प्रति हे. 100-125 क्विंटल उपज मिल जाती है |

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