Wednesday 3 January 2018

मक्का की खेती

मक्का की खेती (Maize cultivation)


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मक्का खरीफ ऋतु की फसल है, परन्तु जहां सिचाई के साधन हैं वहां रबी और खरीफ की अगेती फसल के रूप मे मक्का की खेती की जा सकती है। लगभग 65 प्रतिशत मक्का का उपयोग मुर्गी एवं पशु आहार के रूप मे किया जाता है। साथ ही साथ इससे पौष्टिक रूचिकर चारा प्राप्त होता है। भुट्टे काटने के बाद बची हुई कडवी पशुओं को चारे के रूप मे खिलाते हैं। औद्योगिक दृष्टि से मक्का मे प्रोटिनेक्स, चॉक्लेट पेन्ट्स स्याही लोशन स्टार्च कोका-कोला के लिए कॉर्न सिरप आदि बनने लगा है। बेबीकार्न मक्का से प्राप्त होने वाले बिना परागित भुट्टों को ही कहा जाता है। बेबीकार्न का पौष्टिक मूल्य अन्य सब्जियों से अधिक है।

जलवायु एवं भूमि:-

मक्का उष्ण एवं आर्द जलवायु की फसल है। इसके लिए ऐसी भूमि जहां पानी का निकास अच्छा हो उपयुक्त होती है।

खेत की तैयारी:-

खेत की तैयारी के लिए पहला पानी गिरने के बाद जून माह मे हेरो करने के बाद पाटा चला देना चाहिए। यदि गोबर के खाद का प्रयोग करना हो तो पूर्ण रूप से सड़ी हुई खाद अन्तिम जुताई के समय जमीन मे मिला दें। रबी के मौसम मे कल्टीवेटर से दो बार जुताई करने के उपरांत दो बार हैरो करना चाहिए।

मक्का बुवाई का समय:-

1. खरीफ :- जून से जुलाई तक।
2. रबी :- अक्टूबर से नवम्बर तक।
3. जायद :- फरवरी से मार्च तक।

मक्का की किस्म :-
क्र.
संकर किस्म

अवधि (दिन मे)

उत्पादन (क्ंवि/हे.)

1

गंगा-5

100-105

50-80

2

डेक्कन-101

105-115

60-65

3

गंगा सफेद-2

105-110

50-55

4

गंगा-11

100-105

60-70

5

डेक्कन-103

110-115

60-65

 कम्पोजिट जातियां :-

सामान्य अवधि वाली- चंदन मक्का-1
जल्दी पकने वाली- चंदन मक्का-3
अत्यंत जल्दी पकने वाली- चंदन सफेद मक्का-2

बीज की मात्रा :-

संकर जातियां :- 12 से 15 किलो/हे.
कम्पोजिट जातियां :- 15 से 20 किलो/हे.
हरे चारे के लिए :- 40 से 45 किलो/हे.
     (छोटे या बड़े दानो के अनुसार भी बीज की मात्रा कम या अधिक होती है।) 

बीजोपचार :-

बीज को बोने से पूर्व किसी फंफूदनाशक दवा जैसे थायरम या एग्रोसेन जी.एन. 2.5-3 ग्रा./कि. बीज का दर से उपचारीत करके बोना चाहिए। एजोस्पाइरिलम या पी.एस.बी.कल्चर 5-10 ग्राम प्रति किलो बीज का उपचार करें।

मक्का पौध अंतरण :-

शीघ्र पकने वाली:- कतार से कतार-60 से.मी. पौधे से पौधे-20 से.मी.
मध्यम/देरी से पकने वाली :- कतार से कतार-75 से.मी. पौधे से पौधे-25 से.मी.
हरे चारे के लिए :- कतार से कतार:- 40 से.मी. पौधे से पौधे-25 से.मी.

मक्का बुवाई का तरीका :-

वर्षा प्रारंभ होने पर मक्का बोना चाहिए। सिंचाई का साधन हो तो 10 से 15 दिन पूर्व ही बोनी करनी चाहिये इससे पैदावार मे वृध्दि होती है। बीज की बुवाई मेंड़ के किनारे व उपर 3-5 से.मी. की गहराई पर करनी चाहिए। बुवाई के एक माह पश्चात मिट्टी चढ़ाने का कार्य करना चाहिए। बुवाई किसी भी विधी से की जाय परन्तु खेत मे पौधों की संख्या 55-80 हजार/हेक्टेयर रखना चाहिए। 

खाद एवं उर्वरक की मात्रा :-

शीघ्र पकने वाली :- 80 : 50 : 30 (N:P:K)
मध्यम पकने वाली :- 120 : 60 : 40 (N:P:K)
देरी से पकने वाली :- 120 : 75 : 50 (N:P:K)
 भूमि की तैयारी करते समय 5 से 8 टन अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद खेत मे मिलाना चाहिए तथा भूमि परीक्षण उपरांत जहां जस्ते की कमी हो वहां 25 कि.ग्रा./हे जिंक सल्फेट वर्षा से पूर्व डालना चाहिए। 

खाद एवं उर्वरक देने की विधी :-

1. नत्रजन :-

1/3 मात्रा बुवाई के समय, (आधार खाद के रूप मे)
1/3 मात्रा लगभग एक माह बाद, (साइड ड्रेसिंग के रूप में)
1/3 मात्रा नरपुष्प (मंझरी) आने से पहले

2. फास्फोरस व पोटाश :-

इनकी पुरी मात्रा बुवाई के समय बीज से 5 से.मी. नीचे डालना चाहिए। चुकी मिट्टी मे इनकी गतिशीलता कम होती है, अत: इनका निवेशन ऐसी जगह पर करना आवश्यक होता है जहां पौधो की जड़ें हो। 

मक्का में निराई-गुड़ाई :-

बोने के 15-20 दिन बाद डोरा चलाकर निंदाई-गुड़ाई करनी चाहिए या रासायनिक निंदानाशक मे एट्राजीन नामक निंदानाशक का प्रयोग करना चाहिए। एट्राजीन का उपयोग हेतु अंकुरण पूर्व 600-800 ग्रा./एकड़ की दर से छिड़काव करें। इसके उपरांत लगभग 25-30 दिन बाद मिट्टी चढावें।

मक्का की अन्तरवर्ती फसलें :-

मक्का के मुख्य फसल के बीच निम्नानुसार अन्तरवर्ती फसलें लीं जा सकती है :-
मक्का           :                उड़द, बरबटी, ग्वार, मूंग (दलहन)
मक्का           :                सोयाबीन, तिल (तिलहन)
मक्का           :                सेम, भिण्डी, हरा धनिया (सब्जी)
मक्का           :                बरबटी, ग्वार (चारा)

सिंचाई :-

मक्का के फसल को पुरे फसल अवधि मे लगभग 400-600 mm पानी की आवश्यकता होती है तथा इसकी सिंचाई की महत्वपूर्ण अवस्था (Critical stages of irrigation) पुष्पन और दाने भरने का समय (Silking and cob development) है। इसके अलावा खेत मे पानी का निकासी भी अतिआवश्यक है। 

पौध संरक्षण :-

(क) कीट प्रबन्धन :

1. मक्का का धब्बेदार तनाबेधक कीट :-
     इस कीट की इल्ली पौधे की जड़ को छोड़कर समस्त भागों को प्रभावित करती है। सर्वप्रथम इल्ली तने को छेद करती है तथा प्रभावित पौधे की पत्ती एवं दानों को भी नुकसान करती है। इसके नुकसान से पौधा बौना हो जाता है एवं प्रभावित पौधों में दाने नहीं बनते है। प्रारंभिक अवस्था में डैड हार्ट (सूखा तना) बनता है एवं इसे पौधे के निचले स्थान के दुर्गध से पहचाना जा सकता है।
2. गुलाबी तनाबेधक कीट :-
     इस कीट की इल्ली तने के मध्य भाग को नुकसान पहुंचाती है फलस्वरूप मध्य तने से डैड हार्ट का निर्माण होता है जिस पर दाने नहीं आते है।
उक्त कीट प्रबंधन हेतु निम्न उपाय है :-
फसल कटाई के समय खेत में गहरी जुताई करनी चाहिये जिससे पौधे के अवशेष व 
कीट के प्यूपा अवस्था नष्ट हो जाये।
मक्का की कीट प्रतिरोधी प्रजाति का उपयोग करना चाहिए।
मक्का की बुआई मानसुन की पहली बारिश के बाद करना चाहिए।
एक ही कीटनाशक का उपयोग बार-बार नहीं करना चाहिए।
प्रकाश प्रपंच का उपयोग सायं 6.30 बजे से रात्रि 10.30 बजे तक करना चाहिए।
मक्का फसल के बाद ऐसी फसल लगानी चाहिए जिसमें कीटव्याधि मक्का की फसल से भिन्न हो।
जिन खेतों पर तना मक्खी, सफेद भृंग, दीमक एवं कटुवा इल्ली का प्रकोप प्रत्येक वर्ष दिखता है, वहाँ दानेदार दवा फोरेट 10 जी. को 10 कि.ग्रा./हे. की दर से बुवाई के समय बीज के नीचे डालें।
तनाछेदक के नियंत्रण के लिये अंकुरण के 15 दिनों बाद फसल पर क्विनालफास 25 ई.सी. का 800 मि.ली./हे. अथवा कार्बोरिल 50 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. का 1.2 कि.ग्रा./हे. की दर से छिड़काव करना चाहिए। इसके 15 दिनों बाद 8 कि.ग्रा. क्विनालफास 5 जी. अथवा फोरेट 10 जी. को 12 कि.ग्रा. रेत में मिलाकर एक हेक्टेयर खेत में पत्तों के गुच्छों में डालें।

(ख) मक्का के प्रमुख रोग :-

1. डाउनी मिल्डयू :- 
        बोने के 2-3 सप्ताह पश्चात यह रोग लगता है सर्वप्रथम पर्णहरिम का ह्रास होने से पत्तियों पर धारियां पड़ जाती है, प्रभावित हिस्से सफेद रूई जैसे नजर आने लगते है, पौधे की बढ़वार रूक जाती है।
उपचार :-  
        डायथेन एम-45 दवा आवश्यक पानी में घोलकर 3-4 छिड़काव करना चाहिए।
2. पत्तियों का झुलसा रोग :- 
        पत्तियों पर लम्बे नाव के आकार के भूरे धब्बे बनते हैं। रोग नीचे की पत्तियों से बढ़कर ऊपर की पत्तियों पर फैलता हैं। नीचे की पत्तियां रोग द्वारा पूरी तरह सूख जाती है।
उपचार :-
        रोग के लक्षण दिखते ही जिनेब का 0.12% के घोल का छिड़काव करना चाहिए।
3. तना सड़न :-
        पौधों की निचली गांठ से रोग संक्रमण प्रारंभ होता हैं तथा विगलन की स्थिति निर्मित होती हैं एवं पौधे के सड़े भाग से गंध आने लगती है। पौधों की पत्तियां पीली होकर सूख जाती हैं व पौधे कमजोर होकर गिर जाते है।
उपचार :-
        150 ग्रा. केप्टान को 100 ली. पानी मे घोलकर जड़ों पर डालना चाहिये।

मक्का की उपज :-

1. शीघ्र पकने वाली :- 50-60 क्ंविटल/हेक्टेयर
2. मध्यम पकने वाली :- 60-65 क्ंविटल/हेक्टेयर
3. देरी से पकने वाली :- 65-70 क्ंविटल/हेक्टेयर

फसल की कटाई व गहाई :-

फसल अवधि पूर्ण होने के पश्चात अर्थात् चारे वाली फसल बोने के 60-65 दिन बाद, दाने वाली देशी किस्म बोने के 75-85 दिन बाद, व संकर एवं संकुल किस्म बोने के 90-115 दिन बाद तथा दाने मे लगभग 25 प्रतिशत् तक नमी हाने पर कटाई करनी चाहिए।
कटाई के बाद मक्का फसल में सबसे महत्वपूर्ण कार्य गहाई है इसमें दाने निकालने के लिये सेलर का उपयोग किया जाता है। सेलर नहीं होने की अवस्था में साधारण थ्रेशर में सुधार कर मक्का की गहाई की जा सकती है इसमें मक्के के भुट्टे के छिलके निकालने की आवश्यकता नहीं है। सीधे भुट्टे सुखे होने पर थ्रेशर में डालकर गहाई की जा सकती है साथ ही दाने का कटाव भी नहीं होता।

भण्डारण :-

कटाई व गहाई के पश्चात प्राप्त दानों को धूप में अच्छी तरह सुखाकर भण्डारित करना चाहिए। यदि दानों का उपयोग बीज के लिये करना हो तो इन्हें इतना सुखा लें कि आर्द्रता करीब 12 प्रतिशत रहे। खाने के लिये दानों को बॉस से बने बण्डों में या टीन से बने ड्रमों में रखना चाहिए तथा 3 ग्राम वाली एक क्विकफास की गोली प्रति क्विंटल दानों के हिसाब से ड्रम या बण्डों में रखें। रखते समय क्विकफास की गोली को किसी पतले कपडे में बॉधकर दानों के अन्दर डालें या एक ई.डी.बी. इंजेक्शन प्रति क्विंटल दानों के हिसाब से डालें। इंजेक्शन को चिमटी की सहायता से ड्रम में या बण्डों में आधी गहराई तक ले जाकर छोड़ दें और ढक्कन बन्द कर दें।

Tuesday 2 January 2018

तरबूज की खेती

तरबूज की खेती (farming of watermelon)


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भूमि एवं जलवायु-

तरबूज की खेती कई तरह की मिट्टी में की जाती है, लेकिन बलुई दोमट मिट्टी इसकी खेती के लिए उपयुक्त रहती है। खेत तैयार करने के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और बाद की जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करते हैं। खेत को समतल कर ले तो पूरे खेत में पानी की खपत एक समान रहेगी। अगर खेत नदियों के किनारे है तो नालियों और थालों को पानी की उपलब्धता के हिसाब से बनवाए। इन नालियों और थालों में सड़ी हुई गोबर की खाद और मिट्टी के मिश्रण से भर देते हैं। गर्म एवं औसत आद्र्रता वाले क्षेत्र इसकी खेती के लिए सबसे अच्छे रहते हैं। बीज के जमाव व पौधें के बढ़वार के लिए 25-32 सेन्टीग्रेड तापक्रम उपयुक्त होता है।

किस्म-

शुगर बेबी-

इसकी बेलें औसत लम्बाई की होती हैं और फलों का औसत वजन दो से पांच किलोग्राम तक होता है। फल का ऊपरी छिलका गहरे हरे रंग और उन पर धूमिल सी धारियां होती हैं। फल का आकार गोल तथा गूदे का रंग गहरा लाल होता है। यह शीघ्र पकने वाली प्रजाति है। औसत पैदावार 200-300 कुन्तल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म लगभग 85 दिन पककर तैयार हो जाती है।

दुर्गापुर केसर-

यह देर से पकने वाली किस्म है, तना तीन मीटर लम्बा, फलों का औसत वजन छह से आठ किलोग्राम, गूदे का रंग पीला तथा छिलका हरे रंग व धारीदार होता है। इसकी औसत उपज 350-450 कुन्तल प्रति हेक्टेयर होती है।

अर्का मानिक-

इस किस्म के फल गोल, अण्डाकार व छिलका हरा जिस पर गहरी हरी धारियां होती हैं तथा गुलाबी रंग का होता है। औसत फल वजन छह किलोग्राम होता है। इसकी भण्डारण एवं परिवहन क्षमता अच्छी है। औसत उपज 500 कुन्तल प्रति हेक्टेयर 110-115 दिन में प्राप्त की जा सकती है।

दुर्गापुर मीठा-

इस किस्म का फल गोल हल्का हरा होता है। फल का औसत वजन आठ से नौ किलोग्राम तथा इसकी औसत उपज 400-500 कुन्तल प्रति हेक्टेयर होती है। यह लगभग 125 दिन में तैयार हो जाती है।

खाद एवं उर्वरक-

कम्पोस्ट या सड़ी गोबर की खाद दो किलोग्राम प्रत्येक नाली या थाले में डालते हैं। इसके अतिरिक्त 50 किलोग्राम यूरिया, 47 किलोग्राम डीएपी तथा 67 किलोग्राम म्यूरेट आफ पोटाश प्रति एकड़ की दर से देना। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा खेत में नालियां या थाले बनाते समय देते हैं। नत्रजन की आधी मात्रा को दो बराबर भागों में बांट कर खड़ी फसल में जड़ों से 30-40 सेमी दूर गुड़ाई के समय तथा फिर 45 दिन बाद देना चाहिए।

बुआई का समय-

उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में तरबूज की बुआई फरवरी से अप्रैल के बीच एवं नदियों के किनारे इसकी बुआई नवम्बर से जनवरी के बीच में की जाती है।

बीज की मात्रा-

एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिए 25.4 किलोग्राम पर्याप्त होता है।

बुआई की विधि-

तरबूज की बुआई के लिए 2.5 से 3.0 मीटर की दूरी पर 40 से 50 सेमी चौड़ी नाली बना लेते है। इन नालियों के दोनों किनारों पर 60 सेमी की दूरी पर बीज बोते हैं। यह दूरी मृदा की उर्वरता एवं प्रजाति के अनुसार घट बढ़ सकती है। नदियों के किनारे 60 गुणा 60 गुणा 60 सेमी क्षेत्रफल वाले गड्ढïे बनाकर उसमें 1:1:1 के अनुपात में मिट्टी, गोबर की खाद तथा बालू का मिश्रण भर कर थालें को भर देते है उसके बाद प्रत्येक थाले में तीन से चार बीज लगते है।

सिंचाई-

यदि तरबूज की खेती नदियों के कछारों में की जाती है तो सिंचाई की कम आवश्यकता नहीं पड़ती है। जब मैदानी भागों में इसकी खेती की जाती है, तो सिंचाई 7 से 10 दिन के अन्तराल पर करते हैं। जब तरबूज आकार में पूरी तरह से बढ़ जाते हैं तो सिंचाई बन्द कर देते हैं जिससे फल में मिठास हो जाती है और फल नहीं फटते हैं।

खरपतवार नियंत्रण एवं निराई-गुड़ाई -


तरबूज के जमाव से लेकर प्रथम 30-35 दिनों तक निराई गुड़ाई करके खरपतवार को निकाल देते हैं। इससे फसल की वृद्वि अच्छी होती है तथा पौधे की बढ़वार रुक जाती है। रासायनिक खरपतवारनाशी के रुप में बूटाक्लोर रसायन 1.0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज बुआई के तुरन्त बाद छिड़काव करते हैं।

अंगूर की खेती

अंगूर की खेती (farming of grapes)


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भारत में अंगूर की खेती अनूठी है क्योंकि यह, उष्ण शीतोष्ण,सभी प्रकार की जलवायु में पैदा किया जा सकता है। हालांकि अंगूर की अधिकांशतः व्यावसायिक 
खेती (85प्रतिशत क्षेत्र में) उष्णकटिबन्धीय जलवायु वाले क्षेत्रों में 
(महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश और तमिलनाडु) तथा उपोष्ण कटिबन्धीय जलवायु वाले उत्तरी राज्यों में विशेष रूप से ताजा अंगूर उपलब्ध नहीं होते हैं। अतः उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु वाले क्षेत्र जैसे पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश तथा दिल्ली व राजस्थान के कुछ भागों में अंगूर की खेती की जा रही है, जिससे जून माह में भी अंगूर मिलते हैं।

उपयोग-

अंगूर एक स्वादिष्ट फल है. भारत में अंगूर अधिकतर ताजा ही खाया जाता है वैसे अंगूर के कई उपयोग हैं. इससे किशमिश, रस एवं मदिरा भी बनाई जाती है.

मिट्टी एवं जलवायु-

अंगूर की जड़ की संरचना काफी मजबूत होती है. अतः यह कंकरीली,रेतीली से चिकनी तथा उथली से लेकर गहरी मिट्टियों में सफलतापूर्वक पनपता है लेकिन रेतीली, दोमट मिट्टी, जिसमें जल निकास अच्छा हो अंगूर की खेती के लिए उचित पाई गयी है. अधिक चिकनी मिट्टी में इसकी खेती न करे तो बेहतर है. अंगूर लवणता के प्रति कुछ हद तक सहिष्णु है. जलवायु का फल के विकास तथा पके हुए अंगूर की बनावट और गुणों पर काफी असर पड़ता है. इसकी खेती के लिए गर्म, शुष्क, तथा दीर्घ ग्रीष्म ऋतू अनुकूल रहती है. अंगूर के पकते समय वर्षा या बादल का होना बहुत ही हानिकारक है. इससे दाने फट जाते हैं और फलों की गुणवत्ता पर बहुत बुरा असर पड़ता है. अतः उत्तर भारत में शीघ्र पकने वाली किस्मों की सिफारिश की जाती है.

किस्में-

उत्तर भारत में लगाई जाने वाली कुछ किस्मों की विशेषताएं नीचे दी जा रही हैं.
1-परलेट
2-ब्यूटी सीडलेस
3-पूसा सीडलेस
4-पूसा नवरंग

प्रवर्धन-

अंगूर का प्रवर्धन मुख्यतः कटिंग कलम द्वारा होता है. जनवरी माह में काट छाँट से निकली टहनियों से कलमे ली जाती हैं. कलमे सदैव स्वस्थ एवं परिपक्व टहनियों से लिए जाने चाहिए. सामान्यतः 4 - 6 गांठों वाली 23 - 45 से.मी. लम्बी कलमें ली जाती हैं.कलम बनाते समय यह ध्यान रखें कि कलम का निचे का कट गांठ के ठीक नीचे होना चाहिए एवं ऊपर का कट तिरछा होना चाहिए. इन कलमों को अच्छी प्रकार से तैयार की गयी तथा सतह से ऊँची क्यारियों में लगा देते हैं. एक वर्ष पुरानी जड़युक्त कलमों को जनवरी माह में नर्सरी से निकल कर खेत में रोपित कर देते हैं.

बेलों की रोपाई-

रोपाई से पूर्व मिट्टी की जाँच अवश्य करवा लें. खेत को भलीभांति तैयार कर लें. बेल की बीच की दुरी किस्म विशेष एवं साधने की पद्धति पर निर्भर करती है. इन सभी चीजों को ध्यान में रख कर 90 x 90 से.मी. आकर के गड्ढे खोदने के बाद उन्हें 1/2 भाग मिट्टी, 1/2 भाग गोबर की सड़ी हुई खाद एवं 30 ग्राम क्लोरिपाईरीफास, 1 कि.ग्रा. सुपर फास्फेट व 500 ग्राम पोटेशीयम सल्फेट आदि को अच्छी तरह मिलाकर भर दें. जनवरी माह में इन गड्ढों में 1 साल पुरानी जड़वाली कलमों को लगा दें. बेल लगाने के तुंरत बाद पानी आवश्यक है.

बेलों की छंटाई-

अंगूर की बेल साधने हेतु पण्डाल, बाबर, टेलीफोन, निफिन एवं हैड आदि पद्धतियाँ प्रचलित हैं. लेकिन व्यवसायिक इतर पर पण्डाल पद्धति ही अधिक उपयोगी सिद्ध हुयी है. पण्डाल पद्धति द्वारा बेलों को साधने हेतु 2.1 - 2.5 मीटर ऊँचाई पर कंक्रीट के खंभों के सहारे लगी तारों के जाल पर बेलों को फैलाया जाता है. जाल तक पहुँचने के लिए केवल एक ही ताना बना दिया जाता है. तारों के जाल पर पहुँचने पर ताने को काट दिया जाता है ताकि पार्श्व शाखाएँ उग आयें.उगी हुई प्राथमिक शाखाओं पर सभी दिशाओं में 60 सेमी दूसरी पार्श्व शाखाओं के रूप में विकसित किया जाता है. इस तरह द्वितीयक शाखाओं से 8 - 10 तृतीयक शाखाएँ विकसित होंगी इन्ही शाखाओं पर फल लगते हैं.

छंटाई-

बेलों से लगातार एवं अच्छी फसल लेने के लिए उनकी उचित समय पर काट - छाँट अति आवश्यक है. छंटाई कब करें : जब बेल सुसुप्त अवस्था में हो तो छंटाई की जा सकती है, परन्तु कोंपले फूटने से पहले प्रक्रिया पूरी हो जानी चाहिए. सामान्यतः काट - छांट जनवरी माह में की जाती है.

सिंचाई-

नवम्बर से दिसम्बर माह तक सिंचाई की खास आवश्यकता नहीं होती क्योंकि बेल सुसुप्ता अवस्था में होती है लेकिन छंटाई के बाद सिंचाई आवश्यक होती है. फूल आने तथा पूरा फल बनने (मार्च से मई ) तक पानी की आवश्यकता होती है. क्योंकि इस दौरान पानी की कमी से उत्पादन एवं हुन्वात्ता दोनों पर बुरा असर पड़ता है. इस दौरान तापमान तथा पर्यावरण स्थितियों को ध्यान में रखते हुए 7 - 10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए. फल पकने की प्रक्रिया शुरू होते ही पानी बंद कर देना चाहिए नहीं तो फल फट एवं सड़ सकते हैं. फलों की तुडाई के बाद भी एक सिंचाई अवश्य कर देनी चाहिए.

खाद एवं उर्वरक-

अंगूर की बेल भूमि से काफी मात्र में पोषक तत्वों को ग्रहण करती है. अतः मिट्टी कि उर्वरता बनाये रखने के लिए एवं लगातार अच्छी गुणवत्ता वाली फसल लेने के लिए यह आवश्यक है की खाद और उर्वरकों द्वारा पोषक तत्वों की पूर्ति की जाये. पण्डाल पद्धति से साधी गई एवं 3 x 3 मी. की दुरी पर लगाई गयी अंगूर की 5 वर्ष की बेल में लगभग 500 ग्राम नाइट्रोजन, 700 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश, 700 ग्राम पोटेशियम सल्फेट एवं 50 - 60 कि.ग्रा. गोबर की खाद की आवश्यकता होती है.

खाद देने का समय-

छंटाई के तुंरत बाद जनवरी के अंतिम सप्ताह में नाइट्रोजन एवं पोटाश की आधी मात्र एवं फास्फोरस की सारी मात्र दाल देनी चाहिए. शेष मात्र फल लगने के बाद दें. खाद एवं उर्वरकों को अच्छी तरह मिट्टी में मिलाने के बाद तुंरत सिंचाई करें. खाद को मुख्य तने से दूर १५-२० सेमी गहराई पर डालें.

कैसे करें फल गुणवत्ता में सुधार-

अच्छी किस्म के खाने वाले अंगूर के गुच्छे मध्यम आकर, मध्यम से बड़े आकर के बीजरहित दाने, विशिष्ट रंग, खुशबू, स्वाद व बनावट वाले होने चाहिए. ये विशेषताएं सामान्यतः किस्म विशेष पर निर्भर करती हैं. परन्तु निम्नलिखित विधियों द्वारा भी अंगूर की गुणवत्ता में अपेक्षा से अधिक सुधार किया जा सकता है.

फसल निर्धारण-

फसल निर्धारण के छंटाई सर्वाधिक सस्ता एवं सरल साधन है. अधिक फल, गुणवत्ता एवं पकने की प्रक्रिया पर बुरा प्रभाव छोड़ते हैं. अतः बेहतर हो यदि बाबर पद्धति साधित बेलों पर 60 - 70 एवं हैड पद्धति पर साधित बेलों पर 12 - 15 गुच्छे छोड़े जाएं. अतः फल लगने के तुंरत बाद संख्या से अधिक गुच्छों को निकाल दें.

छल्ला विधि-

इस तकनीक में बेल के किसी भाग, शाखा, लता, उपशाखा या तना से 0.5 से.मी. चौडाई की छाल छल्ले के रूप में उतार ली जाती है. छाल कब उतारी जाये यह उद्देश्य पर निर्भर करता है. अधिक फल लेने के लिए फूल खिलने के एक सप्ताह पूर्व, फल के आकर में सुधार लाने के लिए फल लगने के तुंरत बाद और बेहतर आकर्षक रंग के लिए फल पकना शुरू होने के समय छाल उतारनी चाहिए. आमतौर पर छाल मुख्य तने पर 0.5 से.मी चौडी फल लगते ही तुंरत उतारनी चाहिए.

वृद्धि नियंत्रकों का उपयोग-

बीज रहित किस्मों में जिब्बरेलिक एसिड का प्रयोग करने से दानो का आकर दो गुना होता है. पूसा सीडलेस किस्म में पुरे फूल आने पर 45 पी.पी.एम. 450 मि.ग्रा. प्रति 10 ली. पानी में, ब्यूटी सीडलेस मने आधा फूल खिलने पर 45 पी.पी.एम. एवं परलेट किस्म में भी आधे फूल खिलने पर 30 पी.पी.एम का प्रयोग करना चाहिए. जिब्बरेलिक एसिड के घोल का या तो छिडकाव किया जाता है या फिर गुच्छों को आधे मिनट तक इस घोल में डुबाया जाता है. यदि गुच्छों को 500 पी.पी.एम 5 मिली. प्रति 10 लीटर पानी में इथेफ़ोन में डुबाया जाये तो फलों में अम्लता की कमी आती है. फल जल्दी पकते हैं एवं रंगीन किस्मों में दानों पर रंग में सुधार आता है. यदि जनवरी के प्रारंभ में डोरमैक्स 3 का छिडकाव कर दिया जाये तो अंगूर 1 - 2 सप्ताह जल्दी पक सकते हैं.

फल तुड़ाई एवं उत्पादन-

अंगूर तोड़ने के पश्चात् पकते नहीं हैं, अतः जब खाने योग्य हो जाये अथवा बाजार में बेचना हो तो उसी समय तोड़ना चाहिए. शर्करा में वृद्धि एवं तथा अम्लता में कमी होना फल पकने के लक्षण हैं. फलों की तुडाई प्रातः काल या सायंकाल में करनी चाहिए. उचित कीमत लेने के लिए गुच्छों का वर्गीकरण करें. पैकिंग के पूर्व गुच्छों से टूटे एवं गले सड़े दानों को निकाल दें. अंगूर के अच्छे रख - रखाव वाले बाग़ से तीन वर्ष पश्चात् फल मिलना शुरू हो जाते हैं और 2 - 3 दशक तक फल प्राप्त किये जा सकते हैं. परलेट किस्म के 14 - 15 साल के बगीचे से 30 - 35 टन एवं पूसा सीडलेस से 15 - 20 टन प्रति हैक्टेयर फल लिया जा सकता है.

नील हरित शैवाल जनित जैव उर्वरक

नील हरित शैवाल जनित जैव उर्वरक (Neel Green Algae Bio Fertilizer)


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भूमि की उर्वरा शक्ति बरकरार रखने तथा इसे बढ़ाने के लिए एक जैव उर्वरक जो नील हरित शैवालों के संवर्धन से बनाया जाता है अति महत्वपूर्ण है। यह जैव उर्वरक खरीफ सीजन 20-25 कि.ग्रा. नेत्रजन प्रति हे. करता है तथा मिट्टी के स्वास्थ्य को ठीक रखता है। इसके अतिरिक्त भूमि के पानी संग्रह की क्षमता बढ़ाना एवं कई आवश्यक तत्व पौधों को उपलब्ध कराता है। भूमि के पी.एच. को एक समान बनाये रखने में मदद करता है तथा अनावश्यक खरपतवारों को पनपने से रोकता है। इसे जैव उर्वरक के लगातार प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती है तथा धान एवं गेहूं की उपज भी 5-10 प्रतिशत बढ़ती है।

इस जैव उर्वरकों का प्रयोग कम से कम 70 कि.ग्रा./हे यूरिया बचत करता है। जिससें अधिक यूरिया के अनावश्यक प्रयोग से भूमि उसर में नजदीक होने से बचाव होता है। इतना उपयोगी जैव उर्वरक किसान अपने खेत खलिहान पर स्वयं बनाकर अपने खेतों में प्रयोग कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त अधिक मात्रा में उत्पादित करके धनोपार्जन भी कर सकता हैं। इस जैव उर्वरक को विभिन्न तरीके से बनाया जा सकता है।

उत्पादन तकनीक-

नील हरित शैवाल जनित जैव उर्वरक में मुख्यतया आलोसाइरा, टोलीपोथ्रिक्स, एनावीना, नासटाक, प्लेक्टोनीमा नील हरित शैवाल होते है। ये शैवाल वायुमंडल के नेत्रजन को लेकर नेत्रजन निबन्धन करते है। यह निबन्धित नेत्रजन धान के उपयोग में तो आता ही है साथ में धान की कटाई के बाद लगायी जाने वाली अगली फसल को भी नेत्रजन तथा अन्य उपयोगी तत्व उपलब्ध कराता है। उस जैव उर्वरक को बनाने के लिए प्रारम्भिक कल्चर कृषि विभाग के जैव उर्वरक प्रकोष्ट/का.ही.वि.वि. के जैव प्रद्यौगिकी विद्यालय या वनस्पति विज्ञान विभाग से प्राप्त किया जा सकता है। एक पैकेट प्रारम्भिक कल्चर से काफी मात्रा में जैव उर्वरक बनाया जा सकता है पुनः इस बने हुए जैव उर्वरकों को संमबर्धित करके और अधिक मात्रा में जैव उर्वरक बना सकते है। नील हरित शैवाल जनित जैव उर्वरक निम्न लिखित विभिन्न तरीकों से बनाया जा सकता है।

टैंक विधि-

1. 5 मीटर लम्बा, 1.5 मी. चौड़ा और 30 से.मी. गहरा पक्का गढ्ढा (टंकि) ईट तथा सिमेन्ट की बनवा ले। हर टंकी में पानी भरने तथा पानी निकासी की व्यवस्था बनवा दे। जिससे समयसे पानी भरने तथा टंकी से पानी निकालने में आसानी हो।
2. टंकियों में दोमट मिट्टी 1.5 कि.ग्रा.- 2.0 कि.ग्रा. प्रति मीटर की दर से भूरभूरी करके डाल दे।
3. टंकियों में 10-12 से.मी. पानी भर दे तथा 200 ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट प्रति हे. की दर से टंकी में डाल दे। यदि टंकी के पानी का पी.एच. साधारण पानी के पी.एच यानि (7.0) से कम हो जाय तो आवश्यकतानुसार चूना डाल दें। ऐसा करने से टंकी का पानी का पी.एच. बढ़ जायगा। अमूमन 200 ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट डालने से पानी के पी.एच. में कोई ज्यादा कमी नही आती है।
4. टंकी में 50 ग्रा. कार्बेफयूरान/20-25 मि.ली. एन्डोसल्फान मिला दे ताकि मच्छर या अन्य कीड़े मकोड़े टंकी के पानी में प्रजनन न कर सके।
5. उपरोक्त सभी चीजों को पानी में ठीक से मिलाने के बाद छोड़ दे ताकि मिट्टी टंकी की सतह पर बराबर से बैठ जाय। इसके उपरान्त नील हरित शैवाल का प्रारम्भिक कल्चर (कृषि विभाग या का.ही.वि.वि.) से लाकर 100 ग्रा. प्रति स्कॉयर मीटर की दर से सावधानी पूर्वक पानी की सतह पर छिड़क दें।
6. 10 से 15 दिनों में मोटी नील हरित शैवाल की तरह पानी पर उग आयेगी यदि इस दौरान टंकी में पानी की सतह 5 से.मी. से कम होता है तो पुनः पानी आवश्यकतानुसार 5-7 से.मी. तक भर दें।
7. नील हरित शैवाल की मोटी तह बन जाने पर (10-12 दिन के बाद) टंकी के पानी को ड्रेन पाइप से बाहर निकाल दे या यदि पानी कम हो गया हो 2-3 से.मी. मात्र हो तो धूप में ही छोड़ दें दो-दिन में अपने से ही सूख जायेगा। सूखने के बाद मिट्टी के साथ नील हरित शैवाल की पपड़ी बन जायेगी। इस पपड़ी को खुरच कर पालीथीन के थैलों में 1 कि.ग्रा. 500 ग्रा. के पैकेट बना लें।
पुनः टंकियों में 10-12 से.मी. पानी भरकर खाद, कीटनाशी या अन्य आवश्यक पदार्थ उपरोक्त वर्णित विधि के अनुसार डालकर 10-12 दिन बाद पुनः दूसरी खेप उत्पादित कर ले। इस तरह हर साल में 20-25 का नील हरित जैविक खाद बना सकते है और खरीफ सीजन में इन जैविक खादों का प्रयोग धान की उपज बढ़ाने तक भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में उपयोग कर सकते है।

कच्चे गढ़्ढे की विधि-

यह विधि टंकी विधि के समान है इस विधि में पक्की टंकी की जगह कच्चे गढ़्ढे बनाकर उसमें पालीथीन की सीट बिछा देते है। ताकि कच्चे गढ़्ढे से पानी रिस-रिस कर सूख न जाय इस विधि में भी 5 मी. लम्बा x 1.5 मी. चौड़ा तथा 40 से.मी. गहरा कच्चा गढ़्ढा बना लेते है। हर गढ़्ढे में पालीथीन की सीट बिछा देते है। प्रत्येक गढ़्ढे में 10-12 से.मी. पानी भर देते है तथा 1.5 - 2.0 कि. ग्रा. दोमट भूरभूरी मिट्टी और 200 ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट गढ़्ढे में छिड़क देते है। जब मिट्टी पालीथीन के उपर स्थिर हो जाय तो गढ़्ढो में 100 ग्रा./स्कॉयर मी. की दर से प्रारम्भिक कल्चर लाकर बराबर से छिड़क देतेहै। इस विधि में भी 10-12 दिनों से नील हरित शैवाल की मोटी परत बन जाती है। 12 दिनों के बाद गढ़्ढे के पानी को सूखने दे, जब पानी सूख जाय तो जैव उर्वरक की परत मिट्टी के साथ खुरच कर 1 कि.ग्रा./500 ग्रा. के पालीथीन के थैलों में इक्कट्ठा कर लें। उपरोक्त प्रक्रिया बार-बार दोहरा कर काफी मात्रा में जैव उर्वरक बना सकते है।

प्रक्षेय स्तर पर नील हरित जैव उर्वरक का उत्पादन-

दोमट मिट्टी वाले खेत में 40 स्कॉयर मी. समतल भूमि का चुनाव करे तथा पानी भर के ठीक से पलेवा कर देते है। जिससे पानी का रिसाव भूमि में नीचे की ओर कम हो जाय तथा प्रक्षेय में पानी लगा रहे। चयनित प्रक्षेय के चारों तरफ 30 से.मी. ऊँची मेड़ी बना दे। मेड़ी डालने के बाद प्रक्षेय में 5-6 से.मी. पानी भर दें इतना पानी प्रक्षेय में हमेशा जैव उर्वरक उत्पादन के समय लगा रहना चाहिए। इस प्रक्षेय में 12 कि.ग्रा सिगंल सुपर फास्फेट तथा 250 ग्रा. कार्बोफ्यूरान बराबर से छिड़क दे। नील हरित शैवाल के प्रारम्भिक कल्चर को पानी भरने तथा खाद व कीटनाशी छिड़कने के उपरान्त छिड़क दें। करीब 12-15 किग्रा./हे की दर से प्रयोग करे। प्रक्षेय स्तर पर जैव उर्वरक का उत्पादन वाले खेत के पास ही करें। जब तक नर्सरी तैयार होगी तब तक एक बार जैव उर्वरक भी प्रयोग के लिए तैयार हो जायेगा।

जैव उर्वरक उत्पादन में निम्नलिखित सावधानी बरते-

1. उत्पादन इकाई खूली धूप में बनानी चाहिए तथा अधिक समतल धरातल शैवालों की वृद्धि के लिए प्रयोक्त होना चाहिए।
2. सिंगल सुपर फास्फेट एक बार में डालने पर कभी-कभी पानी का पी.एच. कम हो जाता है। अतएव इस खाद को दौबारा प्रयोग करें।
3. नेत्रजन खाद का प्रयोग भूल करके भी टंकियो, गढ़्ढो या प्रक्षेय जैव उर्वरक बनाते समय नहीं करना चाहिए। नेत्रजन खाद के पड़ने से शैवालों की वृद्धि धीमी गति से होती है तथा इनकी नेत्रजन निबन्धन की गति धान के खेत में कम या खत्म हो जाती है।
4. कीड़ों या मच्छरों को पानी की सतह पर पलने तथा प्रजनन होने कीट नाशक के प्रयोग से रोके। अन्यथा नील हरित शैवालों की वृद्धि कम होती है।
5. अधिक पानी गढ़्ढों या खेत में नहीं भरना चाहिए अधिक पानी होने पर जैव उर्वरक की पपड़ी तैयार होने में अधिक समय लग जाता है। प्रक्षेय विधि में दसवें दिन के उपरान्त सामान्यतया पानी नहीं भरते है।
6. जब नील हरित शैवालों की मोटी तह बन जाय तभी पानी निकाल कर या सूखाकर जैव उर्वरक की पपड़ी टंकी या गढ़्ढे या प्रक्षेय से खुरच कर निकाले।

जैव उर्वरक की प्रयोग विधि-

सूखी नील हरित शैवाल की पपड़ी को महिन चूर्ण बनाकर (12-15 कि.ग्रा./हे की दर से) धान के रोपाई के 5-10 दिन के उपरान्त जब खेत में 2-5 से.मी. पानी लगा हो तब बराबर से छिड़क दे। निर्धारित मात्रा से अधिक मात्रा में उस जैव उर्वरक का प्रयोग फसल को हानि नहीं पहुचांता है।
जैव उर्वरक को कम से कम चार खरीफ सीजन तक अवश्य प्रयोग करें ताकि मिट्टी की उर्वरा शक्ति तथा भूमि के लाभदायी जीवों की संख्या बढ़ जाय। इसके साथ साथ भूमि की स्वास्थ्य अच्छी हो जाय। खेत में खरपतवार नाशी या कीट नाशक के उपरान्त ही जैव उर्वरक का प्रयोग करें।
नील हरित शैवाल के उपयोग के बाद हल्की सिंगल सुपर फास्फेट खाद खेतों में डालने से इन जैव उर्वरकों की वृद्धि अधिक होती है तथा ये अपनी क्षमता के अनुरूप नेत्रजन निबन्धन करते है। यह ध्यान रखें कि बाद में प्रयुक्त की गयी फास्फेट खाद निर्धारित मात्रा यानी सम्पूर्ण फास्फेटिक खाद (40 या 60 कि.ग्रा./हे) से अधिक न हो जाय।

जैव उर्वरक के आर्थिक लाभ-


1. यदि किसान स्वयं इस जैव उर्वरक को बनाये तो इसकी कीमत/मूल्य लगभग नगण्य होती है तथा किसान की 25-30 कि.ग्रा. नेत्रजन यानी 70 कि.ग्रा. यूरिया की बचत/हे हो सकती है।
2. इस जैव उर्वरक के प्रयोग से कल्ले अधिक बनते है तथा धान की वालियों में दानों का भराव अच्छा होता है जिससे 5-7 कुन्तल/हेक्टेयर पैदावार में वृद्धि हो जाती है।
3. अधिक मात्रा में यह जैव उर्वरक बनाकर उसे दूसरे लोगों को बेंचकर अतिरिक्त धन अर्जित कर सकते है। यदि एक किसान 5x1.5x0.3 मीटर के आकार का 50 कच्चे गढ़्ढे बना ले तो हर साल वह खर्चा काटने के बाद 25 हजार की आय प्राप्त कर सकता है। एक साल में करीब 15-16 बार नील हरित शैवाल वाली जैव उर्वरक उत्पादित कर सकता है। यदि पक्के गढ़्ढे/टैंक बनवाकर जैव उर्वरक उत्पादित करता है तो पहले साल किसान को 10 हजार उसके उपरान्त 30 हजार प्रतिवर्ष की आय प्राप्त होगी ।

Monday 1 January 2018

गेंदा के फूलों की खेती

गेंदा के फूलों की खेती (Marigold flower farming)


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गेंदा के कुछ प्रजातियों जैसे- हजारा और पांवर प्रजाति की फसल वर्ष भर की जा सकती है. एक फसल के खत्म होते ही दूसरी फसल के लिए पौध तैयार कर ली जाती है. इस खेती में जहां लागत काफी कम होती हैं, वहीं आमदनी काफी अधिक होती है. गेंदा की फसल ढाई से तीन माह में तैयार हो जाती है. इसकी फसल दो महीने में प्राप्त की जा सकती है. यदि अपना निजी खेत हैं तो एक बीघा में लागत एक हजार से डेढ़ हजार रुपये की लगती है, वहीं सिंचाई की भी अधिक जरूरत नहीं होती. मात्र दो से तीन सिंचाई करने से ही खेती लहलहाने लगती है, जबकि पैदावार ढाई से तीन कुंटल तक प्रति बीघा तक हो जाती है. गेंदा फूल बाजार में 70 से 80 रुपये प्रति किलो तक बिक जाता है. त्योहारों और वैवाहिक कार्यक्रमों में जब इसकी मांग बढ़ जाती है तो दाम 100 रुपये प्रति किलो तक के हिसाब से मिल जाते हैं

जलवायु और भूमि

उत्तर भारत में मैदानी क्षेत्रो में शरद ऋतू में उगाया जाता है तथा उत्तर भारत के पहाड़ी क्षेत्रो में गर्मियों में इसकी खेती की जाती है. गेंदा की खेती बलुई दोमट भूमि उचित जल निकास वाली उत्तम मानी जाती है . जिस भूमि का पी.एच. मान 7.0 से 7.5 के बीच होता है वह भूमि खेती के लिए अच्छी मानी जाती है.

उन्नतशील प्रजातियां

गेंदा की चार प्रकार की किस्मे पायी जाती है प्रथम अफ्रीकन गेंदा जैसे कि क्लाइमेक्स, कोलेरेट, क्राउन आफ गोल्ड, क्यूपीट येलो, फर्स्ट लेडी, फुल्की फ्रू फर्स्ट, जॉइंट सनसेट, इंडियन चीफ ग्लाइटर्स, जुबली, मन इन द मून, मैमोथ मम, रिवर साइड ब्यूटी, येलो सुप्रीम, स्पन गोल्ड आदि है. ये सभी व्यापारिक स्तर पर कटे फूलो के लिए उगाई जाती है. दूसरे प्रकार की मैक्सन गेंदा जैसे कि टेगेट्स ल्यूसीडा, टेगेट्स लेमोनी, टेगेट्स मैन्यूटा आदि है ये सभी प्रमुख प्रजातियां है. तीसरे प्रकार की फ्रेंच गेंदा जैसे कि बोलेरो  गोल्डी, गोल्डी स्ट्रिप्ट, गोल्डन ऑरेंज, गोल्डन जेम, रेड कोट, डेनटी मैरिएटा, रेड हेड, गोल्डन बाल आदि है. इन प्रजातियों का पौधा फ़ैलाने वाला झड़ी नुमा होता है. पौधे छोटे होते है देखने में अच्छे लगते है. चौथे संकर किस्म की प्रजातिया जैसे की नगेटरेटा, सौफरेड, पूसा नारंगी गेंदा, पूसा बसन्ती गेंदा आदि.

खेत की तैयारी

गेंदे के बीज को पहले पौधशाला में बोया जाता है. पौधशाला में पर्याप्त गोबर की खाद डालकर भलीभांति जुताई करके तैयार की जाती है. मिट्टी को भुरभुरा बनाकर रेत भी डालते है तथा तैयार खेत या पौधशाला में क्यारियां बना लेते है. क्यारियां 15 सेंटीमीटर ऊंची एक मीटर चौड़ी तथा 5 से 6 मीटर लम्बी बना लेना चाहिए. इन तैयार क्यारियो में बीज बोकर सड़ी गोबर की खाद को छानकर बीज को क्यारियो में ऊपर से ढक देना चाहिए. तथा जब तक बीज जमाना शुरू न हो तब तक हजारे से सिंचाई करनी चाहिए इस तरह से पौधशाला में पौध तैयार करते है.

बीज बुआई

गेंदे की बीज की मात्रा किस्मों के आधार पर लगती है. जैसे कि संकर किस्मों का बीज 700 से 800 ग्राम प्रति हेक्टेयर तथा सामान्य किस्मों का बीज 1.25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है. भारत वर्ष में इसकी बुवाई जलवायु की भिन्नता के अनुसार अलग-अलग समय पर होती है. उत्तर भारत में दो समय पर बीज बोया जाता है जैसे कि पहली बार मार्च से जून तक तथा दूसरी बार अगस्त से सितम्बर तक बुवाई की जाती है.

पौध रोपाई

गेंदा के पौधों की रोपाई समतल क्यारियो में की जाती है रोपाई की दूरी उगाई जाने वाली किस्मों पर निर्भर करती है. अफ्रीकन गेंदे के पौधों की रोपाई में 60 सेंटीमीटर लाइन से लाइन  तथा 45 सेंटीमीटर पौधे से पौधे की दूरी रखते है तथा अन्य किस्मों की रोपाई में 40 सेंटीमीटर पौधे से पौधे तथा लाइन से लाइन की दूरी रखते है.

खाद एवं उर्वरक

250 से 300 क्विंटल सड़ी गोबर की खाद खेत की तैयारी करते समय प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देना  चाहिए इसके साथ ही अच्छी फसल के लिए 120 किलोग्राम नत्रजन, 80 किलोग्राम फास्फोरस तथा 80 किलोग्राम पोटाश तत्व के रूप में प्रति हेक्टेयर देना चाहिए. फास्फोरस एवं  पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा खेत की तैयारी करते समय अच्छी तरह जुताई करके मिला देना चाहिए. नत्रजन की आधी मात्रा दो बार में बराबर मात्रा में देना चाहिए. पहली बार रोपाई के एक माह बाद तथा शेष रोपाई के दो माह बाद दूसरी बार देना चाहिए.

निराई – गुड़ाई

गेंदा के खेत को खरपतवारो से साफ़ सुथरा रखना चाहिए तथा निराई-गुड़ाई करते समय गेंदा के पौधों पर 10 से 12 सेंटीमीटर ऊंची मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए जिससे कि पौधे फूल आने पर गिर न सके.

रोग और नियंत्रण

गेंदा में अर्ध पतन, खर्रा रोग, विषाणु रोग तथा मृदु गलन रोग लगते है. अर्ध पतन हेतु नियंत्रण के लिए रैडोमिल 2.5 ग्राम या कार्बेन्डाजिम  2.5 ग्राम या केप्टान 3 ग्राम या थीरम 3 ग्राम से बीज को उपचारित करके बुवाई करनी चाहिए. खर्रा रोग के नियंत्रण के लिए किसी भी फफूंदी नाशक को 800 से 1000 लीटर पानी में मिलाकर 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए. विषाणु एवं गलन रोग के नियंत्रण हेतु मिथायल ओ डिमेटान 2 मिलीलीटर या डाई मिथोएट  एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए.

कीट नियंत्रण

गेंदा में कलिका भेदक, थ्रिप्स एवं पर्ण फुदका कीट लगते है इनके नियंत्रण हेतु फास्फोमिडान या डाइमेथोएट 0.05 प्रतिशत के घोल का छिड़काव 10 से 15 दिन के अंतराल पर दो-तीन छिड़काव करना चाहिए अथवा क़यूनालफॉस 0.07 प्रतिशत का छिड़काव आवश्यकतानुसार करना चाहिए.

तुड़ाई और कटाई

जब हमारे खेत में गेंदा की फसल तैयार हो जाती है तो फूलो को हमेशा प्रातः काल ही काटना चाहिए तथा तेज धूप न पड़े फूलो को तेज चाकू से तिरछा काटना चाहिए फूलो को साफ़ पात्र या बर्तन में रखना चाहिए. फूलो की कटाई करने के बाद छायादार स्थान पर फैलाकर रखना चाहिए. पूरे खिले हुए फूलो की ही कटाई करानी चाहिए. कटे फूलो को अधिक समय तक रखने हेतु 8 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान पर तथा 80 प्रतिशत आद्रता पर तजा रखने हेतु रखना चाहिए. कट फ्लावर के रूप में इस्तेमाल करने वाले फूलो के पात्र में एक चम्मच चीनी मिला देने से अधिक समय तक रख सकते है.

पैदावार


गेंदे की उपज भूमि की उर्वरा शक्ति तथा फसल की देखभाल पर निर्भर करती है इसके साथ ही सभी तकनीकिया अपनाते हुए आमतौर पर उपज के रूप में 125 से 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर फूल प्राप्त होते है कुछ उन्नतशील किस्मों से पुष्प उत्पादन 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होते है यह उपज पूरी फसल समाप्त होने तक प्राप्त होती है

रसभरी की खेती

रसभरी की खेती (farming of Raspberry)


रसभरी की खेती (farming of Raspberry)



रास्पबेरी एक स्वादिष्ट और पौष्टिक खाने योग्य फल है जो प्राकृतिक तौर पर ठंडे जलवायु क्षेत्र में बढ़ते हैं, हालांकि इसकी खेती अधिकांश जलवायु क्षेत्र में हो सकती है। रास्पबेरी की खेती ताजे फल बाजार और व्यावसायिक प्रोद्योगिकी के लिए होती है, जिसमे अलग-अलग तेजी से जमनेवाले फल, प्यूरी, रस या सूखे फल जैसे कई प्रकार के रसोई संबंधी उत्पाद किए जा सकते हैं। रास्पबेरी उपजाना बेहद मजेदार है और लगातार इसकी प्रसिद्धि बढ़ रही है। ऐसे फल हाथ से तोड़े जा सकते हैं और स्ट्राबेरी के ठीक बाद और ब्लूबेरी के ठीक पहले तैयार हो जाते हैं। रास्पबेरी की पूरी फसल की उम्मीद पौधारोपन के तीन साल बाद की जा सकती है और इसके पेड़ 10 से 15 साल तक फल देते रहते हैं। रास्पबेरी ”रोज” परिवार और ”रुबस” प्रजाति की है। रास्पबेरी को बर्तन, गमला और घर के पीछे आंगन में भी लगा सकते हैं। बागवानी और खेतीबाड़ी के उपयुक्त तौर-तरीके अपना कर कोई भी अच्छे मुनाफे की उम्मीद कर सकता है। अगर रास्पबेरी की खेती व्यावसायिक मकसद से करना है तो इसके लिए अच्छे तरीके से मिट्टी की जांच और दूसरे उपाय अपनाने चाहिए। रास्पबेरी का फल पोषण और स्वास्थ्य से जुड़े अन्य फायदों के लिए बेहतरीन श्रोत है।

रसभरी के स्वास्थ्य संबंधी लाभ-

रसभरी या रास्पबेरी के स्वास्थ्य संबंधी फायदे निम्न हैं-
वजन प्रबंधन में मददगार
झुर्रियां कम करने में सहायक
दाग-धब्बे की विकृति को रोकने में मदद
संक्रमण और कुछ तरह के कैंसर को रोकता है
प्रतिरक्षा शक्ति को बढ़ाने में सहायक
स्त्री स्वास्थ्य को बढ़ावा देता है
उच्च पोषक तत्वों से भरपूर
बुढ़ापे को रोकने वाले तत्व
त्वचा के स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद

रसभरी के प्रकार-

मूल रुप से रास्पबेरी समर बीयरर्स यानी गर्मी बर्दाश्त करनेवाला और एवर बीयरर्स यानी हमेशा बर्दाश्त करने वाला, दो प्रजातियों में पाया जाता है। सामान्य तौर पर समर बीयरर्स एक मौसम में एक फसल देता है और वो गर्मी के मौसम में भी, जबकि एवर बीयरर्स प्रत्येक साल दो फसल देता है, एक गर्मी में और दूसरा शरद ऋतु में। पूरी दुनिया में रास्पबेरी की कुछ और मुख्य किस्में उगाई जाती है, वो है- समर रेड रास्पबेरीज, ब्लैक रास्पबेरीज, एवर बियरिंग रेड रास्पबेरीज, पर्पल रास्पबेरीज और गोल्डन रास्पबेरीज। भारत में अधिकांश जगहों पर मैसूर रास्पबेरीज किस्म की खेती होती है।

रसभरी की खेती के लिए आवश्यक जलवायु-

रास्पबेरी को कई तरह की जलवायु या मौसम में लगाया जा सकता है। हालांकि यह सबसे अच्छा ठंडे मौसम में फलता-फूलता है। रसभरी कुछ हद तक छाया को बर्दाश्त कर लेती है लेकिन सूर्य की पर्याप्त रोशनी में अच्छी बढ़त होती है। अधिकांश रसभरी की किस्में समशीतोष्ण और हल्की ठंड के मौसम वाले क्षेत्र में अच्छी तरह बढ़ते हैं।

रसभरी के लिए आवश्यक मिट्टी-

रसभरी की फसल सबसे बेहतर चिकनी बलुई मिट्टी से लेकर तलछट मिट्टी (पानी के बहाव से लायी हुई मिट्टी या रेत), जिसमें पानी निकासी की अच्छी व्यवस्था हो, में होती है। खराब पानी निकासी वाली भारी चिकनी मिट्टी वाली भूमि पर इसकी खेती करने से बचना चाहिए क्योंकि इससे कुछ ही दिनों में जड़ में सड़न शुरू हो जाती है। रसभरी के पौधे के लिए 6.0 से 7.0 पीएच वाली मिट्टी अनुकूल है और जिसमे अच्छी गुणवत्ता युक्त भारी मात्रा में फसल पैदा होती है। अम्लीय गुणों वाली मिट्टी को चूना डालकर ठीक किया जा सकता है। मिट्टी जांच के परिणाम के आधार पर सूक्ष्म पोषण तत्वों की कमी को दूर किया जाना चाहिए। जमीन की तैयारी के सिलसिले में मिट्टी को और ऊर्वर बनाने के लिए जैविक खाद मिलाना चाहिए।

रसभरी की खेती का मौसम-

सामान्यतौर पर नर्सरी के डिब्बे में उगाये गए रसभरी के पौधे को ठंड या पाला का मौसम बीत जाने के बाद लगाना चाहिए। इन पौधों को नर्सरी के पौधे की तुलना में एक ईंच ज्यादा गहरा लगाना चाहिए।

रसभरी की खेती के लिए जमीन की तैयारी-

रसभरी की खेती में जमीन या खेत की तैयारी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। रसभरी की खेती में मिट्टी से पानी की निकासी बहुत अहम होता है। रसभरी की खेती में ऊपरी मिट्टी में जैविक खाद की अच्छी आपूर्ति होनी चाहिए और नीचे की मिट्टी गहरी और अच्छी तरह से सूखी होनी चाहिए। ऐसे क्षेत्र जहां 2 से 3 साल से टमाटर, आलू, बैगन, किसी भी तरह की मिर्च की खेती या ऐसी फसल जो मुरझा देने वाले फफूंद के संपर्क में आसानी से आ जाती है,वहां रसभरी या रास्पबेरी की खेती की सलाह या अनुशंसा नहीं की जाती है। रसभरी या रास्पबेरी के पौधारोपन से पहले, जमीन की तैयारी के सिलसिले में पिछली फसल के सारे खर-पतवार को खत्म करना सुनिश्चित कर लें। मिट्टी अच्छी तरह मिल जाये इसके लिए एक-दो बार खेत की जुताई कर लें।

रसभरी या रास्पबेरी की उत्पत्ति और पौधारोपन-

आमतौर पर, रसभरी या रास्पबेरी की उत्पत्ति जड़ से अंकुरण द्वारा होता है। इन पौधों के जड़ का विभाजन तेज धार कुदाल और हाथ से किया जाता है। अच्छी नर्सरी से मान्यता प्राप्त रोगमुक्त रास्पबेरी पौधा खरीदना सबसे अच्छा होता है। पारंपरिक तौर पर, रास्पबेरी का पौधा जड़ समेत अच्छी तरह बड़ा और जड़ समेत बिकता है। रास्पबेरी नर्सरी का एक साल पुराना पौधा या डिब्बे में लगे पौधे के तने की लंबाई जब 20 से 30 सेमी का हो जाए तो उसे खेत में लगाया जा सकता है। अक्सर, रसभरी या रास्पबेरी के पौधों के बीच दूरी एक लाइन के बीच 60सेमी और गलियारे के बीच 2.75मी होती है। आमतौर पर 15से 18 तना प्रति मीटर होता है।

रसभरी या रास्पबेरी खेती में सिंचाई-

सिंचाई पूरी तरह मिट्टी के प्रकार और मौसम की स्थिति पर निर्भर करता है। हालांकि, सूखे क्षेत्र में रास्पबेरी की फसल को बार-बार सिंचाई की जरूरत पड़ती है। अगर साप्ताहिक बारिश एक ईंच से कम हो तो पर्याप्त सिंचाई की जरूरत होती है। आमतौर पर रास्पबेरी को सप्ताह में एक बार सिंचाई की जरूरत पड़ती है। यह सुनिश्चित करें कि फसल कटाई के बाद पर्याप्त सिंचाई की जाए। पानी की कमी की स्थिति में, ड्रिप सिंचाई का इस्तेमाल किया जा सकता है। ड्रिप(बूंद-बूंद) और स्प्रिंकलर(फव्वारा) सिंचाई के लिए स्थानीय प्रशासन की ओर से सब्सिडी या छूट की कुछ योजनाएं हैं। ड्रिप और स्प्रिंकलर व्यवस्था की पूरी जानकारी के लिए स्थानीय बागबानी विभाग या कृषि विश्वविद्यालय से संपर्क करें।

रसभरी या रास्पबेरी की खेती में खाद और ऊर्वरक-

रसभरी की फसल जैविक खाद और ऊर्वरक के इस्तेमाल पर बहुत अच्छा परिणाम देती है। पौधे की अच्छी बढ़त के लिए ऊर्वरक के बेहतर इस्तेमाल की एक वार्षिक योजना चलाई जानी चाहिए। प्रति वर्ष, प्रत्येक 10 फीट की लाइन पर 60 से 90 ग्राम नाइट्रोजन का इस्तेमाल होना चाहिए। जैसे ही प्राइमोकेन बढ़ने लगता है तब पूरे का एक तिहाई इस्तेमाल करें। एक तिहाई मई के अंत में और एक तिहाई जून के अंत में इस्तेमाल करना चाहिए। ऊर्वरक के इस्तेमाल के बाद ब्रोडकास्टिंग मेथड यानी छिड़काव पद्धति का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। मिट्टी में ऊर्वरक के इस्तेमाल के ठीक बाद हल्की सिंचाई की जरूरत पड़ती है। मिट्टी की जांच के बाद अगर पोषक तत्वों की कमी पाई जाती है तो उसे दूर किया जाना चाहिए। जमीन की तैयारी के वक्त पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद के इस्तेमाल से अच्छी फसल पैदा होती है।

रास्पबेरी की खेती की अंतरसांस्कृतिक कार्यप्रणाली-

टीला और क्यारियों (गलियारे) के बीच पनपने वाले खर-पतवार और प्राइमोकेन्स पर नियंत्रण के लिए हल्की जुताई की जरूरत होती है। जड़ को नुकसान पहुंचने से रोकने के लिए एक से डेढ़ ईंच से ज्यादा गहरी जुताई नहीं करें। मल्चिंग यानी गीली घास रखने से नमी को प्राप्त रखने और खर-पतवार के बढ़ने पर रोक लगाने में सहायक होता है। पौधे के बढ़ने के दौरान प्राइमोकेन्स की छंटाई नहीं करें। गर्मी के अंतिम दिनों में या फिर पतझड़ के मौसम में पुराने और मृत फ्लोरिकेंन्स को हटा देना चाहिए। पौधे से सभी फलों को तोड़ने के बाद फ्लोरिकेंस की कटाई-छंटाई करनी चाहिए।

रास्पबेरी की खेती में लगनेवाले रोग और कीट-पतंग-

रास्पबेरी की फसल कई कीट-पतंगों, परोपजीवी और रोगों के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं। ये पौधे की वृद्धि और फसल की पैदावार को बुरी तरह से प्रभावित करता है। रास्पबेरी की फसल में पाये जाने वाले कुछ सामान्य घातक कीट और बीमारी हैं– रुट वीविल्स, लीफ रोलर लार्वा, स्पाइडर माइट्स, एफीड्स,पाउडर जैसा फफूंद, एंथ्रेकनोज, वर्टीसिलियम विल्ट, और फाइटोफ्थोरा रुट रॉट। इनके लक्षणों और इन पर नियंत्रण के तरीके जानने के लिए अपने स्थानीय बागबानी विभाग या कृषि विश्वविद्यालय में संपर्क करें।

नोट-

उपर उल्लेखित बीमारियां और उस पर नियंत्रण के लिए अपने स्थानीय बागबानी या कृषि विभाग या कृषि विश्वविद्यालय रिसर्च सेंटर में संपर्क करें। इन बीमारियों के लक्षण और उन पर नियंत्रण करने के लिए ये सबसे बेहतरीन श्रोत हैं।

रसभरी की कटाई-

रास्पबेरी का फल बहुत जल्द नष्ट होने वाला होता है इसलिए वक्त पर इसकी कटाई बेहद जरूरी है। बाद में होने वाली कटाई फल की जिंदगी को तय करता है। रास्पबेरी फल की कटाई रोज की जा सकती है। लगभग 60 से 65 फीसदी फल की मार्केटिंग बतौर ताजे फल के रुप में की जा सकती है और 35 से 40फीसदी की मार्केटिंग फ्रोजन फ्रूट के तौर पर।

रसभरी की पैदावार-

फसल की पैदावार कई तत्वों पर निर्भर करती है, जैसे कि मिट्टी का प्रकार, अलग प्रजाति और उद्यान प्रबंधन। दूसरे साल से प्रति 60 पंक्तिरुप सेमी से तीन से चार किलोग्राम पैदावार होती है।

रसभरी का बाजार-

बतौर ताजा फसल के तौर पर इसे स्थानीय बाजार में बेचा जा सकता है। और दूसरे रुप प्यूरी और फ्रोजन (जमा हुआ) फल के तौर पर इसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में निर्यात कर दिया जाता है।

तुअर दाल की खेती

तुअर दाल की खेती (farming of tuar daal)


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तुअर दाल को वैज्ञानिक तौर पर कजनस केजन, पीजन पी के नाम से जाना जाता है जो दाल के वर्ग में आता है। भारत में पीजन पी को अरहर या लाल चना के नाम से ज्यादा जाना जाता है। भारत में दालों में सबसे ज्यादा मशहूर स्पीलीट पीजन पी यानी तुअर दाल का टुकड़ा है।
गौरतलब है कि शाकाहारी भोजन में प्रोटीन का सबसे बड़ा श्रोत दाल ही माना जाता है। जिस इलाके में अरहर की पैदावार होती है वहां इसकी फली को लोग सब्जी के तौर पर खुलकर इस्तेमाल करते हैं। सूखा दो टुकड़े में तोड़ा हुआ बीज मसूर दाल की तरह और सांभर के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। तुअर दाल को अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग नाम से जाना जाता है।
अंग्रेजी- पिजन पी, रेड ग्राम, येलो लेंटिल्स
हिंदी- अरहर, तुवर, तुअर, तूर दाल
तमिल- तोवरम पारुप्पू
तेलुगु- कांडी पप्पू

तुअर दाल की खेती के फायदे –

·        कम उपजाऊ मिट्टी और सूखे मौसम में भी इसकी खेती आसानी से होती है।

·        ये दाल उच्च प्रोटीन और पोषक तत्व से भरपूर होती है।

·        पौधे के पत्ते का इस्तेमाल पशु चारे के तौर पर भी होता है।

·        तुअर दाल तेजी से बढ़ने वाली फसल है और दूसरी फसलों जैसे कि शाक-सब्जियों, औषधीय पौधों और वनीला के लिए छाया का भी काम करती है।

·        पांच साल तक चलने वाला यह एक सदाबहार पौधा भी है।

·        पौधे का लकड़ी वाला हिस्सा जलावन के तौर पर भी उपयोग किया जाता है।

·        मुख्य जड़ मिट्टी के भीतर से पानी और पोषक तत्व खींचने में सहायक होता है।

·        तुअर के पौधे का इस्तेमाल भूमि कटाव को रोकने में भी बेहद कारगर होता है।

·        कृषि पारिस्थितिकी या पर्यावरण के लिए सहायक, बीच की फसल के तौर पर पीजन पी या तुअर दाल बेमिसाल है। यहां तक कि अंतर फसलीय या बीच की फसल की कटाई के बाद भी ये मिट्टी की सुरक्षा करता रहता है।

तुअर दाल की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु –

पहले आठ सप्ताह के लिए नमी युक्त 600 से 650 एमएम की औसत बारिश चाहिए। फूल आने और फली के विकास की अवधि तक सूखा मौसम चाहिए। इस तरह का मौसम रहने पर तुअर दाल की पैदावार बेहतरीन होती है। वहीं, फूल आने के दौरान अगर बारिश हो जाए तो परागण की क्रिया प्रभावित होती है। अरहर की दाल की अच्छी खेती ग्रीष्म(अप्रैल), बरसात(जून या खरीफ) और शरद(सितंबर या रबी) ऋतु में अच्छी होती है। ये फसल अर्ध उष्णकटिबंधीय है जो गहरे जड़ की बदौलत सूखे मौसम को भी आसानी से बर्दाश्त कर लेता है। फूल आना, फल आना और शाखाएं निकलने के दौरान अगर बारिश न हो तो इस फसल पर विपरीत असर डालता है। ऐसी स्थिति से बचाव के लिए सिंचाई की व्यवस्था होना बेहद जरूरी है।
तुअर या अरहर दाल के लिए नमी युक्त गर्म वातावरण चाहिए। उदाहरण के तौर पर अंकुरण के दौरान अपेक्षाकृत थोड़ा ज्यादा (30 से 35 सेंटीग्रेड) तापमान चाहिए,  वानस्पतिक विकास के दौरान अपेक्षाकृत थोड़ा कम (20 से 25 सेंटीग्रेड) तापमान चाहिए। फूल निकलने और फली के विकास के वक्त थोड़ा और कम (15 से 18 सेंटीग्रेड) तापमान चाहिए।  पौधे की परिपक्वता के दौरान सबसे ज्यादा (35 से 40 सेंटीग्रेड) तापमान चाहिए। जल जमाव या भारी बारिश, पाला आदि फसल के लिए बहुत हानिकारक है। फसल के पकने के वक्त ओलावृष्टि या बारिश पूरी फसल को चौपट कर देता है। इसकी जड़ों में गहराई से पानी खिंचने की ताकत की वजह से इसमें सूखे को झलने की अच्छी क्षमता होती है।

पौधे को नुकसान पहुंचाने वाले कारक –

  – जल जमाव, भारी बारिश और पाला
  – परिपक्वता के दौरान ओलावृष्टि और बारिश नुकसानदायक

वहीं, इसकी सबसे बड़ी खूबी ये है कि यह सूखे को भी आसानी से बर्दाश्त कर लेती है क्योंकि इसके जड़ें में गहराई से भी पानी खिंचने की क्षमता होती है।

तुअर दाल की खेती के लिए मिट्टी की आवश्यकता-

वैसे तो यह फसल सभी तरह की मिट्टी में आसानी से हो जाती है। लेकिन इसके लिए दोमट यानी चिकनी बलुई मिट्टी या रेतीली मिट्टी उपयुक्त है। बीच पहाड़ी पर ढलवां जमीन में भी ये फसल अच्छा परिणाम देती है। 6.5 से 7.5 पीएच रेंज वाली मिट्टी में इसकी फसल सफलतापूर्वक की जाती है। हां, यहां यह सुनिश्चित करना जरूरी होता है कि इस तरह की मिट्टी में जल-जमाव ना हो।

फसल के लिए मिट्टी या भूमि की तैयारी-

·        अच्छी जुताई होने पर लंबी जड़ वाली रेड ग्राम या तुअर दाल का उत्पादन बेहतर होता है। सूखे मौसम में जमीन को तैयार करने के लिए कम से कम एक बार जुताई की जाती है। इसके बाद दो से तीन बार गहरे तरीके से और चक्रीय जुताई की जाती है।

·        बीजारोपन के दो से तीन सप्ताह पहले जैविक खाद डालना चाहिेए

·        मिट्टी का इस तरह से समतलीकरण करना चाहिए ताकि पानी जमा नहीं हो सके

  ·        सामान्य या रिज यानी ऊंची जगह पर हल से चौड़ी क्यारियां बनाना ताकि पानी जमा न हो सके
   
·        फसल से खर-पतवार को अच्छी तरह से निकालना, छोटे-मोटे ढेले को तोड़कर मिला देना। यहां इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि इस कार्य के लिये मशीन का इस्तेमाल नहीं करना है।

·        हल्की सिंचाई पौधे के अंकुरण में मददगार साबित होता है।

बीज दर और पौधा रोपण की प्रक्रिया –

प्रति हेक्टेयर बीज की मात्रा 15 किलो।  लंबे किस्म की फसल की बुआई के लिए एक लाइन से दूसरी लाइन के बीच 50 सेमी की दूरी होनी चाहिए।  छोटे किस्म की फसल (एचपीए-92)  के लिए 30-35 सेमी की दूरी रखें और दोनों बीज के बीच की दूरी 15 से 20 सेमी हो। अगर फसल की बुआई मई के अंतिम सप्ताह में हो तो अच्छी पैदावार होती है। दो लाइन के बीच दूसरी फसल भी उगाई जा सकती है। एक लाइन में अरहर और दूसरी लाइन में तिल का पौधारोपन अच्छा परिणाम देता है। अगर एक लाइन की जोड़ी में खेती करनी हो तो एक जोड़ी अरहर की (30 सेमी की दूरी) और दूसरी जोड़ीदार लाइन तिल की (20सेमी की दूरी) की रखी जाती है। ऐसी स्थिति में तिल की खेती के लिए लगने वाला बीज और खाद की मात्रा भी घटकर आधी रह जाएगी।

बीज प्रबंधन –


·        बीजारोपन से 24 घंटे पहले प्रति किलो बीज पर 2 ग्राम कार्बेनडेजिम या थीरम को मिलाएं या त्रिकोडर्मा विराइड प्रति किलो 4 ग्राम, सूडोमोनस फ्लोरोसेंस प्रति किलो 10 ग्राम मिलाएं।

·        अच्छे किस्म का विकसित किया गया बीज ही खेती के लिए चुनाव करें
  
  ·        बीज दो साल से ज्यादा पुराना न हो। यहां बेहतर ये होगा कि बीज पिछले मौसम का हो

·        सही अंकुरण और फल के लिए उत्तम किस्म की बीज का इस्तेमाल करें

  ·        भारत के अलग-अलग इलाके में पीजन पी या तुअर दाल की फसल पारंपरिक तौर पर खरीफ फसल (जून-जुलाई) है जो मॉनसून की शुरुआत में की जाती है।

  ·        बारिश के मौसम की शुरुआत से एक पखवाड़ा पहले सिंचाई कर देनी चाहिए ताकि बरसात से पहले पौधा अच्छी तरह अपनी जड़ें जमा ले। हालांकि जहां बारिश के दौरान बुआई करनी हो वहां ठीक बारिश शुरु होते ही बुआई करनी चाहिए। बुआई में जून के अंतिम सप्ताह से ज्यादा की देरी नहीं होनी चाहिए।

पौधों के बीच अंतराल-


  ·        लंबी अवधि वाली फसल (लंबी और ज्यादा फैलने वाली) जो करीब 250 से 270 दिनों के लिए होती है उसके लिए दो लाइन के बीच 90 से 120 सेमी की दूरी होनी चाहिए (बारिश से सिंचाई वाली जगह पर दो पौधों के बीच 30 सेमी की जगह हो)।
·        सिंचाई की सुविधा से युक्त समय से पूर्व परिपक्व होने वाली फसल के लिए दो लाइन के बीच 50 से 75 सेमी और दो पौधों के बीच दूरी 15 से 20 सेमी हो।

·        प्रैल में बुआई की स्थिति में दो लाइन के बीच की दूरी 90 से 120 सेमी होनी चाहिए क्योंकि इस दौरान जून के मुकाबले तेजी से वृद्धि होती है।
·       आमतौर पर काली मिट्टी की स्थिति में दूरी 90 से 20 सेमी और लाल मिट्टी में 60 से 20 सेमी होनी चाहिए।

अंतर फसल या बीच की फसल –

तुअर दाल की फसल के साथ दो या तीन फसलों की खेती की परंपरा रही है ताकि कुल मिलाकर ज्यादा से ज्यादा फसल उगाई जा सके। परंपरागत तौर पर रेड ग्राम या लाल चने को तिलहन, कम अवधि वाली फसल जैसे की फलिया और कपास के साथ बोया जाता है। वहीं, ज्यादातर इसे अनाज की फसल जैसे ज्वार, बाजरा, रागी और मक्का आदि के साथ बुआई की जाती है। वहीं, रेड ग्राम के साथ तिलहन की अंतर फसल जैसे कि मूंगफली, सोयाबीन और तिल ज्यादा मशहूर हो रहा है। इसके साथ ही कम अवधि वाली दाल की फसल जैसे कि मूंग, राजमा, काबुली चना और उड़द की भी खेती की जाती है।

खाद डालने की प्रक्रिया –

प्रति हेक्टेयर 15 किलो नाइट्रोजन और 45 किलो पी2ओ5(p2op) की मात्रा इस फसल के लिए पर्याप्त है।

खर-पतवार नियंत्रण –

शुरुआती 45 से 50 दिनों के बीच इसकी वृद्धि दर बहुत धीमी होती है। ऐसी स्थिति में ये खर-पतवार से मुकाबला करने में ज्यादा सक्षम नहीं होती है। अगर वक्त रहते खर-पतवार पर नियंत्रण नहीं किया गया तो इसकी पैदावार में 90 फीसदी तक की भारी गिरावट आ सकती है। ऐसी स्थिति में सलाह दी जाती है कि पूरे खेत से हानिकारक घास-फूस की अच्छी तरह से सफाई कर देनी चाहिए। खेत में मौजूद खर-पतवार से मुक्ति के लिए दो स्तरीय रणनीति अपनानी होगी। पहला चरण 25 से 30 दिन के बाद और दूसरा चरण बुआई के 45 से 50 दिन के बाद चलाना चाहिए।

फसल की कटाई और भंडारण –

अलग-अलग मकसद से तुअर दाल की खेती में ग्रीन पीजन पी किस्म की खेती की जाती है। अच्छी तरह से विकसित चमकीली हरी बीज का इस्तेमाल सब्जी के तौर पर किया जाता है। फली के हरे रंग के खत्म होने से पहले ही इसे तोड़ लिया जाना चाहिए। इसके लिए मशीन नहीं बल्कि हाथ से तोड़ाई का काम किया जाता है। दूसरी फसलों के विपरीत पीजन पी की फली तोड़ने के दौरान भी उसके पत्ते हरे ही रहते हैं। ऐसे में किसान इस भ्रम में पड़ जाता है कि इसे अभी तोडूं या कुछ और वक्त का इंतजार करूं ? यहां ध्यान रखना चाहिये कि पीजन पी की कटाई उस वक्त करना चाहिए जब इसकी फली का रंग75 से 80 फीसदी तक भूरा और सूख जाए। खासकर खराब मौसम के दौरान देरी से कटाई महंगी पड़ सकती है और परिपक्व बीज को नुकसान पहुंच सकता है।
परंपरागत तौर पर पीजन पी फसल की कटाई हंसिया या दराती से नीचे जड़ से की जाती है लेकिन कभी-कभी मशीन से भी इसकी कटाई की जाती है। उसके बाद उसे सुखाया जाता है और फिर फली निकाली जाती है। मौसम को ध्यान में रखते हुए कटी फसल का पुलिंदा बनाकर ऊंची जगह पर सप्ताह भर के लिए सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। थ्रेसर की मदद से या फिर डंडे से पीटकर सूखे पौधे से फली या दाने को अलग किया जाता है। कुछ जगहों पर घरेलू जानवरों जैसे की गाय,बैल या भैंस से सूखी फसल पर चलवाकर फली को अलग किया जाता है।
आमतौर पर पीजन पी या अरहर की साबूत बीज का भंडारण लंबे समय के लिए किया जाता है। ऐसा मुख्य तौर पर दो मकसद से किया जाता है, पहला- अगली बार बुआई के लिए और दूसरा ग्राहक की जरूरत को पूरा करने के लिए।
और अंत में अहम बात ये कि इस फसल की बाजार में हमेशा अच्छी मांग रहती है और इसकी सही कीमत भी बाजार भाव के मुताबिक बिना किसी समस्या के मिल जाती है। यही वजह है कि ज्यादा से ज्यादा किसान इसकी खेती करना चाहते हैं।