Sunday, 1 October 2017

मसूर की खेती

मसूर की खेती (Farming of lentil)


https://smartkhet.blogspot.com/2017/10/Farming-of-lentil.html             , lentil (masoor) plant photos



रबी की दलहनी फसलों में मसूर का प्रमुख स्थान है। यह यहाँ की एक बहुप्रचलित एवं लोकप्रिय दलहनी फसल है जिसकी खेती प्रायः हर राज्य में की जाती है। कृषि वैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि धान के कटोरे में दलहन की खेती की भी अपार संभावनाएं हैं।इसकी खेती प्रायः असिंचित क्षेत्रों में धान के फसल के बाद की जाती है । रबी मौसम में सरसों एवं गन्ने के साथ अंततः फसल के रूप में लगाया जाता है। मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बनाये रखने में भी मसूर की खेती बहुत सहायक होती है। उन्नतशील उत्पादन तकनीको का प्रयोग करके मसूर की उपज में बढ़ोतरी की जा सकती है।

जलवायु 

मसूर के लिए समशीतोष्ण जलवायु की आवश्यकता होती है,ऊष्ण-कटिबंधीय व उपोष्ण-कटिबंधीय क्षेत्रों में मसूर शरद ऋतू की फसल के रूप में उगाई है जाती,विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकार की जलवायु में मसूर की फसल समुद्री सतह से लगभग 3500 मीटर की ऊंचाई तक उगाई जाती है.पौधों की वृद्धि के लिए अपेक्षाकृत अधिक ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है , अतः भारत में मसूर की फसल रबी की ऋतू में उगाई जाती है . उन सभी स्थानों पर 80-100 सेमी तक वार्षिक वर्षा होती है मसूर की फसल बिना वर्षा के भी उगाई जा सकती है जहाँ , परन्तु कम वर्षा वाले स्थानों पर सिंचाइयों की सुविधा उपलब्ध होना अति आवश्यक है , अधिक वर्षा फसल के लिए हानिकारक है होती . पौधों की वृद्धि के लिए अधिक ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है परन्तु पाले का फसल पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है , पौधों की वानस्पतिक वृद्धि के लिए अपेक्षाकृत उच्च तापक्रम आवश्यक होता है , इस प्रकार फसल वृद्धि की विभिन्न अवस्थाओं 65-85 डिग्री फारेन्हाईट तापक्रम अनुकूल में होता है

भूमि का चयन

मसूर की खेती के लिए दोमट मिट्टी काफी उपयोगी होती है। नमीयुक्त मटियार खेत में धान की अगैती फसल के बाद या फिर खाली पड़े खेत में मसूर की खेतीबारी आसानी पूर्वक की जा सकती है।

खेत की तैयारी

मसूर की खेती के लिए खेत को 2-3 बार देशी हल अथवा कल्टीवेटर से जुताईकर मिट्टी को भूरभूरी बना देते है। बीज की बोआई जीरो टिलेज मशीन से करने के बाद कल्टीवेटर या रोटावेटर से जोताई कर खेत भुरभुरा करना पड़ता है।

मसूर बोने का समय

दलहन की बोआई के लिए वैसे तो असिंचित क्षेत्र में 15 से 31 अक्टूबर के बीच का समय उपयुक्त माना गया है। किन्तु सिंचित इलाकों में इसकी बोआई का समय 15 नवम्बर तक निर्धारित किया गया है। मसूर की उन्नत प्रजातियां को 15 अक्टूबर से 25 नवम्बर के बीज बुवाई कर देनी चाहिए।

मसूर की खेती के लिए अनुसंसित उन्नत प्रजातियाँ

छोटे दाने की प्रजातियाँ

पंत के 639 - यह प्रजाति 135-140 दिन में तैयार हो जाती है। यह जड़ सड़न एवं उकठा रोग के लिए प्रतिरोधी मानी जाजी है।
पी0एल0 406 - यह प्रभेद 140-145 दिन में तैयार होती है। इसमें रस्ट, बिल्ट एवं अट रोग से लड़ने की क्षमता होती है।
एच0यू0एल0 57 - यह प्रजाति 120-125 दिन में परिपक्व हो जाती है तथा इसमंे भी जड़ सड़न एवं उकठा रोग से लड़ने की क्षमता है।
के0एल0एस0 218 - यह प्रजाति 120-125 दिन में तैयार हो जाती है।
 


बडे़ दाने वाली प्रजातियाँ

पी0एल077-12 (अरूण) - यह प्रभेद 115-120 दिन में परिपक्व हो जाती है रस्ट एवं इकठा रोग से लड़ने की क्षमता होती है।
मसूर की बुवाई की जाने वाली प्रमुख प्रजातियाँ जैसे की पूसा वैभव, आई पी एल८१, नरेन्द्र मसूर 1, पन्त मसूर 5, डी पी एल 15 ,के 75 तथा आई पी एल 406 इत्यादि प्रजातियाँ हैंI 
के-75 (मल्लिका) - यह जाति 115-120 दिन में पकती है। इसकी औसत उपज 10-12 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर है। इसका दाना छोटा होता है, जिसके 100 दानों का वजन 2.6 ग्राम है। यह जाति संपूर्ण विंध्‍य क्षेत्र अर्थात सीहोर, भोपाल, विदिशा, नरसिंहपुर, सागर, दमोह एवं रायसेन आदि जिलों के लिये उपयुक्‍त है।
2. जे.एल.-1 -  इस जाति की पकने की अवधि 112-118 दिन है तथा औसत उपज 11-13 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर है। इसका दाना मध्‍यम आकार का होता है तथा 100 दानों का वजन 2.8 ग्राम होता है। यह जाति भी संपूर्ण विश्‍व क्षेत्र के लिये उपयुक्‍त है।
3.एल-4076 - यह जाति 115-125 दिन में पककर तैयार होती है। इसकी औसत उपज 10-15 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर है। यह उकठा रोग निरोधक है। इसका दाना अपेक्षाकृत बड़े आकार का होता है। 100 दानों का वजन 3.0 ग्राम होता है। यह जाति प्रदेश के सभी क्षेत्रों के लिये उपयुक्‍त है।
4. जे.एल.-3 - मध्‍यम अवधि की नई विकसित यह किस्‍म 110-115 दिन में पकती है तथा 14-15 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर उपज देती है। इसका दाना मध्‍यम आकार का होता है। इसके 100 दानों का वजन लगभग 3.0 ग्राम होता है। यह जाति संपूर्ण विंध्‍य क्षेत्र के लिये उपयुक्‍त है।
5. आई.पी.एल.-18 (नूरी): यह किस्‍म 110-115 दिन में पकती है तथा औसत उत्‍पादन 12-14 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर है। मध्‍यम आकार के दानों वाली इस जाति का वजन 3.0 ग्राम है।
6. एल. 9-2: देरी से पकने वाली यह किस्‍म 135-140 दिन में पकती है। इसकी औसत उपज 8-10 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर है। इसके दाने छोटे आकार के होते हैं। यह जाति भिण्‍ड तथा ग्‍वालियर क्षेत्रों के लिये अधिक उपयुक्‍त है।

बीज की मात्रा एवं बोने की बिधि

छोट दानो वाले प्रभेदो के लिए एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में बुबाई के लिए 35-40 किलोग्राम बीच की जरूरत पड़ती है। जबकी बड़ेे दानों वालेे किस्मों के लिए 50-55 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। बुबाई के समय किस्मों के आधार पर कतार से कतार एवं पौधे से पौधे की दूरी क्रमशः 25 से0मी0 ग् 10 से0मी रखनी चाहिए।

बीजोपचार

प्रारम्भिक अवस्था के रोगों से बचाने के लिए बुवाई से पहले मसूर के बीजों को सही उपचार करना जरूरी होता है। इसके लिए ट्राइकोडर्मा विरीडी 5 ग्राम प्रति किलों बीज या कार्बेन्डाजिन 2.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। बीजोपचार में सबसे पहले कवकनाशी तत्पश्चात् कीटनाशी एवं सबसे बाद में राजोबियम कल्चर से उपचारित करने का क्रम अनिवार्य होता है।

उर्वरकों का प्रयोग

मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही उर्वरकों का प्रयोग आवश्यतानुसार करना चाहिए। सामान्य परिस्थिति में 20 किलो नेत्रजन, 40 किलोग्राम स्फूर एवं 20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर उपयोग करना चाहिए। प्रायः असिंचित क्षेत्रों में स्फूर की उपलब्धता घट जाती है। इसके लिए पी एस बी का भी प्रयोग कर सकते है। 4 किलो पी एस बी (जैविक उर्वरक) को 50 किलोग्राम कम्पोस्ट में मिलाकर खेतों मंे बुवाई पूर्व व्यवहार करें। जिन क्षेत्रों में जिंक एवं बोरान की कमी पाई जाती है उन खेतों में 25-30 किलोग्राम जिंक सल्फेट एवं 10 किलोग्राम बोरेक्स पाउडर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के समय प्रयोग करना चाहिए।

सिंचाई

जिन खेतों के नमी कमी पाई जाती है वहा एक सिंचाई (बुबाई के 45 दिन बाद) अधिक लाभकारी होती है। खेतों में पानी का जमाव नहीं होना चाहिए। इससे फसल प्रभावित हो जाती है। प्रायः टाल क्षेत्रों में सिंचाई की आवश्यकता नही पड़ती है।

खरपतवार नियत्रण

मसूर के खेत में प्रायः मोथा, दूब, बथुआ, मिसिया, आक्टा वनप्याजी, बनगाजर आदि खरपतवार का प्रकोप ज्यादा होता है। इसके नियत्रण के लिए 2 लीटर फ्लूक्लोरिन को 600-700 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जूताई के बाद छिटकर मिला दे अथवा पेण्डीमेथीलीन एक किलोग्राम को 1000 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के 48 घंटे के अन्दर छिड़काव करना चाहिए।

फसल सुरक्षा प्रबंधन

रोग प्रबंधनः

मसूर के प्रमुख रोग उकठा, ब्लाइट, बिल्ट एवं ग्रे मोल्ड है। इससे बचाने के लिए फसलों में मेंकोजेब 2 ग्राम लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।

कीट प्रबंधन –


  मसूर के पौधे के उगने के बाद फसल को हमेशा निगरानी रखनी चाहिए जिससे कीड़े का आक्रमण होने पर उचित प्रबंध तकनीक अपनाकर फसल को नुकसान से बचाया जा सके। कजरा पिल्लू, कटवर्म, सूड़ी तथा एफिड कीड़ों को प्रकोप मसूर के पौधे पर ज्यादा होता है।

कीट नियंत्रण

5 लीटर देशी गाय का मठा लेकर उसमे 15 चने के बराबर हींग पीसकर घोल दें , इस घोल को बीजों पर डालकर भिगो दें तथा 2 घंटे तक रखा रहने दें उसके बाद बोवाई करें . यह 1 एकड़ घोल की बोवनी के बीजों के लिए पर्याप्त है .
5 देशी गाय के गौमूत्र में बीज भिगोकर उनकी बोवाई करें , ओगरा और दीमक से पौधा सुरक्षित रहेगा लीटर . इन कीटो को आर्थिक क्षतिस्तर से नीचे रखने के लिए बुवाई के 25-30 दिन बाद एजैडिरैक्टीन (नीम तेल) 0.03 प्रतिशत 2.5-3.0 मि0ली0 प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए।

कटाई एंव भण्डारण


जब 80 प्रतिशत फलिया पक जाऐ तो कटाई करके झड़ाई कर लेना चाहिए। भण्डारण से पूर्ण दानों को अच्छी तरह से सुखा लेना याहिए। अगर किसान लोग उन्नत विधि से मसूर की खेती करे तो लगभग 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त कर सकते है।

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