गन्ना की खेती (Farming of sugarcane)
ईंख की व्यावसायिक खेती गुड़ बनाने
एवं इसका रस पीने के लिए की जाती है। ईंख एक नकदी फसल है, इसे एक वर्ष रोपकर दो खूँटी
फसल के साथ लगातार तीन वर्षों तक उपज लिया जा सकता है। झारखण्ड राज्य के करीब 500 हेक्टेयर
में गन्ना की खेती होती है। प्रमुख जिलों जैसे राँची, गुमला, गोड्डा, गढ़वा, कोडरमा,
लोहरदगा आदि में इसकी खेती ज्यादातर की जाती है।
मिट्टी एवं खेत की तैयारीः ईंख
की खेती लगभग सभी प्रकार की मिट्टियों में की जाती है परन्तु दोमट मिट्टी तथा ऊँची
या मध्यम जमीन, जहाँ जल निकास की अच्छी व्यवस्था हो अधिक उपयुक्त है। ईंख की जड़े मिट्टी
में काफी गहराई तक जाती है इसके लिए खेत की गहरी जुताई आवश्यक है। साधारणतया दो जुताई
मिट्टी पलटने वाले हल या ट्रैक्टर से करनी चाहिए। उसके बाद देशी हल से जुताई कर पाटा
चला देना चाहिए जिससे मिट्टी भुरभुरी होकर उसमें अच्छा वायु संचार हो जाय।
रोपाई का समयः
रोपाई का समय तापमान पर निर्भर
करता है, इसके लिए औसत तापक्रम 24 डिग्री से 32 डिग्री सेल्सियस उपयुक्त पाया जाता
है। इस आधार पर दो मौसमों यानी शरदकालीन में 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक एवं बसंतकालीन
में 15 फरवरी से 15 मार्च तक इसकी बुवाई की जाती है। शरदकालीन रोपाई में ईख की उपज
बसंतकालीन रोप की तुलना में करीब 20 प्रतिशत अधिक होती है।
अनुशंसित प्रभेद:
अनुशंसित प्रभेद की ही बुवाई
करनी चाहिए जिसकी उपज क्षमता अच्छी हो, एवं उसमें रस की प्रचूर मात्रा के साथ-साथ खूटी
फसल भी ली जा सके। BO 147 एक मुख्यकालीन प्रभेद है जिसे विश्वविद्यालय ने अनुसंधान
के बाद अनुशंसित किया है। यह 12 महीने में तैयार हो जाती है, इसकी उपज क्षमता एवं रस
में सुक्रोज की मात्रा अधिक है।
कुछ उन्नत प्रभेद:
जलदी पकने वाली किस्में
बी.ओ. 90: यह एक मध्य मोटाई एवं जल्दी पकने वाली लाल विगलन रोग रोधी
तथा 850 क्विं हे.उपज देने वाली प्रजाति है। इसमें शर्करा की मात्रा 11 प्रतिशत है।
सी.ओ.पी.-2: इस प्रजाति में ज्यादा कल्ले निकलतें हैं। यह लाल विगलन रोधी
हैं तथा उपज क्षमता 600 क्विंटल/ हेक्टेयर। इसमें शर्करा की मात्रा 11 प्रतिशत है।
मध्यम तथा देर से पकने वाली किस्में
बी.ओ. 70: लाल विगलन रोग रोधी । उपज क्षमता 1100 क्विंटल/ हेक्टेयर।
दिसम्बर के अंतिम सप्ताह में कटने योगय तैयार हो जाती है। इसमें शर्करा की मात्रा
11 प्रतिशत।
बी.ओ. 90: मध्यम मोटाई, हरा रंग, लम्बा व अधिक कल्ले पैदा करने वाली
प्रजाति ।रोग रोधी उपज क्षमता 1100 क्विंटल/ हेक्टेयर। शर्करा की मात्रा 10.7 प्रतिशत।
सी.ओ.पी.-1: जलमग्न अवस्था के लिये उपयुक्त, अधिक कल्ले देने वाली, उपज
क्षमता 600 क्विंटल/ हेक्टेयर।
बी.ओ.-1: जलमग्न अवस्था के लिये उपयुक्त, अधिक कल्ले देने वाली, उपज
क्षमता 1100 क्विंटल/ हेक्टेयर। पेड़ी के के लिये उपयुक्त।
बी.ओ.-88: लाल विगलन रोग रोधी । अधिक कल्ले देने वाली, उपज क्षमता
1000 क्विंटल/ हेक्टेयर। शर्करा की मात्रा 10.7 प्रतिशत होती है।
सी.ओ. 1158 : लाल विगलन रोग रोधी । उपज क्षमता 950 क्विंटल/ हेक्टेयर।
अधिक कल्ले, सी.ओ. 1148 औसत शर्करा की मात्रा 10.3 प्रतिशत होती है।
बीज का चुनाव:
ऐसे बीज का चुनाव करें जिसकी
आँख स्वस्थ हो एवं रोग कीट रहित हो। दस महीने की फसल बीज के लिए उपयुक्त होती है। जहाँ
तक संभव हो पौधे के उपरी दो-तिहाई हिस्से को ही बीज के रूप में लेना चाहिए एवं कोशिश
यह करनी चाहिए कि खूटी फसल से बीज नहीं लें।
रोपाई का समय:
शरदकालीन गन्ना – अक्टूबर
बसन्तकालीन गन्ना – फरवरी
गन्ने की फसल की बोआई में गन्ना के
तीन आँख वाला टुकड़ा अच्छा रहता है। बीज टुकड़ों को कवक आदि से बचाने के लिये 1 ग्राम
थिरम व 1 ग्राम बैविस्टीन प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर दो घंटो के लिये डुबो दिया
जाता है। बीज टुकड़ों को विषाणु मुक्त करने के लिये 540 से.ग्रे. तापमान वाले
पानी में 2 घंटे उपचारित करना आवश्यक है।
बीज की मात्राः
करीब 40,000 से 45,000 तीन आँखों
वाले गुल्ले एक हेक्टर के लिए उपयुक्त है, जो करीब 60 क्विंटल गन्ने से प्राप्त होते
हैं।
रोपनी की दूरी :
पंक्ति से पंक्ति की दूरी
90 सेन्टी मीटर तक रखते हैं एवं बीज को 30 सें.मी. की गहराई पर डालते हैं।
बीजोपचार:
बीज (गुल्लों) को 0.2% कार्बेन्डाजिम
(दो ग्राम प्रति लीटर पानी में) आधा घंटा तक डुबोकर उपचारित करना चाहिए। दीमक,जड़ छेदक
एवं धड़ छेदक के रोकथाम के लिए क्लोरपाईरीफास 20 EC का 3 मिली लीटर प्रति लीटर पानी
में घोल बनाकर 500 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से नालियों में बिछाई गई गेड़ियों पर
छिड़काव कर मिट्टी से ढक दें।
रोपाई की विधिः
ईंख रोप की दो अनुशंसित विधियाँ
है : सिराउर विधि तथा ट्रेंच विधि।
सिराउर विधि में 90 सें.मी. की दूरी पर खोले गये
सिराउर (Furrow) के अनुशंसित खाद की मात्रा डालकर देसी हल से मिट्टी में मिला दें एवं
उपचारित गुल्लियों को आँख से आँख मिलाकर बिछा देना चाहिए। उसके बाद शीघ्र ही सिराउर
को ढ़क कर पाटा चला देना चाहिए। ट्रेंच विधि में भी 90 सें.मी. की दूरी पर रीजर द्वारा
सिराउर खोला जाता है। इसके बाद कुदाली से 30 सें.मी. चौड़ी तथा 30 सें.मी. गहरी ट्रेंच
या नाली बनाई जाती है एवं गुल्लियों को बिछा कर ढक दी जाती है।
खाद एवं उर्वरक:
10 टन कम्पोस्ट या सड़े हुए
गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में एक माह पहले डालकर अच्छी तरह मिला दें।
रासायनिक खाद यानि नाइट्रोजन, फॉस्फोरस की क्रमशः 170 किलो, 85 किलो एवं 60 किलो मात्रा
प्रति हेक्टेयर डालनी चाहिए। रोपाई के समय फॉस्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा डाल देनी
चाहिए। नाइट्रोजन की बची मात्रा को दो बराबर भागों में बाँटकर देना चाहिए। पहली टॉपड्रेसिंग
60 किलो नेत्रजन शरदकालीन गन्ने में बुवाई के दो महीने बाद तथा बंसत कालीन गन्ने में
बुआई के 45 दिनों बाद करनी चाहिये। टॉपड्रेसिंग से पहले खरपतवार निकालकर पहले सिचाई
करें फिर उसके दो दिन बाद यूरिया द्वारा टॉपड्रेसिंग करें। दूसरी टॉपड्रेसिंग (60 किलो
नेत्रजन) जून माह के दूसरे पखवाड़े में वर्षांत के बाद खरपतवार निकालकर यूरिया द्वारा
टॉपड्रेसिंग करें तथा मिट्टी चढ़ा दें।
निराई-गुड़ाई:
साधारणतया ईंख में दो कमौनी,
एक 45-50 दिनों के बाद एवं दूसरा 65-70 दिनों के बाद फसल के लिए उपयुक्त है। खरपतवार
नष्ट करने के लिए रसायन एट्राजीन का ढाई से 3 किलो ग्राम 800 लीटर पानी में घोलकर प्रति
हेक्टेयर की दर से रोपाई के तीन दिनों के अन्दर छिड़काव करना चाहिए। पुनः 60 दिनों
के बाद 2-4D तृण नाशक दवा 1.25 किलो ग्राम 800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से
काफी लाभ मिलता है। इसके अतिरिक्त मई के मध्य में एक गुड़ाई से खरपतवार नियंत्रण रहता
है।
सिंचाई:
रोपाई के लगभग 25 दिनों के बाद
सिंचाई करें एवं 20 दिनों के अन्तराल पर बराबर पानी डालें। शरदकालीन रोप में 6-7 सिंचाई
एवं बसंतकालीन में 4-5 सिंचाई की आवश्यकता मानसून के पहले तक होती है।
मिट्टी चढ़ाना:
मानसून की पहली वर्षा में यूरिया
का टॉपड्रेसिंग कर मिट्टी चढ़ा दी जाती है एवं बरसात का पानी निकलने की नाली बना दी
जाती है।
सूखी पत्तियों को हटानाः सूखी
पत्तियों को पाँचवे से सातवें महीने में धीरे से पौधे से अलग कर देना चाहिए।
स्तम्भनः
फसल को बरसात के दिनों में तेज
हवा एवं आँधी के कारण गिरने से बचाने के लिए अगस्त से मध्य सितम्बर तक पत्ती रस्सी
विधि से स्तम्भन कर दें। इसके लिए ईख की आमने- सामने की पत्तियों को एक दूसरे तक झुकाकर
उसी की कुछ सूखी एवं पत्तियों से बाँध दें।
पौधा संरक्षण:
स्वस्थ बीज एवं रोगरोधी प्रभेद
को ही लगावें। रोग का सर्वेक्षण खड़ी फसल में करते रहना चाहिए। यदि कोई झुड़, लालसड़न
या कलिका रोग से ग्रसित दिखें तो शुरू में ही सावधानी से उखाड़कर नष्ट कर दें। लाल
सड़न रोग में रोगी तने के गूदे लाल रंग के हो जाते हैं। पत्तियों की मध्य शिराओं में
भी लाल धब्बे बनते हैं।
कीट:
कीटों में शीर्ष छेदक, पायरीला
तथा श्वेत मक्खी आदि का प्रकोप ईंख फसल पर पाया जाता है। कल्ला, मूल एवं शीर्ष छिद्रक
के प्रकोप के कारण बीच की पत्तियाँ सूख जाती है जिसे पिहका कहते हैं। निजात के लिए
इमिडाक्लोप्रीड तरल (17.8%) या मोनोक्रोटोफाँस (368% तरल) या मिथाईल डिमेटान (25
EC) का एक मिली लीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर पहला छिड़काव जून के अंतिम सप्ताह में
तथा दूसरा अगस्त के प्रथम सप्ताह में अवश्य कर दें जिससे सभी कीटों का नियंत्रण हो
जायेगा।
कटाई:
मुख्यतया 12 महीनों में फसल
तैयार हो जाती है। मुख्यकालीन प्रभेदो की कटाई 15 जनवरी से करें।
खूटी :
मुख्य फसल की कटाई के सप्ताह
भर के अन्दर खूटियों को तेज धार वाले यंत्र से काट देना चाहिए। मेड़ों को तोड़ देना
चाहिए, इस प्रकिया से खूटी में कल्ले स्वस्थ तथा एक साथ निकलते हैं। खेत की खाली जगहों
को अंकुरित टुकड़ों की रोपाई से भर देना चाहिए एवं उर्वरक का उपयोग करना चाहिए।
उपज:
शरद रोप से करीब 100 टन एवं
वसंत रोप से 75 टन प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती
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