Tuesday 24 October 2017

ग्वारपाठा की खेती

ग्वारपाठा की खेती (Farming of aloevera)


https://smartkhet.blogspot.com/2017/10/Farming-of-aloevera.html



ग्वारपाठा, घृतकुमारी या एलोवेरा जिसका वानस्पतिक नाम एलोवेरा बारबन्डसिस हैं तथा लिलिऐसी परिवार का सदस्य है। इसका उत्पत्ति स्थान उत्तरी अफ्रीका माना जाता है। एलोवेरा को विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है, हिन्दी में ग्वारपाठा, घृतकुमारी, घीकुंवार, संस्कृत में कुमारी, अंग्रेजी में एलोय कहा जाता है। एलोवेरा में कई औषधीय गुण पाये जाते हैं, जो विभिन्न प्रकार की बीमारियों के उपचार में आयुर्वेदिक एंव युनानी पद्धति में प्रयोग किया जाता है जैसे पेट के कीड़ों, पेट दर्द, वात विकार, चर्म रोग, जलने पर, नेत्र रोग, चेहरे की चमक बढ़ाने वाली त्वचा क्रीम, शेम्पू एवं सौन्दर्य प्रसाधन तथा सामान्य शक्तिवर्धक टॉनिक के रूप में उपयोगी है। इसके औषधीय गुणों के कारण इसे बगीचों में तथा घर के आस पास लगाया जाता है। पहले इस पौधे का उत्पादन व्यावसायिक रूप से नहीं किया जाता था तथा यह खेतों की मेढ़ में नदी किनारे अपने आप ही उग जाता है। परन्तु अब इसकी बढ़ती मांग के कारण कृषक व्यावसायिक रूप से इसकी खेती को अपना रहे हैं, तथा समुचित लाभ प्राप्त कर रहे हैं।

एलोवेरा के पौधे की सामान्य उंचाई 60-90 सेमी. होती है। इसके पत्तों की लंबाई 30-45 सेमी. तथा चौड़ाई 2.5 से 7.5 सेमी. और मोटाई 1.25 सेमी. के लगभग होती है। एलोवेरा में जड़ के ऊपर जो तना होता है उसके उपर से पत्ते निकलते हैं, शुरूआत में पत्ते सफेद रंग के होते हैं। एलोवेरा के पत्ते आगे से नुकीले एवं किनारों पर कटीले होते हैं। पौधे के बीचो बीच एक दण्ड पर लाल पुष्प लगते हैं। हमारे देश में कई स्थानों पर एलोवेरा की अलग- अलग प्रजातियां पाई जाती हैं। जिसका उपयोग कई प्रकार के रोगों के उपचार के लिये किया जाता है। इसकी खेती से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए किसान भाई निम्न बातें ध्यान में रखे:-

जलवायु एवं मृदा

यह उष्ण तथा समशीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। कम वर्षा तथा अधिक तापमान वाले क्षेत्रों में भी इसकी खेती की जा सकती है। इसकी खेती किसी भी प्रकार की भूमि में की जा सकती है। इसे चट्टानी, पथरीली, रेतीली भूमि में भी उगाया जा सकता है, किन्तु जलमग्न भूमि में नहीं उगाया जा सकता है। बलुई दोमट भूमि जिसका पी.एच. मान 6.5 से 8.0 के मध्य हो तथा उचित जल निकास की व्यवस्था हो उपयुक्त होती है।

खेत की तैयारी

ग्रीष्मकाल में अच्छी तरह से खेत को तैयार करके जल निकास की नालियां बना लेना चाहिये तथा वर्षा ऋतु में उपयुक्त नमी की अवस्था में इसके पौधें को 50 & 50 सेमी. की दूरी पर मेढ़ अथवा समतल खेत में लगाया जाता है। कम उर्वर भूमि में पौधों के बीच की दूरी को 40 सेमी. रख सकते हैं। जिससे प्रति हेक्टेयर पौधों की संख्या लगभग 40,000 से 50,000 की आवश्यकता होती है। इसकी रोपाई जून-जुलाई माह में की जाती है। परन्तु सिंचित दशा में इसकी रोपाई फरवरी में भी की जा सकती है।

निराई - गुडाई

प्रारंभिक अवस्था में इसकी बढ़वार की गति धीमी होती है। अत: प्रारंभिक तीन माह तक में 2-3 निंदाई गुड़ाई की आवश्यकता होती है। क्योंंकि इस काल मे विभिन्न खरपतवार तेजी से वृद्धि कर ऐलोवेरा की वृद्धि एवं विकास पर विपरीत असर डालते हैं। 8 माह के बाद पौधे पर मिट्टी चढ़ाएं जिससे वे गिरे नहीं ।

खाद एवं उर्वरक

सामान्यतया एलोवेरा की फसल को विशेष खाद अथवा उर्वरक की आवश्यकता नहीं होती है। परन्तु अच्छी बढ़वार एवं उपज के लिए 10-15 टन अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद को अंतिम जुताई के समय खेत में डालकर मिला देना चाहिए । इसके अलावा 50 किग्रा. नत्रजन, 25 किग्रा. फास्फोरस एवं 25 किग्रा. पोटाश तत्व देना चाहिये । जिसमे से नत्रजन की आधी मात्रा एवं फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी रोपाई के समय तथा शेष नत्रजन की मात्रा 2 माह पश्चात् दो भागों में देना चाहिए अथवा नत्रजन की शेष मात्रा को दो बार छिड़काव भी कर सकते हैं।

सिंचाई

एलोवेरा असिंचित दशा में उगाया जा सकता है। परन्तु सिंचित अवस्था में उपज में काफी वृद्धि होती है। ग्रीष्मकाल में 20-25 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करना उचित रहता है। सिंचाई जल की बचत करके एवं अधिक उपयोग करने के लिये स्प्रिंकलर या ड्रिप विधि का उपयोग कर सकते हैं।

पौध संरक्षण

इस फसल में साधारणतया कोई कीड़े अथवा रोग का प्रकोप नहीं होता है। परन्तु भूमिगत तनों व जड़ों को ग्रब नुकसान पहुंचाते हैं। जिसकी रोकथाम के लिये 60-70 किलोग्राम नीम की खली प्रति हेक्टर के अनुसार दें अथवा 20-25 किग्रा. क्लोरोपायरीफॉस डस्ट प्रति हेक्टर का भुरकाव करें । वर्षा ऋतु में तनों एवं पत्तियों पर सडऩ एवं धब्बे पाये जाते हैं, जो फफूंदजनित रोग है। जिसके उपचार के लिये मेन्कोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना उपयुक्त रहता है।

अंतरवर्तीय फसल

एलोवेरा की खेती अन्य फल वृक्ष औषधीय वृक्ष या वन में रोपित पेड़ों के बीच में सफलतापूर्वक की जा सकती है।

कटाई एवं उपज

इस फसल की उत्पादन क्षमता बहुत अधिक हैं फसल की रोपाई के बाद एक वर्ष के बाद पत्तियां काटने लायक हो जाती है। इसके बाद दो माह के अन्तराल से परिपक्व पत्तियों को काटते रहना चाहिए। सिंचित क्षेत्र मे प्रथम वर्ष में 35-40 टन प्रति हेक्टर उत्पादन होता है। तथा द्वितीय वर्ष में उत्पादन 10-15 फीसदी तक बढ़ जाता है। उचित देखरेख एवं समुचित पोषक प्रबंधन के आधार पर इससे लगातार तीन वर्षों तक उपज ली जा सकती है। असिंचित अवस्था में लगभग 20 टन प्रति हेक्टर उत्पादन मिल जाता है।

प्रवर्धन विधि एवं रोपाई

इसका प्रवर्धन वानस्पतिक विधि से होता है। व्यस्क पौधों के बगल से निकलने वाले चार पांच पत्तियों युक्त छोटे पौधे उपयुक्त होते हैं, प्रारंभ में ये पौधे सफेद रंग के होते हैं, तथा बड़े होने पर हरे रंग के हो जाते हैं। इन स्टोलन/सर्कस को मातृ पौधे से अलग करके नर्सरी या सीधे खेत में रोपित करते हैं।

Sunday 22 October 2017

मूंग की उन्नत खेती

मूंग की उन्नत खेती (Advanced cultivation of Moong)


https://smartkhet.blogspot.com/2017/10/Advanced-cultivation-of-Moong.html             mong seeds plant photos



मूंग भारत में उगायी जाने वाली, कम समय मे पकने वाली, महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। इन फसल में वातावर्णीय नाइट्रोजन को पौधों द्वारा ग्रहण करने योग्य बनाने की अदभुत क्षमता होती हैं। जिससे पौधों को कम उर्वरक की आवश्यकता पड़ती है, और उत्पादन लागत कम हो जाती है।
इनकी खेती लगभग सभी राज्यों मे की जाती है। परन्तु महाराष्ट, आन्ध्र प्रदेश,  उत्तर प्रदेश , राजस्थान, मध्य प्रदेश तमिलनाडु तथा उड़ीसा, मूंग तथा उड़द उत्पादन के प्रमुख राज्य हैं।

मूंग की खेती के लि‍ए भूमि की तैयारी

मूंग की खेती के लिए दोमट एवं बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम होती है। भूमि में उचित जल निकासी की उचित व्यवस्था होनी चहिये। पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल या डिस्क हैरो चलाकर करनी चाहिए तथा फिर एक क्रॉस जुताई हैरो से एवं एक जुताई कल्टीवेटर से कर पाटा लगाकर भूमि समतल कर देनी चाहिए।

मूंग की  बीज की बुवाई

मूंग की बुवाई 15 जुलाई तक कर देनी चाहिए।  देरी से वर्षा होने पर शीघ्र पकने वाली किस्म की वुबाई 30 जुलाई तक की जा सकती है। स्वस्थ एवं अच्छी गुणवता वाला तथा उपचरित बीज बुवाई के काम लेने चाहिए। वुबाई कतरों में करनी चाहिए। कतरों के बीच दूरी 45 से.मी. तथा पौधों से पौधों की दूरी 10 से.मी. उचित है।

मूंग फसल में खाद एवं उर्वरक

दलहन फसल होने के कारण मूंग को कम नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है। मूंग के लिए 20 किलो नाइट्रोजन तथा 40  किलो फास्फोरस प्रति हैक्टेयर की आवश्कता होती है। नाइट्रोजन एवं फास्पोरस की मात्रा 87 किलो ग्राम डी.ए.पी. एवं 10 किलो ग्राम यूरिया के द्वारा  बुवाई के समय देनी चाहिए। मूंग की खेती हेतु खेत में दो तीन वर्षों में कम एक बार  5 से 10 टन गोबर या कम्पोस्ट खाद देनी चाहिए। इसके अतिरिक्त 600 ग्राम राइज़ोबियम कल्चर को एक लीटर पानी में 250 ग्राम गुड़ के साथ गर्म कर ठंडा होने पर बीज को उपचारित कर छाया में सुखा लेना चाहिए तथा बुवाई कर देनी चाहिए। खाद एवं उर्वरकों के प्रयोग से पहले मिटटी की जाँच कर लेनी चहिये।

मूंग में खरपतवार नियंत्रण

फसल की बुवाई के एक या दो दिन पश्चात तक पेन्डीमेथलिन (स्टोम्प )की बाजार में उपलब्ध 3.30 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करना चाहिए फसल जब 25 30 दिन की हो जाये तो एक गुड़ाई कस्सी से कर देनी चहिये या  इमेंजीथाइपर(परसूट) की 750 मी. ली . मात्रा प्रति हेक्टयर की दर से पानी में घोल बनाकर छिड़काव कर देना चाहिए।

मूंग फसल के रोग तथा किट नियंत्रण

दीमक :

 दीमक फसल के पौधों की जड़ो को खाकर नुकसान पहुंचती है। बुवाई से पहले अंतिम जुताई के समय खेत में क्यूनालफोस 1.5 प्रतिशत या क्लोरोपैरिफॉस पॉउडर की 20-25 किलो ग्राम मात्रा प्रति हेक्टयर की दर से मिटटी में मिला देनी चाहिए  बोनेके समय बीज को क्लोरोपैरिफॉस कीटनाशक की 2 मि.ली. मात्रा को प्रति किलो ग्राम बीज दर से उपचरित कर बोना चाहिए। 

कातरा:


 कातरा का प्रकोप बिशेष रूप से दलहनी फसलों में बहुत होता है। इस किट की लट पौधों को आरम्भिक अवस्था में काटकर बहुत नुकसान पहुंचती है। इसके  नियंत्रण हेतु खेत के आस पास कचरा नहीं होना चाहिये। कतरे की लटों पर क्यूनालफोस 1.5  प्रतिशत पॉउडर की 20-25 किलो ग्राम मात्रा प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव कर देना चाहिये। 

मोयला,सफ़ेद मक्खी एवं हरा तेला:


 ये सभी कीट मूंग की फसल को बहुत नुकसान पहुँचाते हैंI इनकी रोकथाम के किये मोनोक्रोटोफास 36 डब्ल्यू ए.सी या  मिथाइल डिमेटान 25 ई.सी. 1.25 लीटर को प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए आवश्यकतानुसार दोबारा चिकाव किया जा सकता है।

पती बीटल:

 इस कीट के नियंत्रण के लिए क्यूंनफास 1.5 प्रतिशत पॉउडर की 20-25 किलो ग्राम का प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव कर देना चाहिए ।

फली छेदक:


 फली छेदक को नियंत्रित  करने के लिए मोनोक्रोटोफास आधा लीटर या मैलाथियोन या क्युनालफ़ांस 1.5 प्रतिशत पॉउडर की 20-25 किलो हेक्टयर की दर से छिड़काव /भुरकाव करनी चहिये। आवश्यकता होने पर 15 दिन के अंदर दोबारा छिड़काव /भुरकाव  किया जा सकता है।

रस चूसक कीड़े :


 मूंग की पतियों ,तनो एवं फलियों का रस चूसकर अनेक प्रकार के कीड़े फसल को हानि पहुंचाते हैं। इन कीड़ों की रोकथाम हेतु एमिडाक्लोप्रिड 200 एस एल का 500 मी.ली. मात्रा का प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। आवश्कता होने पर दूसरा छिड़काव 15  दिन  के अंतराल पर करें ।

चीती जीवाणु रोग :


 इस रोग के लक्षण पत्तियों,तने एवं फलियों पर छोटे गहरे भूरे धब्बे  के रूप में दिखाई देते है । इस रोग की रोकथाम हेतु एग्रीमाइसीन 200 ग्रामया स्टेप्टोसाईक्लीन 50 ग्राम को 500 लीटर में घोल बनाकर प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करना चाहिए ।

पीत शिरा मोजेक:


 इस रोग के लक्षण फसल की पतियों पर एक महीने के अंतर्गत दिखाई देने लगते हैI फैले हुए पीले धब्बो के रूप  में रोग दिखाई देता हैI यह रोग एक मक्खी के कारण फैलता है। इसके नियंत्रण हेतु मिथाइल दिमेटान 0.25 प्रतिशत व मैलाथियोन 0.1प्रतिशत मात्रा को मिलकर प्रति हेक्टयर की दर से 10 दिनों के अंतराल पर घोल बनाकर छिड़काव करना काफी प्रभावी  होता है।  

तना झुलसा रोग:


 इस रोग की रोकथाम हेतु 2 ग्राम मैकोजेब से प्रति किलो बीज दर से उपचारित करके बुवाई करनी चहिये बुवाई के 30-35 दिन बाद 2 किलो मैकोजेब प्रति हेक्टयर की दर से 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चहिये ।

पीलिया रोग :


 इस रोग के कारण फसल की पत्तियों में पीलापन दिखाई देता है। इस रोग के नियंत्रण हेतू गंधक का तेजाब या 0.5 प्रतिशत फैरस सल्फेट का छिड़काव करना चहिये। 

सरकोस्पोरा  पती धब्बा :


 इस रोग के कारण पौधों के ऊपर छोटे गोल बैगनी लाल रंग के धब्बे दिखाई देते हैं । पौधों की पत्तियां,जड़ें व अन्य भाग भी सुखने लगते हैं। इस के नियंत्रण हेतु कार्बेन्डाजिम की1ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चहिये बीज को 3 ग्राम केप्टान या २ ग्राम कार्बेंडोजिम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर बोना चाइये ।

किंकल विषाणु रोग:


  इस रोग के कारण पोधे की पत्तियां सिकुड़ कर इकट्ठी हो जाती है तथा पौधो पर फलियां बहुत ही कम बनती हैं। इसकी रोकथाम हेतु डाइमिथोएट 30 ई.सी. आधा लीटर अथवा मिथाइल डीमेंटन 25 ई.सी.750 मि.ली.प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करना चाहिए । ज़रूरत पड़ने पर 15 दिन बाद दोबारा छिड़काव करना चहिये ।

जीवाणु पती धब्बा, फफुंदी पती धब्बा  और विषाणु रोग :


 इन रोगो की रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम १ ग्राम , सरेप्टोसाइलिन की 0.1 ग्राम एवं मिथाइल डेमेटान  25 ई .सी.की एक मिली.मात्रा को प्रति लीटर पानी में एक साथ मिलाकर पर्णीय छिड़काव करना चहिये ।

फसल चक्र

अच्छी पैदावार प्राप्त करने एवं भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने हेतु उचित फसल चक्र आवश्यक है । वर्षा आधारित खेती के लिए मूंग -बाजरा तथा सिंचित क्षेत्रों में मूंग-गेहू/जीरा/सरसो फसल चक्र अपनाना चहिये ।

बीज उत्पादन

मूंग के बीज उत्पादन हेतु ऐसे खेत चुनने चहिये जिनमें पिछले मौसम में मूंग अन्हिं उगाया गया हो। मूंग के लिए निकटवर्ती खेतो से संदुषण को रोकने के लिए फसल के चारो तरफ 10 मीटर की दुरी तक मूंग का दूसराखेत नहीं होना चहिये ।
भूमि की अच्छी तैयारी,उचित खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग ,खरपत वार, कीड़े एवं विमारियों के नियंत्रण के साथ साथ समय समय पर अवांछनीय पौधों को निकालते रहना चहिय तथा फसल पकने पर लाटे को अलग सुखाकर दाना निकाल कर ग्रेडिंग कर लेना चहिये। बीज को साफ करके उपचारित कर सूखे स्थान में रख देना चाहिये। इस प्रकार पैदा किये गये बीज को अगले वर्ष बुवाई के लिए प्रयोग किया जा सकता है ।

कटाई एवं गहाई

मूंग की फलियों जब काली परने लगे तथा सुख जाये तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए  अधिक सूखने पर फलियों चिटकने का डर रहता है। फलियों से बीज को थ्रेसर द्वारा या डंडे द्वारा अलग कर लिए जाता है ।

मूंग की किस्में 

Pusa 1371
पुसा 1371 को नॉर्थ हिल जोन के राज्यों की बारिश की स्थिति के लिए अधिसूचित किया गया है: (त्रिपुरा, मणिपुर, जम्मू और कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में एक राज्य शामिल है) ने एमएनवीवी, रूट सड़ांध, वेब फॉल और एंथ्राकनोज में कई प्रतिरोध दिखाए हैं। पुसा 1371 की औसत प्रोटीन सामग्री 24.06% है जो चेक के बराबर है। पुसा 1371 में बुवाई के 46 दिन बाद 50% फूल दिखाई देता है, यह 87 दिनों में परिपक्व होता है और 100 बीज वजन 3.26 ग्राम होता है।
Pusa Vishal
(पूसा विशाल)
औसत उपज 12-14 क्विं / हेक्टेयर है, यह एक समय की परिपक्वता के साथ लघु अवधि की विविधता है। सर्दियों में परिपक्व अवधि 65-70 दिन और संक्षिप्त सत्र में 60-65 दिन होती है। बीज बोल्ड और हरे रंग की हरे रंग के साथ 100 बीज वजन 4.5-5.8 ग्राम हैं। यह मूंग पीले मोज़ेक वायरस के लिए सहिष्णु है। पंजाब हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चावल-गेहूँ-मुंगबीन और मक्का-आलू / सरसों-मूँगिन फसल सिस्टम के लिए उपयुक्त.
Pusa 9531
परिपक्वता अवधि 60-65 दिनों के साथ लघु अवधि की विविधता की विविधता। वसंत / समर सीजन में खेती के लिए उपयुक्त। 4 से 4.4 ग्राम के साथ बोल्ड होते हैं 100 बीज wt, बीज रंग चमकदार हरी औसत बीज उपज 12-13 क्विंटल / हे। पंजाब हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चावल-गेहूं-मूँग्वन और मक्का-आलू / सरसों-मूँगिन फसल सिस्टम के लिए उपयुक्त है।
पूसा रत्‍ना (पूसा-9972)
Pusa Ratna
यह दिल्‍ली राज्‍य के क्षेत्रों में खरीफ ऋतु में बुआई के लिए उपयुक्‍त प्रजाति हैं। इसकी फलिया एक साथ पकने वाली 65 से 70 दिन में पक कर तैयार हो जाती हैं। दाने बडे आकार के हरे चमकदार होते हैं। यह पीले विषाणू रोग की सहिष्‍णु है। दानों की औसत उपज 12 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर तथा उत्‍पादन क्षमता 16 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर है।
के 851
(K-851)
यह सभी क्षेत्रों के लि‍ए उपयुक्‍त है। उत्‍पादन क्षमता 8-9 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर है तथा फसल पकने मे 75 दि‍न का समय लगता है।
आशा
(Asha)
हरि‍याणा के लि‍ए उपयुक्‍त किस्म, उत्‍पादन क्षमता 10-14 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर तथा फसल पकने मे 70-80 दि‍न का समय लेती है।
एम एल 613
(M.L.-613)
यह पंजाब के लि‍ए उपयुक्‍त किस्म है। उत्‍पादन क्षमता 13-23 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर है तथा फसल पकने मे 84 दि‍न का समय लगता है।
हम-2
(HUM-2)
यह उत्‍तरी क्षेत्र, पूर्व-पश्‍चि‍मी मैदानी क्षेत्रों के लि‍ए उपयुक्‍त किस्म है। उत्‍पादन क्षमता 11-12 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर है तथा फसल पकने मे 65 दि‍न का समय लगता है।
हम-8
(HUM-8)
यह पूर्व-पश्‍चि‍मी मैदानी क्षेत्रों के लि‍ए उपयुक्‍त किस्म है। उत्‍पादन क्षमता 11-12 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर है तथा फसल पकने मे 66 दि‍न का समय लगता है।
पी डी एम 139
(PDM-139)
यह उत्‍तर प्रदेश के लि‍ए उपयुक्‍त किस्म है। उत्‍पादन क्षमता 11-12 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर है तथा फसल पकने मे 60 से 65 दि‍न का समय लगता है।
एस एम एल 668
(SML-668)
यह पंजाब के लि‍ए उपयुक्‍त किस्म है। उत्‍पादन क्षमता 10-11 क्विंटल प्रति हैक्‍टेअर है तथा फसल पकने मे 60 दि‍न का समय लगता है।



Monday 2 October 2017

भारत में फूलगोभी की अगेती खेती

भारत में फूलगोभी की अगेती खेती (Early cultivation of cauliflower in India)


https://smartkhet.blogspot.com/2017/10/Farming-of-cauliflower.html



फूलगोभी की खेती पूरे वर्ष में की जाती है। इसको सब्जी, सूप और आचार के रूप में प्रयोग करते है। इसमे विटामिन बी पर्याप्त मात्रा के साथ-साथ प्रोटीन भी अन्य सब्जियों के तुलना में अधिक पायी जाती है फूलगोभी के लिए ठंडी और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है यदि दिन अपेक्षाकृत छोटे हों तो फूल की बढ़ोत्तरी अधिक होती है
फूल तैयार होने के समय तापमान अधिक होने से फूल पत्तेदार और पीले रंग के हो जाते है अगेती जातियों के लिए अधिक तापमान और बड़े दिनों की आवश्यकता होती है फूल गोभी को गर्म दशाओं में उगाने से सब्जी का स्वाद तीखा हो जाता है | फूलगोभी की खेती प्राय: जुलाई से शुरू होकर अप्रैल तक होती है

फूलगोभी की खेती के लि‍ए भूमि:-

जिस भूमि का पी.एच. मान 5.5 से 7 के मध्य हो वह भूमि फूल गोभी के लिए उपयुक्त मानी गई है अगेती फसल के लिए अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी तथा पिछेती के लिए दोमट या चिकनी मिट्टी उपयुक्त रहती है साधारणतया फूल गोभी की खेती बिभिन्न प्रकार की भूमियों में की जा सकती है
 भूमि जिसमे पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद उपलब्ध हो इसकी खेती के लिए अच्छी होती है हलकी रचना वाली भूमि में पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद डालकर इसकी खेती की जा सकती है

खेत की तयारी:-

पहले खेत को पलेवा करें जब भूमि जुताई योग्य हो जाए तब उसकी जुताई 2 बार मिटटी पलटने वाले हल से करें इसके बाद 2 बार कल्टीवेटर चलाएँ और प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं |

फूलगोभी की उन्नत किस्मे:-
अगेती (तापमन 20-27 डिग्री सेंटी.)
मध्यम (तापमन 12-16 डिग्री सेंटी.)
पछेती (तापमन 10-16 डिग्री सेंटी.)
पूसा दिपाली
पूसा हाइब्रिड 2
पूसा स्नोबाल 1
पूसा कार्तिक
 इम्प्रूव जापानी
पूसा स्नोबाल 2
पूसा अर्ली सेन्थेटिक
पंत शुभ्रा
पूसा स्नोबाल – के 1
पूसा कार्तिक संकर
पूसा शरद
पूसा स्नोबाल 16
पूसा मेघना
पंत गोभि -4

अर्का कांती
पूसा सेन्थेटिक

काशि कुवारी
पूसा हिम ज्योति


हिसार 1

फूलगोभी की बुआई के लि‍ए बीज दर:-
फूल गोभी
बुवाई का समय
बीज दर  (ग्राम / हेक्टेयर)

पोध एव पंक्ति की दुरी (सेंटी मीटर)
अगेती फसल
मई जून
500-600
45 x 45
मध्यकालीन
जुलाई अगस्त

350-400
50 x 50
पछेती
अक्टूम्बर नवम्बर
350-400
60 x 60


पौधशाला या नर्सरी:-


इसका बीज बारीक़ होता है अत: पहले उन्हें भली-भांति तैयार कि गई पौधशाला में बोया जाता है ताकि थोड़े समय में उसकी पौध तैयार हो सके पौधशाला में 1 मीटर चौड़ी और 3 मीटर लम्बी क्यारियां बनाएं और दो क्यारियों के मध्य 30 से. मी. नाली बनाएं
क्यारियां बनाने से पूर्व उनमे पर्याप्त मात्रा में गोबर कि खाद या कम्पोस्ट खाद डाल दें फिर उसे मिटटी से भली-भांति मिला दें बीज को बुवाई से पहले 2 से 3 ग्राम कैप्टन प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारीत कर लेना चाहिए। फिर क्यारियां मे बुवाई करे।
जब पौधे निकल आएं तब क्यारियों के मध्य बनी नालियों से सिचाई करें तेज धुप और अधिक वर्षा से पौधों को बचाने के लिए उस पर छप्पर का प्रबंध करें 4-5 सप्ताह बाद पौध रोपाई के लिए तैयार हो जाएगी |

खाद एवं उर्वरक:-

फूल गोभी कि अधिक उपज लेने के लिए भूमि में पर्याप्त मात्रा में खाद डालना अत्यंत आवश्यक है मुख्य मौसम कि फसल को अपेक्षाकृत अधिक पोषक तत्वों कि आवश्यकता होती है इसके लिए एक हे. भूमि में 35-40 क्विंटल गोबर कि अच्छे तरीके से सड़ी हुई खाद एवं 1 कु. नीम की खली डालते है रोपाई के 15 दिनों के बाद वर्मी वाश का प्रयोग किया जाता है 
रासायनिक खाद का प्रयोग करना हो 120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस तथा 60 किलोग्राम पोटाश तत्व के रूप में प्रयोग करना चाहिए

सिचाई:-

रोपाई के तुरंत बाद सिचाई करें अगेती फसल में बाद में एक सप्ताह के अंतर से, देर वाली फसल में 10-15 दिन के अंतर से सिचाई करें यह ध्यान रहे कि फूल निर्माण के समय भूमि में नमी कि कमी नहीं होनी चाहिए |

खरपतवार नियंत्रण:-

फूल गोभी कि फसल के साथ उगे खरपतवारों कि रोकथाम के लिए आवश्यकता अनुसार निराई- गुड़ाई करते रहे चूँकि फूलगोभी उथली जड़ वाली फसल है इसलिए उसकी निराई- गुड़ाई ज्यादा गहरी न करें और खरपतवार को उखाड़ कर नष्ट कर दें |

फूल गोभी में कीट नियंत्रण:-

कटुवा इल्ली:-

 यह गोभी के छोटे पौधों को रात्रि के समय बहुत नुकसान पहुचाते है। इस कीट की सुंडीयां स्लेटी रंग की चिकनी होती है। व्यस्क शलभ गहरे भूरे रंग के होते है एंव सुंडीयाँ आर्थिक नुकसान पहुँचाती है। इस कीट से लगभग 40 प्रतिशत तक नुकसान हो जाता है।

नियंत्रण:-

 प्रकाश प्रपंच का प्रयोग व्यस्क शलभों को पकडने के लिए करना चाहिए। खेत में जगह-जगह अनुपयोगी पतियों का ढेर लगा कर इनमें शरण ली सूडियों को आसानी से नष्ट किया जा सकता है। खेत के चारों ओर 20-25 से.मी. गहरी चौडी नाली खोद देनी चाहिए ताकी सूंडिया गिरकर एकत्र हो जायेगी और सुबह इन्हे आसानी से नष्ट किया जा सकता है। फोरेट (10 जी) की 10 कि.ग्रा मात्रा प्रति हैक्टेयर के हिसाब से बुवार्इ के साथ प्रयोग करें।

माहू:-

 यह छोटे आकर के हरे पीले पंखदार व पंखविहीन कीट होते है। इस कीट के शिशु एवं व्यस्क दोनों ही पतितयों से रस चूसते है। जिससे पतितयाँ पीली पड़ जाती है। उपज का बाजार मूल्य कम हो जाता है। माहो अपने शरीर से मधु रस उत्सर्जित करते है जिस पर काली फफं;दी विकसित हो जाती है जिससे पौधों पर जगह जगह काले धब्बे दिखार्इ देतें है। इस कीट से लगभग 20-25 प्रतिशत तक नुकसान हो जाता है।

नियंत्रण:-

 परभक्षी कीट लेडी बर्ड बीटल (काक्सीनेला स्पी.) को बढावा दें। मैलाथियान 5 प्रतिशत या कार्बेरिल 10 प्रतिशत चुर्ण का 20 से 25 किलो ग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव करे या मिथाइल डिमेटान (25 र्इ.सी.) या डार्इमिथोएट (30 र्इ.सी.) 1.5 मि.ली. प्रति ली. पानी में घोल कर छिडकाव करना चाहिए।

हीरक पृष्ठ पतंगा (डाइमंड बैक मौथ):-

 दुनियाभर में इस कीट से गोभीवर्गीय सब्जियों को अत्यधिक नुकसान हो रहा है। इस कीट की इल्लियां पीलापन लिये हुये हरे रंग की और शरीर का अगला भाग भूरे रंग का होता है एवं व्यस्क, घूसर रंग का होता है । जब यह बैठता है तो इसके पृष्ट भाग पर 3 हीरे की तहर चमकीले चिन्ह दिखार्इ देते है। इसी वजह से इसे हीरक पृष्ट पंतगा कहते है। नुकसान पहुँचाने का काम इल्लियां करती है। जो पत्तियों की निचली सतह को खाती है और उनमें छोटे छोटे छिद्र बना देती है। अधिक प्रकोप होने पर छोटे पौधे मर जाते है। बडे़ पौधो पर फूल छोटे आकार के लगते है। इस कीट से लगभग 50-60 प्रतिशत तक नुकसान हो जाता है।

नियंत्रण:-

 हीरक पृष्ठ शलभ के रोकथाम के लिये बोल्ड सरसों को गोभी के प्रत्येक 25 कतारों के बाद 2 कतारों में लगाना चाहिये। डीपेल 8 एल. या पादान (50 र्इ.सी.) का 1000 मि.ली. की दर से प्रति हेक्टेयर छिडकाव करें। स्पाइनोशेड़ (25 एस. सी.) 1.5 मि.ली.ली. या थायोडार्इकार्ब 1.5 गा्र.ली. की दर से या बेसिलस थूरीजेंसिस कुस्टकी (बी.टी.के.) 2 गा्र.ली. के दर से 500 ग्राम प्रति हैक्टेयर के दो छिड़काव करें। छिडकाव रोपण के 25 दिन व दूसरा इसके 15 दिन बाद करे।

तंबाकु की इल्ली:-

 इस कीट के पतंगे गहरे भूरे रंग के व आगे के पंखों पर सफेद धारीया होती है। जिसके बीच में काले धब्बे पाये जाते है। यह पतगें रात को बहुत सक्रिय होते है। प्रांरभिक अवस्था में सुंडीयाँ हरे रंग की होती है। जो पत्तों को खुरच कर खाती है। बडी अवस्था में सुडियाँ पत्तों को गोल- गोल काट कर खाती है। गोभी के शीर्षो और गाँठों में यह सुडियाँ ऊपर से घुसकर नुकसान करती है। मादा व्यस्क पतितयों की निचली सतह में समूह मे अण्ड देती है। इस कीट से लगभग 30-40 प्रतिशत तक नुकसान हो जाता है।

नियंत्रण:-

 अण्डे के समूहों को एकत्र कर नष्ट करना चाहिये। न्यूक्लियर पालीहाइडोसिस वायरस 250 एल. र्इ.हेक्टेयर की छिडकाव करें। मेलाथियान 2 मि.ली. प्रति लीटर या स्पाइानेशेड 25 एस. सी. को 15 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हैक्टेयर की दर से 10-15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करना चाहिए।

अर्धकुंडलक कीट (सेमीलूँपर):-

 यह बहुभक्षी कीट है यह चलते समय अर्धकुंडलाकार रचना बनाते है। इस कीट की इलिलयां हरे रंग की होती है एवं शरीर पर सफेद रंग की धारियां होती है। इल्लियां पतितयों को खा जाती है परिणाम स्वरूप केवल शिराएँ ही रह जाती है। इस कीट के आक्रमण से लगभग 30-60 प्रतिशत उपज में कमी आ जाती है।

नियंत्रण:-

 प्रारभिक अवस्था में सुडीयाँ समूह में रहती है। अत: इन्हे पतितयो समेत नष्ट कर देना चाहिए। प्रकाश प्रपंच का प्रयोग व्यस्क शलभो को पकडने के लिए करना चाहिए। मेलाथियान (50 र्इ.सी.) को 1.5 मि.ली. प्रति ली. की दर से पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।

गोभी की तितली:-

 यह मध्यम आकार की पीलापन लिए हुए सफेद रंग की होती है और बाद में वृद्वि होने पर यह हरापन लिए पीले रंग की हो जाती है। तितली की इल्लियां शीर्ष पत्तियों को खाकर नुकसान पहुँचाती है। अधिक प्रकोप होने पर पत्तियों की सिर्फ शिराएँ रह जाती है।

नियंत्रण:-

 प्रतिरोधी किस्मे लगानी चाहिए जैसे बन्दगोभी में र्इ.सी. 24856 एवं सेवाय बेस्ट आल। मेलाथियान (50 र्इ.सी.) को 1.5 मि.ली. प्रति ली. की दर से पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।

सरसों की आरा मक्खी:-

 यह कीट मध्यम आकार की मक्खी की तरह व्यस्क होता हैं इसका शरीर नारंगी, सिर काला व पंख स्लेटी रंग के होते है। मादा अपने आरीनुमा अंड निक्षेपक से पतितयों के किनारे चीर कर अंडे देती है। इस कीट की ग्रब अवस्था हानिकारक होती है। भंृगक पतितयाँ खाते हैं और अधिक प्रकोप होने पर सिर्फ शिराएँ रह जाती है। भृंगक फूल के शीर्ष, भीतरी भाग या फिर डंठलों के बीच के भाग को खाकर, उसमें अपशिष्ट पदार्थ छोडने पर जीवाणु आक्रमण करते है।

नियंत्रण:-

 सुबह के समय इलिलयों को हाथ से पकडकर नष्ट करें। मेलाथियान (50 र्इ.सी.) को 1.5 मि.ली. प्रति ली. की दर से पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।

प्रमुख व्याधियाँ एव प्रबंधन:-

आद्र गलन रोग:-

 इस रोग का प्रकोप गोभी में नर्सरी अवस्था में होता है। इसमे जमीन की सतह वाले तने का भाग काला पडकर गल जाता है। और छोटे पोधे गिरकर मरने लगते हैं।

नियंत्रण:-

 बुआर्इ से पूर्व बीजों को 3 ग्राम थाइरम या 3 ग्राम केप्टान या बाविसिटन प्रति किलों बीज की दर से उपचारित कर बोयें। नर्सरी, आसपास की भूमि से 6 से 8 इंच उठी हुर्इ भूमि में बनावें। मृदा उपचार के लिये नर्सरी में बुवार्इ से पूर्व थाइरम या कैप्टान या बाविस्टिन का 0.2 से 0.5 प्रतिषत सांद्रता का घोल मृदा मे सींचा जाता है जिसे ड्रेंचिंग कहते है। रोग के लक्षण प्रकट होने पर बोडों मिश्रण 5:5:50 या कापर आक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कार छिडकाव करें।

भूरी गलन या लाल सड़न:-

 यह रोग बोरान तत्व की कमी के कारण होता है। गोभी के फूलों पर गोल आकार के भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते है। और फूल को सडा देते है।

नियंत्रण:-

 रोपार्इ से पूर्व खेत में 10 से 15 किलो बोरेक्स प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव करना चाहिए या फसल पर 0.2 से 0.3 प्रतिशत बोरेक्स के घोल का छिड़काव करना चाहिए।

तना सड़न (स्टाक राट):-

 रोग की प्रारंभिक अवस्था में दिन के समय पौधे की पतितया लटक जाती है। और रात्रि में पुन: स्वस्थ दिखार्इ देती है। तने के निचले भाग पर मृदा तल के समीप जल सिक्त धब्बे दिखार्इ देते है। धीरे-धीरे रोगग्रसित भाग पर सफेद कवक दिखार्इ देने लगती है व तना सडने लग जाता है। इसे सफेद सड़न भी कहते है।

नियंत्रण:-

 बाविस्टीन 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। डायथेन एम-45, 2.0 ग्राम व बाविस्टिन 1 ग्राम को मिलाकर 15 दिन के अन्तराल पर जब फूल बनना प्रारभ हो 3 छिड़काव करें।

काला सड़न रोग:-

 इस बीमारी के लक्षण सर्वप्रथम पत्तियों के किनारो पर 'वी आकार में हरिमाहीन एवं पानी में भीगे जैसे दिखार्इ देते है। तथा पत्तियों की शिराएँ काली दिखार्इ देती है। उग्रावस्था में यह रोग गोभी के अन्य भागों पर भी दिखार्इ देता है। जिससे फूल के डंठल अन्दर से काले होकर सडनें लगते हैं।

नियंत्रण:-

 बीजों को बुंवार्इ से पूर्व स्टेप्टोसाइक्लिन 250 मि.ग्रा. या एवं बाविस्टिन 1 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल में 2 घंटे उपचारित कर छाया में सुखाकर बुवार्इ करें। पौध रोपण से पूर्व जडों को स्टे्रप्टोसाइकिलन एंव बाविसिटन के घोल में 1 घटें तक डूबाकर लगावें तथा फसल में रोग के लक्षण दिखने पर उपरोक्त दवाओं का छिड़काव करना चाहिए।

मुलायम/ नरम सडन (साफ्ट राट):-

 यह रोग पौधे की विभिन्न अवस्थाओं में दिखार्इ देता है। यह मुख्य रूप सें काला सड़न रोग के बाद या फूल पर चोट लगने पर अधिक होता है।

नियंत्रण:-

 रोगग्रसित फूलों को तोडकर नष्ट कर देना चाहिए, स्ट्रेप्टोसाइक्लिन 200 मि.ग्रा. व कापर आक्सीक्लोराइड 2 ग्राम प्रति ली. पानी में मिलाकर 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए।

झुलसा रोग या अल्टनेरिया पानी धब्बा रोग:-

 इस रोग से पत्तियों पर गोल आकार के छोटे से बडे़ भूरे धब्बे बन जाते है। और उनमें छल्लेनुमा धारियाँ बनती है। अन्त में धब्बे काले रंग के हो जाते है।

नियंत्रण:-

 मेंकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करे।

काला धब्बा (ब्लेक स्पाट):-

 यह कवक जनित रोग है। प्रारंभ में छोटे काले धब्बे पतितयों पर व तने पर दिखाइ देते है। जो बाद में फूल को भी ग्रसित कर देते है।

नियंत्रण:-

 डायथेन एम 45 के 3 छिड़काव 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से 15 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए।

मृदुरोमिल (डाउनी मिल्डयू):-

 यह रोग पोधे की सभी अवस्थाओं में आता है व काफी नुकसान करता है। इसमें पत्तियो की निचली सतह पर हल्के बैंगनी से भूरे रंग के धब्बे दिखार्इ देते है।

नियंत्रण:-

 रिडोमिल एम. जेड.-72 एक ग्राम प्रति लीटर की दर से या डायथेन एम.- 45, 2.0 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर 10 से 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करें।

जड गांठ (रूट नाट):-

 इस रोग से पौधों की जडा़ में गोलकृमि के सक्रंमण से गांठे पड जाती है। जिससे पौधे की वृद्वि रूक जाती हैं पत्तियो पर झुर्रियाँ पड़ जाती है। तथा पत्तियाँ पीली व जडे़ मोटी दिखार्इ देती है। जिससे पौधों पर फल कम संख्या में तथा छोटे लगते है।

नियंत्रण:-

 मर्इ-जून में खेत की गहरी जुतार्इ कर दें। फसल चक्र अपनाना चाहिए। मेंड़ के चारो तरफ गेंदा के पौधे लगाना चाहिए। बुवार्इ से पूर्व खेत में 25 किवंटल नीम की खाद प्रति हैक्टेयर डालकर मिलाना चाहिए व एल्डीकार्ब 60-65 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से पौधे रोपने के पूर्व खेत में मिला देनी चाहिए।

कटाई:-

फूल गोभी कि कटाई तब करें जब उसके फूल पूर्ण रूप से विक़सित हो जाएँ फूल ठोस और आकर्षक होना चाहिए जाति के अनुसार रोपाई के बाद अगेती 60-70 दिन, मध्यम कटाई
फूल गोभी कि कटाई तब करें जब उसके फूल पूर्ण रूप से विक़सित हो जाएँ फूल ठोस और आकर्षक होना चाहिए

जाति के अनुसार रोपाई के बाद अगेती 60-70 दिन, मध्यम 90-100 दिन , पछेती 110-180 दिन में कटाई के लिए तैयार हो जाती है |

उपज:-

यह प्रति हे. 200-250 क्विंटल तक उपज मिल जाती है |

भण्डारण:-

फूलों में पत्तियां लगे रहने पर 85-90 % आद्रता के साथ 14.22 डिग्री सेल्सियस तापमान पर उन्हें एक महीने तक रखा जा सकता है ||

फूलगोभी में दैहिक या कायि‍क वि‍कार:-

ब्राउन स्पोट:-

क्षारीय और अधिक अम्लीय भूमि में पत्तियां और फूल पीले पड़ जाते है पुरानी पत्तियों का नीचे कि ओर मुड़ जाना और तनों का खोखला हो जाता है इसकी रोकथाम के लिए भू-पावर या माइक्रो फर्टी सिटी कम्पोस्ट या माइक्रो गोल्ड उपयोग करें |

बटनिंग या बोल्टिंग:-

फूलों के पकने से पूर्व फूल छोटे रहकर फटने लगते है और पौधे का विकास भी सामान्य नहीं होता अगेति जातियों को देर से बोने पर यह भी कमी उत्पन्न हो जाती है इसका मुख्य कारण नाइट्रोजन का अभाव है |
इसकी रोकथाम के लिए माइक्रो झाइम का या माइक्रो भू-पावर का छिडकाव करें |

व्हिप टेल:-


अम्लीय भूमि में पौधों कि मोलिबडिनम पर्याप्त न मिलने के कारण पत्र दल का उचित विकास न होकर केवल मध्य शिरा का ही विकास होता है इसकी रोकथाम के लिए भू-पावर,माइक्रो फर्टी , माइक्रो गोल्ड का इस्तेमाल करें |

वैज्ञानिक विधि से भिंडी की खेती कैसे करें

वैज्ञानिक विधि से भिंडी की खेती कैसे करें (How to grow ladyfinger by scientific method)


https://smartkhet.blogspot.com/2017/10/farming-of-bhindi.html         , Bhindi (ladyfinger) plant photos



भिंडी एक महत्वपूर्ण फल वाली उष्ण भागों और शीतोष्ण प्रदेश्‍ो के गर्म स्‍थानों पर उगाया जाने वाली सब्जि है। इसकी फसल उन स्‍थानों पर प्रमुखता से उगाई जा सकती है जहां दिन का तापमान 25-40 ड़िग्री सेग़्रे क़े बीच मे रहता है तथा रात्रि का तापमान 22 ड़िग्री सेग़्रे से नीचे नहीं आता है। भिंडी को इसके हरे, मुलायम स्वादिष्ट फलों के लिए उगाया जाता है।

भारत में मुख्य रूप से भिंडी की दो फसलें ली जाती है, एक गर्मी में व दूसरी बरसात के मौसम में पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी एक ही फसल ली जाती है। जिसकी बुवाई मार्च-अप्रेल में की जाती है। ग्रीष्मकालीन भिंडी की फसल लेने के कुछ अतिरिक्त फायदे है, इस मौसम में आमतौर पर दूसरी सब्जियां कम उपलब्ध होने के कारण बाजार मूल्य अच्छा मिलता है तथा दूसरा इस मौसम मे मोजेक रोग का प्रकोप बहुत ही कम होता है अत: इस मौसम में भिंडी की वे किस्मे भी बो सकते है जो कि मोजेक के प्रति सवेदनशील होती है। इस प्रकार ग्रीष्मकालीन भिंडी के उत्पादन की उन्नत तकनीकी को अपनाकर अधिक लाभ्‍ प्राप्त कर सकते है।

भिंडी के खेत का चयन व तैयारी:-

भिंडी की फसल को लगभग सभी प्रकार की भूमियों मे उगाया जा सकता है। लेकिन गर्मियों की फसल के लिए भारी दोमट मिटटी अधिक उपयुक्त रहती है। क्योकि इस भूमि मे नमी अधिक समय तक बनी रहती है। बरसात वाली फसल के लिए बलुई दोमट भूमि का चुनाव करना चाहिए जिसमें जल निकास अच्छा हो। खेत की एक बार मिटटी पलटने वाले हल से तथा तीन चार बार हैरो या देशी हल से जुताई करके मिटटी को भूरभूरा बनाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए। बुवाई के समय खेत में उपयुक्त नमी होनी अति आव5यक है, यदि भूमि में नमी की कमी हो तो खेत की तैयारी से पूर्व एक सिंचाई अवय कर लेनी चाहिए।

भिंडी की उन्नत किस्में:-

हमारे देश में भिंडी की बहुत सी उन्नत एवं रोग अवरोधी किस्मो का विकास किया गया है जिनमे से प्रमुख किस्मे इस प्रकार है।

पुसा सावनी:-

 यह किस्म पहले पीला मोजेक रोग के प्रति अवरोधी थी लेकिन अब यह सुग्र्राही बन चुकी है। यह एक अच्छी किस्म है और आज भी इसे उत्तर भारत के मेदानी क्षेत्रो में ग्रीष्म ऋतु में उगाया जाता है। जायद में बुवाई के 40-45 दिन बाद फूल व फल प्राप्त होने लगते है।

पूसा मखमली:-

 यह एक अगेती किस्म है। इसके फल मुलायम, सीधे हलके हरे रंग के, लम्बे नुकीले पतले होते है। ग्रीष्मकाल में उत्तरी भारत के मैदानों में अच्छी पैदावार देती है। इस किस्म की ओसत उपज 80-100 क्विटल प्रति हैक्टर हैं

पंजाब पदमनी:-

 यह किस्म उत्तर भारत के मैदानी क्षैत्रो में ग्रीष्म तथा बरसात दोनों मौसम में उगाने के लिए उपयुक्त है। यह किस्म पीला मोजेक रोग के प्रति अवरोधी है तथा इस पर जैसिड और कपास कीट का प्रकोप कम होता है इसकी औसत उपज 100-125 क्विटल प्रति हैक्टर होती है।

परभनी क्रांति:-

 यह किस्म पीला मोजेक रोग प्रतिरोधी है। इस किस्म में बुवाई के 40 - 45 दिन बाद फूल आना प्ररम्भ हो जाता है इसकी औसत उपज ग्रीष्म ऋतु में 85 - 90 क्विंटल प्रति हैक्टर तथा बरसात में 120 -130 क्विंटल प्रति हैक्टर पायी गयी है।

पंजाब-7:-

 यह पीला मोजेक रोग प्रतिरोधी किस्म है ग्रीष्म ऋतु में इसकी उपज 50 क्विंटल प्रति हैक्टर तथा बरसात के मौसम में 95 क्विंटल प्रति हैक्टर पायी गयी है।

अर्का अनामिका:-

 यह एक पीला मोजेक रोग प्रतिरोधी किस्म है इस किस्म में बुवाई के 45 दिन बाद फल आना प्रारम्भ होता है तथा पहली तुडाई 55 दिन में की जा सकती है। यह एक अच्छी पैदावार देने वाली किस्म है। जिसके हरे फलों की उपज 115 क्विटल प्रति हैक्टर होती है।

भिंडी की बुवाई का समय:-

जायद वाली फसल की बुवाई फरवरी के द्वितीय सप्ताह से मार्च के अन्त तक की जा सकती है।

भिंडी की बीज दर:-

जायद के मौसम में अंकुरण कम होने के कारण अधिक बीज की आवश्‍यकता होती है। अत: एक हैक्टयेर के लिए 18 - 20 किग़्रा बीज की आवश्‍यकता होती है।

भिंडी के लि‍ए भूमि उपचार:-

खेत की तैयारी के समय अन्तिम जुताई के साथ कटुआ कीट के नियंत्रण के लिए भूमि मे दानेदार फयूराडान 25 किग़्रा अथवा थिमेट (10 जी) 10-15 किग़्रा प्रति हैक्टर की दर से मिला लेना चाहिए।

भिंडी बीज उपचार-

बुवाई के पहले बीज को 24 घंटे पानी मे भिगो लें तत्पश्‍चात बीजो को निकाल कर कपडे की थेली में बाधकर गर्म स्‍थान पर रख दे तथा अंकुरण होने लगे तभी बुवाई करें बीज जनित रोगों की रोकथाम के लिए बुवाई से पूर्व थायरम या कैप्टान (2 से 3 ग्राम दवा प्रति किग़्रा) से बीज को उपचारित कर लेना चाहिए।

भिंडी की बुवाई:-

गर्मी या जायद की फसल के लिए कतार से कता की दूरी 30 सेमी व पौधे से पौधे दूरी 15 सेमी रखना चाहिए। वर्षा ऋतु की फसल हेतु कतार की दूरी 45-60 सेमी व पौधे से पौधे की दूरी 30-45 सेमी रखना चाहिए।

भिंडी मे खाद व उर्वरक:-

खाद व उर्वरक की मात्रा भूमि में उपस्थित पौषक तत्वों की निर्भर करती है। 15 से 20 टन सडी गोबर की खाद प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई के 25 से 30 दिन पूर्व खेत मे मिला लेना चाहिए। इसके अतिरिक्त 40 किग्रा नत्रजन, 40 किग़्रा फ़ॉस्फोरस व 40 किग़्रा पोटाश्‍ा को प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई से पूर्व आखिरी जुताई के समय देना चाहिए तथा खडी फसल में 40 से 60 किग़्रा नत्रजन को दो बराबर भागो मे बांटकर पहली मात्रा बुवाई के 3-4 सप्ताह बाद पहली निराई गुडाई के समय तथा दूसरी मात्रा फसल में फूल बनने की अवस्था मे देना लाभप्रद है।

भिंडी मे सिंचाई:-

गर्मी के मौसम में आवश्यकतानुसार 6-7 दिनो के अन्तराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए अन्यथा नमी के अभाव में पौधे सूखने लगते है।

भिंडी मे निराई गुडाइ:-

फसल में 2-3 बार निराई गुडाई करके खरपतवारों को निकाल देना चाहिए। जिससे खरपतवार नियंत्रण के साथ भूमि मे वायु संचार भी ठीक रहेगा।

भिंडी मे फसल सुरक्षा-

पीला मौजेक:-

 ये रोग सफेद मक्खी द्वारा फेलाया जाता है। इसका प्रकोप होने पर पत्तियों की शिराएं पीली हो जाती है। बाद में फल सहित पूरा पौधा पीला हो जाता है सफेद मक्खी के नियंत्रण के लिए रोगार या मैटासिस्टाकस (01 प्रतिशत) का छिडकाव पौधे उगने के बाद से ही 10-12 दिन के अन्तराल पर करते रहना चाहिए।

चूर्णी फफूदी रोग:-

 रोगग्रस्त पौधों पर सफेद पाउडर जैसी हल्की पर्त जमा हो जाती है। पत्तियां पीली पड जाती है तथा धीरे धीरे गिरने लगती है। पौधों पर कैराथेन (006 प्रतिशत) का छिडकाव 10-15 दिन के अन्तराल पर दो से तीन बार करना चाहिए।

फल छेदक कीट:-

 यह कीट बढते हुए फलों में छेद करके फलों को हानि पहुंचाता है। इसका लार्वा फलों में छेद करता है पौधों पर थायोडान (02 प्रतिशत) का छिडकाव 10-12 दिन के अन्राल पर दो तीन बार करना लाभकारी होता है।

कटुआ कीट:-

 यह कीट पौधें के उगने के समय पौधे को नीचे से काट देता है, जिससे पौधा सूख जाता है इससे बचाव के लिए दानेदार फयूराडान 25 किग़्रा अथवा थिमेट (10 जी) 10 से 15 किग़्रा मात्रा प्रति हैक्टयेर की दर से खेत की तैयारी के समय मिटटी में मिला देना चाहिए।

फलो की तुडाई:-

इस फसल में तुडाई के समय का बहुत महत्व है। फल अधिक समय तक पौधों पर रहने या तुडाई मे देरी से फलों में रेश्‍ो की मात्रा बढ़ जाती है तथा फलों की कोमलता कम हो जाती है। जिससे फलों का स्वाद कम हो जाता है। अत: फलो को एक दिन के अन्तराल पर तुडाई करते रहना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण:-

खरपतवार नियंत्रण हेतु बेसालीन 25 लीटर रसायन को बुवाई के 4 दिन पूर्व या लासों 5 लीटर रसायन को बुवाई के बाद प्रति हैक्टेयर की दर से पानी में घोल बनाकर छिडकाव करना चाहिए।

उपज:-

वैज्ञानिक विधि से भिंडी की खेती करने से 100-120 क्विटल प्रति हैक्टर तक उपज प्राप्त की जा सकती है।