सतावर की खेती
सतावर (वानस्पतिक नाम: Asparagus
racemosus / ऐस्पेरेगस रेसीमोसस) लिलिएसी कुल का एक औषधीय गुणों वाला पादप है।
इसे 'शतावर', 'शतावरी', 'सतावरी', 'सतमूल' और 'सतमूली' के नाम से भी जाना जाता है।
यह भारत, श्री लंका तथा पूरे हिमालयी क्षेत्र में उगता है।
इसका पौधा अनेक शाखाओं से युक्त काँटेदार लता के रूप में एक मीटर से दो मीटर तक लम्बा
होता है। इसकी जड़ें गुच्छों के रूप में होतीं हैं। वर्तमान समय में इस पौधे पर लुप्त
होने का खतरा है।
एक और काँटे रहित जाति हिमलाय में
4 से 9 हजार फीट की ऊँचाई तक मिलती है, जिसे एस्पेरेगस फिलिसिनस नाम से जाना
जाता है।
यह 1 से 2 मीटर तक लंबी बेल होती है
जो हर तरह के जंगलों और मैदानी इलाकों में पाई जाती है।
आयुर्वेद में इसे
‘औषधियों की रानी’ माना जाता है। इसकी गांठ या कंद का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें
जो महत्वपूर्ण रासायनिक घटक पाए जाते हैं वे हैं ऐस्मेरेगेमीन ए नामक पॉलिसाइक्लिक
एल्कालॉइड, स्टेराइडल सैपोनिन, शैटेवैरोसाइड ए, शैटेवैरोसाइड बी, फिलियास्पैरोसाइड
सी और आइसोफ्लेवोंस। सतावर का इस्तेमाल दर्द कम करने, महिलाओं में स्तन्य (दूध) की
मात्रा बढ़ाने, मूत्र विसर्जनं के समय होने वाली जलन को कम करने और कामोत्तेजक के
रूप में किया जाता है।
इसकी जड़ तंत्रिका प्रणाली और पाचन तंत्र की बीमारियों के इलाज,
ट्यूमर, गले के संक्रमण, ब्रोंकाइटिस और कमजोरी में फायदेमंद होती है।
यह पौधा कम भूख
लगने व अनिद्रा की बीमारी में भी फायदेमंद है। अतिसक्रिय बच्चों और ऐसे लोगों को जिनका
वजन कम है, उन्हें भी ऐस्पैरेगस से फायदा होता है। इसे महिलाओं के लिए एक बढ़िया टॉनिक माना
जाता है।
इसका इस्तेमाल कामोत्तेजना की कमी और पुरुषों व महिलाओं में बांझपन को दूर
करने और रजोनिवृत्ति के लक्षणों के इलाज में भी होता है।
सतावर जड़ वाली एक औषधीय फसल है जिसकी
मांसल जड़ों का इस्तेमाल विभिन्न प्रकार की औषधियों के निर्माण में होता है। सतावर
को लोग भिन्न-भिन्न नाम से पुकारते हैं। अंग्रेज लोग इसे एस्पेरेगस कहते हैं। कहीं
इसे लोग शतमली तो कहीं शतवीर्या कहते हैं। सतावर कहीं वहुसुत्ता के नाम से विख्यात
है तो कहीं यह शतावरी के नाम से भी।
यह औषधीय फसल भारत के विभिन्न प्रांतों में प्राकृतिक
अवस्था में भी खूब पाई जाती है। विश्व में सतावर भारत के अतिरिक्त ऑस्ट्रेलिया, नेपाल,
चीन, बांग्लादेश तथा अफ्रीका में भी पाया जाता है। सतावर का प्रयोग मुख्य रूप
से औषधि के रूप में किया जाता है। इसका इस्तेमाल बलवर्धक, स्तनपान करने वाली महिलाओं
के लिए लाभकारी दवाइयों व शारीरिक स्फूर्ति बढ़ाने के लिए किया जाता है। इसके साथ-साथ
सतावर के नियमित सेवन से ल्युकोरिया व एनीमिया जैसी बीमारियों से बचा जा सकता है।
सतावर का वानस्पतिक विवरण
सतावर का पौधा झाड़ीदार, कांटेदार
लता होता है। इसकी शाखाएं पतली होती हैं। पत्तियां सुई के समान होती हैं जो
1.5-2.5 सेमी तक लम्बी होती हैं। इसके कांटे टेढ़े तथा 6-8 सेंमी लम्बे होते हैं। इसकी
शाखाएं चारों ओर फैली होती हैं। इसके फूल सफेद या गुलाबी रंग के सुगंधयुक्त, छोटे,
अनेक शाखाओं वाले डंठल पर लगते हैं जो फरवरी और मार्च में फूलते हैं। अप्रैल में फल
बढ़कर बड़े-बड़े हो जाते हैं। फल मटर के समान 1-2 बीज युक्त होते हैं। इसके बीज पकने
पर काले होते हैं। इसकी जड़े कन्दवत 20-30 सेंमी लम्बी, 1-2 सेंमी मोटी तथा गुच्छे
में पैदा होती हैं। जड़ों की संख्या प्रति लता में 60-100 तक होती है। ये जड़े धूसर
पीले रंग की हल्की सुगंधयुक्त स्वाद में कुछ मधुर तथा कड़वी लगती हैं। मांसल जड़ों
को आदिवासी लोग पूरे पकने पर चाव से खाते हैं। यह सूखने पर भी प्रयोग में लाई जाती
हैं। इन्हीं श्वेत जड़ों का प्रयोग चिकित्सा कार्य हेतु होता है। सूखी जड़े बाजार में
सतावर के नाम से बेची जाती है। जिसमें सतावरिन-1 तथा सतावरिन-4 में ग्लूकोसाइड रसायन
प्रमुख रूप से पाया जाता है। यही रसायन इसके औषधीय गुणों का स्रोत है।
कैसे करें खेती
सतावर की खेती के लिए मध्यम तापमान
अच्छा माना जाता है। खेती के लिए उचित तापमान 10 से 50 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए।
इसकी खेती के लिए जुलाई-अगस्त में 2-3 बार खेत की पहली जुताई कर लेनी चाहिए। इसमें
प्रति एकड़ के दर से 10 टन गोबर की खाद मिला देनी चाहिए। दूसरी जुताई नवंबर के शुरुआती
दिनों में होती है।
पौध की तैयारी
जोते गए खेत में 10 मीटर की क्यारियां
बनाकर इसमें 4 और 2 के अनुपात में मिट्टी व गोबर की खाद मिलाकर डालनी चाहिए। प्रति
एकड़ पांच किलोग्राम बीज की ज़रूरत होती है। अगस्त में ही क्यारियों में बीजों की बुआई
कर देनी चाहिए सतावर के बीजों की खरीद के बारे वीरेंद्र बताते हैं, ''यूं तो सतावर
की कई प्रजातियां पाई जाती हैं पर मुख्य रूप से दो प्रजातियों (पिली या नैपाली सतावर,
बेल या देसी सतावर) को बोया जाता है। इसके बीच निजी दुकानों व सीमैप से आसानी से मिल
जाते हैं।" एक हेक्टेयर के खेत में 3 से 4 किलो सतावर के बीज डाले जाते हैं। बाज़ार
में इसका मूल्य 1000 रुपए प्रति किलो के हिसाब से है।
सिंचाई
सतावर की खेती में ज़्यादा पानी की
ज़रुरत नहीं होती है। पौधे लगाने के एक सप्ताह के भीतर हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए।
यह सिंचाई पौधों के लिए पर्याप्त होती है। दूसरी हल्की सिंचाई पौधों के बड़े होने के
बाद करनी चाहिए।
सतावर की खेती में सही समय पर खुदाई
बेहद जरूरी होती है 'दूसरी सिंचाई के बाद जब पौध पीली पडऩे लगें तब इसकी रसदार जड़ों
की खुदाई कर लेनी चाहिए। इसी समय किसान दूसरी फसल के लिए खेत तैयार कर सकता है।"
निराई-गुड़ाई
सतावर के पौधों की जड़ों के
समुचित विकास के लिए खेत को खरपतवार रहित रखना तथा मिट्टी को भुरभुरी बनाए रखना अत्यंत
आवश्यक है। इसके लिए एक दो निराई-गुड़ाई आवश्यक है। निराई-गुड़ाई के दरम्यान पौधों
की जड़ों पर हल्की मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए।
खोदी जड़ों को सुखाना जरूरी
खोदकर निकाली गई रसदार जड़ों को साफ
कर अलग-अलग करके हल्की धूप में सुखने के लिए छोड़ देना चाहिए।
सतावर का बाज़ार
प्रति एकड़ के खेत में 300 से 350
क्विंटल गीली जड़ मिलती है जो सूखने के बाद 40 से 50 क्विंटल प्राप्त होती है
। वर्तमान समय में सतावर की जड़ 250 से 300 रुपए प्रति किलो के रेट पर बिकती है।
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