अलसी की खेती (farming of Linseed)
अलसी बहुमूल्य औद्योगिक तिलहन फसल
है। अलसी की खली दूध देने वाले जानवरों के लिये पशु आहार के रूप में उपयोग की जाती
है तथा खली में विभिन्न पौध पौषक तत्वो की उचित मात्रा होने के कारण इसका उपयोग खाद
के रूप में किया जाता है।
हमारे देश में अलसी की खेती लगभग 2.96 लाख हैक्टर क्षेत्र में होती है जो विश्व के
कुल क्षेत्रफल का 15 प्रतिशत है। अलसी क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का विश्व में द्वतीय
स्थान है, उत्पादन में तीसरा तथा उपज प्रति हेक्टेयर में आठवॉ स्थान रखता है। मध्यप्रदेश,
उत्तरपद्रेश, महाराष्ट्र, बिहार, राजस्थान व उड़ीसा अलसी के प्रमुख उत्पादक राज्य है।
मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश में देश की अलसी के कुल क्षेत्रफल का लगभग 60 प्रतिशत
भाग आच्छादित है।
अलसी को शुद्ध फसल मिश्रित फसल, सह फसल, पैरा या उतेरा फसल के रूप में उगाया जाता है।
देश में हुये अनुसंधान कार्य से यह सिद्ध करते है। कि अलसी की खेती उचित प्रबन्धन के
साथ की जाय तो उपज में लगभग 2 से 2.5 गनुी वृद्धि की संभव है। किसी तरह की परिस्थिति
आपके खेत की भी हो यानी सीमित सिंचाई तो उपलब्ध है, किंतु सुरक्षा (विशेषकर पशुओं से)
नहीं है तो इसके लिए सबसे उत्तम विकल्प अलसी की फसल है। अलसी के खेत को पशु चरकर नुकसान
नहीं करते, क्योंकि इसके पौधों के तने में सेल्यूलोज युक्त एक विशेष प्रकार का रेशा
पाया जाता है।
रेशे का उपयोग:-
यद्यपि इस रेशे का व्यावसायिक उपयोग
केनवास, बेग्स (झोले), दरी आसन आदि मोटे वस्त्र बनाने के लिए किया जाता है। रेशे को
'लिनेन फाइबर' कहा जाता है। इसे निकालने के बाद तने के जैविक पदार्थ से कागज की लुगदी
तैयार कर कागज बनाया जाता है।
अलसी के कम उत्पादकता के कारण:-
- · कम उपजाऊ भूमि पर खेती करना
- · असिंचित दशा अथवा वर्षा आधारित स्थिति मे।खेती करना
- · उतेरा पद्धति से खेती करना
- · स्थानीय किस्मो का प्रचलन व उच्च उत्पादन देने वाली किस्मों का अभाव
- · असंतुलित एवं कम मात्रा मे उर्वरको उपयोग
- · कीट बीमारियो हेतु उचित पौध संरक्षण के उपायों को न अपनाना।
जलवायु:-
अलसी की फसल को ठंडे व शुष्क जलवायु की आवश्यकता
पड़ती है। अतः अलसी भारत वर्ष में अधिकतर रबी मौसम में जहां वार्षिक वर्षा 45-50 सेटीमीटर
प्राप्त होती है वहां इसकी खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। अलसी के उचित अंकुरण हतेु
25-30 डिग्री से.ग्रे. तापमान तथा बीज बनते समय तापमान 15-20 डिग्री से.ग्रे. होना
चाहिए। अलसी के वृद्धि काल में भारी वर्षा व बादल छाये रहना बहुत ही हानिकारक साबित
होते हैं। परिपक्वन अवस्था पर उच्च तापमान, कम नमी तथा शुष्क वातावरण की आवश्यकता होती
है।
भूमि का चुनाव:-
अलसी की फसल के लिये काली भारी एवं दामेट (मटियार)
मिटि्टयॉ उपयुक्त होती हैं। अधिक उपजाऊ मदृाओं की अपेक्षा मध्यम उपजाऊ मृदायें अच्छी
समझी जाती हैं। भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध होना चाहिए। आधुनिक संकल्पना के अनुसार
उचित जल एवं उर्वरक व्यवस्था करने पर किसी भी प्रकार की मिट्टी में अलसी की खेती सफलता
पूर्वक की जा सकती है।
खेत की तैयारी:-
बीज के अंकुरण और उचित पौध वृद्धि
के लिए आवश्यक है कि बुआई से पूर्व भूमि को अच्छी प्रकार से तैयार कर लिया जाए। धान
की फसल कटाई पश्चात् बतर आने पर खेत की मिट्टी पलटने वाले हल से एक बार जोतने
के पश्चात् 2-3 बार देशी 2-3 बार देशी या हैरो चलाकर भूमि तैयार की जाती है। जुताई
के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए जिससे भूमि में नमी संचित हो सके। उतेरा
बोनी हेतु धान के खेतों में समय-समय पर खरपतवार निकालकर खेतों को इनसे साफ रखना चाहिये।
उन्नत किस्में:-
अलसी की देशी किस्मों की उपज
क्षमता कम होती है क्योंकि इन पर कीट तथा रोगों का प्रकोप अधिक होता है। अतः अधिकतम
उपज लेने के लिए देशी किस्मों के स्थान पर उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज का उपयोग
करना चाहिए। क्षेत्र विशेष के लिए जारी की गई किस्मो को उसी क्षेत्र में
उगाया जाना चाहिए, अन्यथा जलवायु संबंधी अंतर होने के कारण भरपूर उपज नहीं मिल सकेगी
।
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा
विकसित अलसी की नवीन उन्नत किस्मो की विशेषताएं
1. दीपिका:-
इस किस्म की पकने की अवधि 112 -
115 दिन, औसत उपज 12 - 13 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा बीज में तेल का अंश 42 % होता
है। अनुमोदित उर्वरक देने पर 20.44 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज देती है। इसके बीज
मध्यम आकार (1000 दानों का भार 6.2 ग्राम) के होते हैं। यह अर्द्ध-सिंचित व उतेरा खेती
के लिए उपयुक्त है। यह किस्म म्लानि (विल्ट) और रतुआ (रस्ट) रोगों के प्रति मध्यम प्रतिरोधक
है।
2. इंदिरा अलसी- 32:-
यह 100 - 105 दिन में पकने वाली किस्म
है जिससे 10 - 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। बीज हल्के कत्थई के
मध्यम आकार (100 दानों का भार 6.5 ग्राम) के होते हैं। इसके बीज में तेल की अंश
39.3 % होता है। यह चूर्णिल आसिता रोग के प्रति मध्यम रोधी परन्तु म्लानि, आल्टरनेरिया
झुलसा रोगों के प्रति सहिष्णु किस्म है। असिंचित दशा और उतेरा खेती के लिए उपयुक्त
है।
3. कार्तिक (आरएलसी - 76):-
यह किस्म 98 - 104 दिन में तैयार हो
जाती है तथा औसतन 12 - 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इसके बीज हल्के कत्थई
रंग तथा मध्यम आकार (100 दानों का भार 5.5 ग्राम) के होते हैं। बीज में तेल
43% तेल पाया जाता है यह किस्म प्रमुख रोग व वड फ्लाई कीट के प्रति मध्यम रोधी
है तथा सिंचित व अर्द्ध सिंचित दशा में खेती हेतु उपयुक्त है।
4. किरण:-
अलसी की यह किस्म 110 - 115 दिन में
तैयार होती है। औसतन 12 - 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज क्षमता तथा बीज में 43
% तेल पाया जाता है। बीज चमकीला कत्थई रंग का बड़ा (100 दानों का भाग 6.2 ग्राम)
होता है। यह रतुआ, म्लानि व चूर्णिला आसिता रोग प्रतिरोधक किस्म है। मध्य प्रदेश एवं
छत्तीसगढ़ की सिंचित दशाओं में खेती के लिए उपयुक्त हैं।
5. आरएलसी - 92:-
यह किस्म 110 दिन में पक कर तैयार
हो जाती है तथा औसतन 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इसके बीज कत्थई रंग तथा
बड़े (100 दानों का भाग 6.8 ग्राम) के होते हैं। बीज में तेल 42% तक पाया जाता है। यह
चूर्णिल आसिता, म्लानि रोग प्रतिरोधी व वड फ्लाई कीट सहनशील है। देर से बोने व उतेरा
खेती हेतु उपयुक्त किस्म है।
अलसी की अन्य उन्नत किस्मो की विशेषताएं:-
1. जवाहर-17 (आर.17):-
इसका फूल नीला, बीज बड़ा तथा
बादामी रंग का होता है। इसमें फूल कम समय में एक साथ निकलते हैं और पौधे भी एक साथ
पककर तैयार हो जाते हैं। अलसी की मक्खी से इसको कम नुकसान तथा गेरूआ रोग का भी असर
नहीं होता है। यह जाति 115 - 123 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसमें तेल की मात्रा
46.3 प्रतिशत होती है। प्रति हेक्टेयर पैदावार 11.25 - 11.50 क्विंटल होती है। सम्पूर्ण
म.प्र. के लिए उपयुक्त है।
2. जवाहर-23:-
इसके बीज मध्यम आकार के व भूरे होते
हैं। यह चूर्णिल आसिता रोधी तथा म्लानि व रतुआ के प्रति भी पर्याप्त रोधिता है। यह
जाति 115 - 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसमें तेल की मात्रा 43 प्रतिशत होती
है। प्रति हेक्टेयर पैदावार 10- 11 क्विंटल होती है। सम्पूर्ण म.प्र. के लिए उपयुक्त
है।
3.जवाहर-552:-
यह किस्म 115-120 दिन में पककर तैयार
होती है जिसकी उपज क्षमता 9-10 क्विंटल प्रति हैक्टर आंकी गई है । इसके बीज में 44
प्रतिशत तेल पाया जाता है । म.प्र. व छत्तीसगढ़ की असिंचित पद्धति के लिए उपयोगी है
।
द्वि-उद्देश्य (दाना व रेशा) वाली
उन्नत किस्में
1.जीवनः-
यह किस्म 177 दिन में तैयार होकर 10.90 क्विंटल बीज और
11.00 क्विंटल रेशा प्रति हेक्टेयर तक देती है।
2.गौरवः-
यह किस्म 137 दिन मे पक कर तैयार होती है। औसतन 10.50 क्विंटल
बीज और 9.50 क्विंटल रेशा प्रति हेक्टेयर देती है।
फसल पद्धति:-
एकल एवं मिश्रित खेती:-
अलसी की खेती वर्षा आधारित क्षेत्रों से खरीफ पड़त
के बाद रबी में शुद्ध फसल के रूप मे की जाती है। अनुसंधान परिणाम यह प्रदर्शित करते
है कि सोयाबीन-अलसी व उर्द-अलसी आदि फसल चक्रों से पड़त अलसी की तुलना में अधिक लाभ
लिया जा सकता है। इसी पक्रार एकल फसल के बजाय अलसी की चना+अलसी (4:2) सह फसल के रूप
में ली जा सकती है। अलसी की सह फसली खेती मसूर व सरसों के साथ भी की जा सकती है।
उतेरा पद्धति:-
असली की उतेरा पद्धति धान लगाये जाने वाले क्षत्रों
में प्रचलित है। धान से खेती में नमी का सदुपयोग करने हतेु धान के खेत में अलसी बार्इे
जाती है। इस पद्धति धान की खड़ी फसल में अलसी के बीज को छिटक दिया जाता है। फलस्वरूप
धान की कटाई पूर्व ही अलसी का अंकुरण हो जाता है। संचित नमी से ही अलसी की फसल पककर
तैयार की जाती है। अलसी इस विधि को पैरा/उतेरा पद्धति कहते है।
बुवाई का समय इसके बोने का उपयुक्त
समय सितंबर अंत से लेकर अक्टूबर के द्वितीय सप्ताह तक है। इसको बोते समय खेत में नमी
होना, मौसम में कुछ ठंडक होना आवश्यक है। इन दोनों के बीच सामंजस्य होना आवश्यक है।
बहुत जल्दी बोने पर गरमी व अधिक नमी में पौधे अंकुरणशील बीज को नुकसान हो सकता है या
नवजात पौधे सूख जाते हैं।
बीजदर एवं अंतरण:-
एक हैक्टेयर (ढाई एकड़) के लिए २५-३० किलोग्राम बीज
की आवश्यक होती है। इसकी बोवनी ३० सेमी (एक फुट) दूरी पर कतारों में करें। बीज छोटा
होने के कारण अधिक गहराई में नहीं जाना चाहिए। बीज को ३-४ सेमी से ज्यादा गहरा नहीं
बोएँ। बीज बोने के बाद हल्का पठार चलाएँ, जिससे बीज व मिट्टी के बीच खाली या हवा युक्त
स्थान न रहकर वे एक-दूसरे के संपर्क में आ जाएँ, अच्छे अंकुरण के लिए यह आवश्यक है।
उतेरा पद्धति के लियेः-
उक्त पद्धति हेतु 40-45 किग्रा बीज/हेक्टेयर
की दर अलसी की बोनी हतेु उपयुक्त है।
बीजोपचार:-
बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम की 2.5 से
3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये अथवा ट्राइकोडरमा
विरीडी की 5 ग्राम मात्रा अथवा ट्राइकाडेरमा हारजिएनम की 5 ग्राम एवं कार्बाक्सिन की
2 ग्राम मात्रा से प्रति किलाग्रोम बीज को उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये।
पोषक तत्व प्रबंधन:-
कार्बनिक खाद-
अलसी की फसल के बहेतर उत्पादन हतेु अच्छी तरह से
पकी हुई गाबेर की खाद 4-5 टन/हे. अन्तिम जुताई के समय खेत में अच्छी तरह से मिला देना
चाहिये। मिट्टी परीक्षण अनुसार उर्वरकोंका प्रयोग अधिक लाभकारी हातो है।
उर्वरक प्रबंधन:-
असिंचित अवस्था में-
अलसी को असिंचित अवस्था में नाइट्रासेजन, फास्फोरस, पाटोश की क्रमशः
40:20:20 किग्रा./हे. देना चाहिये। बाने के पहले सीडड्रिल से 2-3 से.मी. की गहराई पर
उवर्रको की पूरी मात्रा देना चाहिये।
सिंचित अवस्था में-
सिंचित अवस्था में अलसी फसल को नाइट्रोजन, फास्फारेस व पाटोश की क्रमशः
60-80:40:20 कि.ग्रा./हे. देना चाहिये। नाइट्रोजन की आधी मात्रा फास्फोरस व पोटाश की
पूरी मात्रा बाने के पहले तथा बची हुई नाइट्रोजन की मात्रा प्रथम सिंचाई के तुरन्त
बाद टाप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिये।
अलसी एक तिलहन फसल है और तिलहन फसलों से अधिक उत्पादन लेने हतेु 20-25 कि.ग्रा./हे
सल्फर भी देना चाहिये। सल्फर की पूरी मात्रा बीज बोने के पहले देना चाहिये। इसके अतिरिक्त
20 किग्रा. जिंक सल्फेट/हेक्ट. की दर से बोनी के समय आधार रूप में देवे।
जैव उर्वरक:-
अलसी में भी एजोटोवेक्टर/एजोस्पाईरिलम और स्फुर घोलक जीवाणु आदि जैव उर्वरक
उपयोग किये जा सकते हैं। बीज उपचार हेतु 10 ग्राम जैव उर्वरक प्रति किलो ग्राम बीज
के हिसाब से अथवा मृदा उपचार हतेु 5 किलोग्राम/ हे. जैव उर्वरको।की मात्रा को 50 कि.ग्रा.
भुरभुरे गोबर की खाद के साथ मिला कर अंतिम जुताई के पहले खेत मे बराबर बिखरे देना चाहिये।
खरपतवार प्रबंधन:-
खरपतवार प्रबंधन के लिये वुवाई के 20 से 25 दिन पश्चात पहली निदाई-गुड़ाई एवं
40-45 दिन पश्चात दूसरी निदाई-गुड़ाई करनी चाहिये। अलसी की फसल में रासायनिक विधि से
खरपतवार प्रबंधन हेतु पेन्डामेथिलिन 1 किलोग्राम सक्रिय तत्व को बुवाई के पश्चात एवं
अंकुरण पूर्व 500-600 लीटर पानी में मिलाकर खेत में छिडकाव करें।
जल प्रबंधन:-
अलसी के अच्छे उत्पादन के लिये विभिन्न क्रांतिक अवस्थाओं पर 2 सिंचाई की आवश्यकता
पड़ती है।यदि दो सिंचाई उपलब्ध हो तो प्रथम सिंचाई बुवाई के एक माह बाद एवं द्वितीय
सिंचाई फल आने से पहले करना चाहिये। सिंचाई के साथ-साथ प्रक्षेत्र में जल निकास का
भी उचित प्रबंध होना चाहिये। प्रथम एवं द्वतीय सिचाई क्रमशः 30-35 व 60 से 65 दिन की
फसल अवस्था पर करें।
पौध संरक्षण:-
अलसी के विभिन्न प्रकार के रागे जैसे गेरूआ, उकठा, चूर्णिल आसिता तथा आल्टरनेरिया
अंगमारी एवं कीट यथा फली मक्खी, अलसी की इल्ली, अर्धकुण्डलक इल्ली चने की इल्ली द्वारा
भारी क्षति पहुचाई जाती है। इनका प्रबंधन निम्नानुसार किया जा सकता है।
प्रमुख रोग:-
1- गेरूआ (रस्ट) रोग:-
यह रोग मलेम्पसोरा लाइनाई नामक फफूंद से होता है।
रोग का प्रकोप प्रारंभ होने पर चमकदार नारंगी रंग के स्फाटे पत्तियों के दोनों ओर बनते
हैं, धीरे धीरे यह पौधे के सभी भागों में फैल जाते है। रोग नियंत्रण हेतु रोगरोधी किस्में
जे.एल.एस. 9, जे.एल.एस 27, जे.एल.एस. 66, जे.एल.एस. 67, एवं जे.एल.एस. 73 को लगायें।
रसायनिक दवा के रुप में टेबूकोनाजाले 2 प्रतिशत 1 ली. प्रित हेक्टे. की दर से या (केप्टान+
हेक्साकानोजाल) का 500-600 ग्राम मात्रा को 500 लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
2- उकठा (विल्ट):-
यह अलसी का प्रमुख हानिकारक मृदा जनित रोग है इस रोग का प्रकोप अंकुरण से लेकर परिपक्वता
तक कभी भी हो सकता है। रोग ग्रस्त पौधों की पत्तियों के किनारे अन्दर की आरे मुड़कर
मुरझा जाते है। इस रोग का प्रसार प्रक्षेत्र में पडे़ फसल अवशेषों द्वारा होता है।
इसके रोगजनक मृदा में उपस्थित फसल अवशेषों तथा मृदा में उपस्थित रहते है तथा अनुकूल
वातावरण में पौधों पर संक्रमण करते है। उन्नत प्रजातियों को लगावें।
3- चूर्णिल आसिता (भभूतिया रोग):-
इस रोग के संक्रमण की दशा में पत्तियों पर सफेद चूर्ण सा जम जाता है। रोग की
तीव्रता अधिक होने पर दाने सिकुड़ कर छोटे रह जाते हैं। देर से बवुाई करने पर एवं शीतकालीन
वर्षा होने तथा अधिक समय तक आर्द्रता बनी रहने की दशा में इस रोग का प्रकोप बढ़ जाता
है। उन्नत जातियों को बायें। कवकनाशी के रुप मे थायोफिनाईल मिथाईल 70 प्रतिशत डब्ल्यू.
पी. 300 ग्राम प्रति हेक्टे. की दर से छिड़काव करना चाहिए।
4- (आल्टरनेरिया) अंगमारी:-
इस रागे से अलसी के पौधे का समस्त वायुवीय भाग प्रभावित होता है परंतु सर्वाधिक
संक्रमण पुष्प एवं पत्तियों पर दिखाई देता है। फूलों की पंखुडियों के निचले हिस्सों
में गहरे भेरू रंग के लम्बवत धब्बे दिखाई देते है। अनुकूल वातावरण में धब्बें बढ़कर
फूल के अन्दर तक पहॅुच जाते हैं जिसके कारण फूल निकलने से पहले ही सूख जाते है। इस
प्रकार रोगी फूलों में दाने नहीं बनते हैं। उन्नत जातियों की बोनी करें।
(केप्टान+ हेक्साकोनाजाल) का 500-600 ग्राम मात्रा को 500 लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव
करना चाहिए।
समन्वित रोग प्रबंधन:-
- · प्रक्षेत्र की जुताई से पहले फसल अवशेषों को इकट्ठाकर जला देना चाहिये।
- · मिट्टी में रोग जनकों के निवेश को कम करने के लिये 2-3 वर्ष का फसल चक्र अपनाना चाहिये।
- · अक्टॅूबर के अंतिम सप्ताह से लेकर नवम्बर के मध्य तक बुवाई कर देना चाहिये।
- · बीजों को बुवाई से पहले कोर्बन्डाजिम या थोयाफिनिट-मिथाइल की 3 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये।
- · फसलों पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही आइप्रोडियोन की 0.2 प्रतिशत (2ग्राम/ली.पानी) अथवा मैन्कोजेब की 0.25 प्रतिशत (2.5 ग्राम/ली. पानी) अथवा कार्बेन्डाजिम 12% + मेकोंजेब 63% की 2 ग्राम/ली. मात्रा का पर्णिय छिडकाव करना चाहिये।
- · चूर्णिल आसिता रोग के प्रबंधन के सेल्फक्स अथवा कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति ली. पानी में घोल की के जलीय घोल का पर्णिय छिडकाव लाभप्रद होता है।
- · रोग के प्रति सहनशील अथवा प्रतिरोधी प्रजातियों का चयन कर उगाना चाहिये।
अलसी के प्रमुख कीट:-
फली मक्खी (बड फ्लाई):-
यह प्रौढ़ आकार में छोटी तथा नारंगी रंग की होती है। जिनके पंख पारदर्शी होते
हैं। इसकी इल्ली ही फसलों को हानि पहुॅचाती है। इल्ली अण्डाशय को खाती है जिससे कैप्सूल
एवं बीज नहीं बनते हैं। मादा कीट 1 से 10 तक अण्डे पंखुड़ियों के निचले हिस्से में रखती
है। जिससे इल्ली निकल कर फली के अंदर जनन अंगो विशेषकर अण्डाशयों को खा जाती है। जिससे
फली पुष्प के रूप में विकसित नहीं होती है तथा कैप्सूल एवं बीज का निर्माण नहीं होता
है। यह अलसी को सर्वाधिक नुकसान पहॅुचाने वाला कीट है जिसके कारण उपज में 60-85 प्रतिशत
तक क्षति होती है। नियंत्रण के लिये ईमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. 100 मिली./ हेक्ट.
की दर से 500-600 ली. पानी में घालेकर छिड़काव करें।
अलसी की इल्ली:-
प्रौढ़ कीट मध्यम आकार के गहरे भूरे रंग या धूसर
रंग का होता है, जिसके अगले पंख गहरे धूसर रंग के पीले धब्बे युक्त होते है। पिछले
पंख सफेद, चमकीले, अर्धपारदं शर्क तथा बाहरी सतह धूसर रंग की होती है। इल्ली लम्बी
भूरे रंग की होती है। जोतने के उपरी भाग में पत्तियों से चिपककर पत्तियों के बाहरी
भाग को खाती है। इस कीट से ग्रसित पौधों की बढ़वार रूक जाती है।
अर्ध कुण्डक इल्ली:-
इस कीट के प्रौढ़ शलभ के अगले पंख पर सुनहरे धब्बे होते है। इल्ली हरे रंग की
होती है जो प्रारंभ में मुलायम पत्तियों तथा फलियों के विकास हाने पर फलियों को खाकर
नुकसान पहॅुचाती है।
चने की इल्ली:-
इस कीट का प्रौढ़ भूरे रंग का होता है जिनके अगले पंखों पर सेम के बीज के आकार
के काले धब्बे होते हैं। इल्लियों के रंग में विविधता पाई जाती है जैसे यह पीले, हरे,
नारंगी, गुलाबी, भूरे या काले रंग की होती है। शरीर के पार्श्व हिस्सों पर हल्की एवं
गहरी धारियॉ होती है। छोटी इल्ली पौधों के हरे भाग को खुरचकर खाती है बड़ी इल्ली फूलों
एवं फलियों को नुकसान पहॅुचाती है।
समन्वित कीट प्रबंधन तकनीकी:-
·
ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई से
मृदा में स्थित फली मक्खी की सूंडी तीव्र धूप के सम्पर्क में आकर नष्ट हो जाती है।
·
कीटों हेतु संस्तुत सहनशील
प्रजातियों का चुनाव बुवाई हेतु करना चाहिये।
·
अगेती बुवाई अर्थात अक्टूबर
के प्रथम सप्ताह में बुवाई करने पर कीटों का संक्रमण कम होता है।
·
अलसी के साथ चना (2:4) अथवा
सरसो।(5:1) की अतंवर्तीय खेती करने से फली बेधक कीट का संक्रमण कम हो जाता है।
·
उर्वरक की संस्तुत मात्रा
(60-80 किग्रा नत्रजन, 40 किग्रा स्फरु तथा 20 किग्रा) पोटाश का प्रति हेक्टेयर की
दर से सिंचित अवस्था में प्रयोग करना चाहिये।
·
बॉस की टी के आकार की 2.5 से
3 फीट ऊॅची 50 खूॅटियों को प्रति हेक्टेयर से लगाने से कीटों को उनके प्राकृतिक शत्रु
चिड़ियों द्वारा नष्ट कर दिया जाता है।
·
न्यूक्लियर पाली हेड्रोसिस
विषाणु की 250 एल.ई. का प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव लैपिडोप्टेरा कुल के कीटों
का प्रभावशाली प्रबंधन होता है।
·
प्रकाश प्रपंच का उपयोग कर
कीड़ों को आर्कषित कर एकत्र कर नष्ट कर दें।
·
नर कीटों को आर्कषित करने तथा
एकत्र करने हतेु फेरोमोन ट्रैप का प्रति हेक्टैयर की दर से 10 ट्रैप का प्रयोग लाभप्रद
हातो है।
·
जब फली मक्खी की संखया आर्थिक
क्षति स्तर (8-10 प्रतिशत कली संक्रमित) से उपर पहॅुच जाय तो एसिफेट या प्रोफेनोफॉस
अथवा क्विनालफॉस 2 मि.ली. मात्रा/ली. पानी के घोल का 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव लाभपद्र
होगा।
·
उसके अतिरिक्त अन्य रसायनों
जैसे साइपरमेथ्रिन (5 प्रतिशत) + क्लोरापोइरीफॉस (50 प्रतिशत)-55 ई.सी. की 750 मिली.
मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से अथवा साइपरमेथ्रिन (1 प्रतिशत) + ट्राइजोफॉस (35 प्रतिशत)-40
ई.सी. की एक लीटर मात्रा का 500-600 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव
लाभपद्र होता है।
कटाई गहाई एवं भण्डारण:-
जब फसल की पत्तियाँ सूखने लगें, केप्सूल
भूरे रंग के हो जायें और बीज चमकदार बन जाय तब फसल की कटाई करनी चाहिये। बीज में
70 प्रतिशत तक सापेक्ष आद्रता तथा 8 प्रतिशत नमी की मात्रा भडांरण के लिये सर्वोत्तम
है।
सूखे तने से रेशा प्राप्त करने की विधि:-
·
फसल की कटाई भूमि स्तर से करें।
·
बीजों की मड़ाई करके अलग कर
लें तत्पश्चात तने को जहाँ से शाखाओं फटूी हों, काटकर अलग करें फिर कटे तने को छाटे-छोटे
बण्डल बनाकर रख ले।
·
अब सूखे कटे तने बण्डल को सड़ाने
के लिये अलग रखें।
·
तनो को सड़ाने के लिये
निम्न लिखित विधि अपनायें।
·
सूखे तने के बण्डलों को पानी
से भरे टैंक में डालकर 2-3 दिन तक छोड़ दें।
·
सड़े तने के बण्डल को 8-10 बार
टैंक के पानी से धोकर खुली हवा में सूखाने दें।
·
अब तना रेशा निकालने योग्य
हो गया है।
रेशा निम्न प्रकार से निकाला जा सकता
है –
अ. हाथ से रेशा निकालने की विधि:-
अच्छी तरह सूखे सड़े तने की लकड़ी की
मुंगरी से पीटिए-कूटिए। इस पक्रार तने की लकड़ी टूटकर भूसा हो जावेगी जिसे झाड़कर व साफ
कर रेशा आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।
ब. यांत्रिकी विधि (मशीन से रेशा निकालने की विधि):-
सूखे सडे़ तने के छोटे-छोटे बण्डल मशीन के ग्राही सतह पर रख कर मशीन चलाते हैं
इस प्रकार मशीन से दबे/पिसे तने मशीन के दूसरी तरफ से बाहर लेते रहते हैं।
मशीन से बाहर हुये दबे/पिसे तने को हिलाकर एवं साफकर रेशा प्राप्त कर लेते हैं।
यदि तने की पिसी लकड़ी एक बार में पूरी तरह रेशे से अलग न हो तो पुनः उसे मशीन में लगाकर
तने की लकड़ी को पूरी तरह से अलग कर लें।
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