Tuesday, 5 September 2017

करेला की उन्नत खेती


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करेला लता जाति की स्वयंजात और कषि जन्य वनस्पति है। इसे कारवेल्लक, कारवेल्लिका, करेल, करेली तथा काँरले आदि नामों से भी जाना जाता है। करेले की आरोही अथवा विसर्पी कोमल लताएँ, झाड़ियों और बाड़ों पर स्वयंजात अथवा खेतों में बोई हुई पाई जाती है। इनकी पत्तियाँ - खंडों में विभक्त, तंतु (ट्रेंड्रिल, tendril) अविभक्त, पुष्प पीले और फल उन्नत मुलिकावाले (ट्यूबर्किल्ड, tubercled) होते हैं। कटु तिक्त होने पर भी रुचिकर और पथ्य शाक के रूप में इसका बहुत व्यवहार होता है। चिकित्सा में लता या पत्र स्वरस का उपयोग दीपन, भेदन, कफ-पित्त-नाश तथा ज्वर, कृमि, वातरक्त और आमवातादि में हितकर माना जाता है। जलवायु
करेला के लिए गर्म एवं आद्र जलवायु की आवश्यकता होती है करेला अधिक शीत सहन कर लेता है परन्तु पाले से इसे हानी होती है |


भूमि

इसको बिभिन्न प्रकार की भूमियों में उगाया जा सकता है किन्तु उचित जल धारण क्षमता वाली जीवांश युक्त हलकी दोमट भूमि इसकी सफल खेती के लिए सर्वोत्तम मानी गई है वैसे उदासीन पी.एच. मान वाली भूमि इसकी खेती के लिए अच्छी रहती है नदियों के किनारे वाली भूमि इसकी खेती के लिए उपयुक्त रहती है कुछ अम्लीय भूमि में इसकी खेती की जा सकती है पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करें इसके बाद 2-3 बार हैरो या कल्टीवेटर चलाएँ |

प्रजातियाँ:

पूसा 2 मौसमी
कोयम्बूर लौंग|
अर्का हरित
कल्याण पुर बारह मासी
हिसार सेलेक्शन
सी 16
पूसा विशेष
फैजाबादी बारह मासी
आर.एच.बी.बी.जी. 4
के.बी.जी.16
पूसा संकर 1
पी.वी.आई.जी. 1

बीज बुवाई

बीज की मात्रा:

5-7 किलो ग्राम बीज प्रति हे. पर्याप्त होता है एक स्थान पर से 2-3 बीज 2.5-5. मि. की गहराई पर बोने चाहिए बीज को बोने से पूर्व 24 घंटे तक पानी में भिगो लेना चाहिए इससे अंकुरण जल्दी, अच्छा होता है |
बोने का समय

बुवाई का समय  15 फरवरी से 30 फरवरी (ग्रीष्म ऋतु) तथा 15 जुलाई से 30 जुलाई (वर्षा ऋतु)
बुवाई की विधि एवं दिशा  बुवाई 2 प्रकार से की जाती है।
(1) सीधे बीज द्वारा
(2) पौध रोपण द्वारा

खाद एवं उर्वरक

करेला की फसल में अच्छी पैदावार लेने के लिए उसमे आर्गनिक खाद, कम्पोस्ट खाद का होना अनिवार्य है इसके लिए एक हे. भूमि में लगभग 40-50 क्विंटल गोबर की अच्छे तरीके से गली, सड़ी हुई खाद  50 किलो ग्राम नीम की खली इनको अच्छी तरह से मिलाकर मिश्रण तैयार कर खेत में बोने से पूर्व इस मिश्रण को खेत में समान मात्रा में बिखेर दें इसके बाद खेत की अच्छे तरीके से जुताई करें खेत तैयार कर बुवाई करें |
और जब फसल 25-30 दिन नीम का काढ़ा  को गौमूत्र के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर छिडकाव करें की हर 15 20 दिन के अंतर से छिडकाव करें |
 या
25 से 30 टन सड़ी हुई गोबर की या कम्पोस्ट खाद खेत में बुवाई से 25-30 दिन पहले तथा बुवाई से पूर्व नालियों में 50 किग्रा. डी..पी., 50 किग्रा. म्यूरेट आॅफ पोटाश प्रति हैक्टेयर के हिसाब से जमीन में मिलाए। बाकी नत्रजन 30 किग्रा. यूरिया बुवाई के 20-25 दिन बाद इतनी ही मात्रा 50-55 दिन बाद पुष्पन फलन की अवस्था में डाले।

सिचाई:

करेला की सिचाई वातावरण, भूमि की किस्म, आदि पर निर्भर करती है ग्रीष्म कालीन फसल की सिचाई 5 दिन के अंतर पर करते रहें जबकि वर्षाकालीन फसल की सिचाई वर्षा के ऊपर निर्भर करती है |

खरपतवार

पौधों के बिच खरपतवार उग आते है उन्हें उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए |

कीट नियंत्रण

लालड़ी

पौधों पर 2 पत्तियां निकलने पर इस कीट का प्रकोप शुरू हो जाता है यह कीट, पत्तियों और फूलों को खाता है इस कीट की सुंडी भूमि के अन्दर पौधों की जड़ों को काटती है |

रोकथाम

इम से कम ४०-50 दिन पुराना 15 लीटर गोमूत्र को तांबे के बर्तन में रखकर 5 किलोग्राम धतूरे की पत्तियों एवं तने के साथ उबालें 7.5 लीटर गोमूत्र शेष रहने पर इसे आग से उतार कर ठंडा करें एवं छान लें मिश्रण तैयार कर 3 ली. को प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करना चाहिए |

फल की मक्खी

यह मक्खी फलों में प्रवेश कर जाती है और वहीँ पर अंडे देती है अण्डों से बाद में सुंडी निकलती है वे फल को वेकार कर देती है यह मक्खी विशेष रूप से खरीफ वाली फसल को अधिक हानी पहुंचाती है |

रोकथाम

इम से कम 40-50 दिन पुराना 15 लीटर गोमूत्र को तांबे के बर्तन में रखकर 5 किलोग्राम धतूरे की पत्तियों एवं तने के साथ उबालें 7.5 लीटर गोमूत्र शेष रहने पर इसे आग से उतार कर ठंडा करें एवं छान लें मिश्रण तैयार कर 3 ली. को प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करना चाहिए |

सफ़ेद ग्रब

यह कद्दू वर्गीय पौधों को काफी हानी पहुंचाती है यह भूमि के अन्दर रहती है और पौधों की जड़ों को खा जाती है जिसके करण पौधे सुख जाते है |

रोकथाम

इसकी रोकथाम के लिए भूमि में नीम की खाद का प्रयोग करें |

चूर्णी फफूंदी

यह रोग एरीसाइफी सिकोरेसिएरम नामक फफूंदी के कारण होता है पत्तियों एवं तनों पर सफ़ेद दरदरा और गोलाकार जाल सा दिखाई देता है जो बाद में आकार में बढ़ जाता है और कत्थई रंग का हो जाता है पूरी पत्तियां पिली पड़कर सुख जाती है पौधों की बढ़वार रुक जाती है |

रोकथाम

इम से कम ४०-50 दिन पुराना 15 लीटर गोमूत्र को तांबे के बर्तन में रखकर 5 किलोग्राम धतूरे की पत्तियों एवं तने के साथ उबालें 7.5 लीटर गोमूत्र शेष रहने पर इसे आग से उतार कर ठंडा करें एवं छान लें मिश्रण तैयार कर 3 ली. को प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करना चाहिए | |

एन्थ्रेकनोज

यह रोग कोलेटोट्राईकम स्पीसीज के कारण होता है इस रोग के कारण पत्तियों और फलों पर लाल काले धब्बे बन जाते है ये धब्बे बाद में आपस में मिल जाते है यह रोग बीज द्वारा फैलता है |

रोकथाम

बीज क़ बोने से पूर्व गौमूत्र या कैरोसिन या नीम का तेल के साथ उपचारित करना चाहिए |

तुड़ाई

फलों की तुड़ाई छोटी कोमल अवस्था में करनी चाहिए आमतौर पर फल बोने के 75-9 0 दिन बाद तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते है फल तोड़ने का कार्य 3 दिन के अंतर पर करते रहें |

उपज

इसकी उपज क्विंटल तक प्रति हे 100-150. मिल जाती है


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