Saturday 30 September 2017

अलसी की खेती

अलसी की खेती (farming of Linseed)


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अलसी बहुमूल्य औद्योगिक तिलहन फसल है। अलसी की खली दूध देने वाले जानवरों के लिये पशु आहार के रूप में उपयोग की जाती है तथा खली में विभिन्न पौध पौषक तत्वो की उचित मात्रा होने के कारण इसका उपयोग खाद के रूप में किया जाता है। 

हमारे देश में अलसी की खेती लगभग 2.96 लाख हैक्टर क्षेत्र में होती है जो विश्व के कुल क्षेत्रफल का 15 प्रतिशत है। अलसी क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का विश्व में द्वतीय स्थान है, उत्पादन में तीसरा तथा उपज प्रति हेक्टेयर में आठवॉ स्थान रखता है। मध्यप्रदेश, उत्तरपद्रेश, महाराष्ट्र, बिहार, राजस्थान व उड़ीसा अलसी के प्रमुख उत्पादक राज्य है। मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश  में देश की अलसी के कुल क्षेत्रफल का लगभग 60 प्रतिशत भाग आच्छादित है।


अलसी को शुद्ध फसल मिश्रित फसल, सह फसल, पैरा या उतेरा फसल के रूप में उगाया जाता है। देश में हुये अनुसंधान कार्य से यह सिद्ध करते है। कि अलसी की खेती उचित प्रबन्धन के साथ की जाय तो उपज में लगभग 2 से 2.5 गनुी वृद्धि की संभव है। किसी तरह की परिस्थिति आपके खेत की भी हो यानी सीमित सिंचाई तो उपलब्ध है, किंतु सुरक्षा (विशेषकर पशुओं से) नहीं है तो इसके लिए सबसे उत्तम विकल्प अलसी की फसल है। अलसी के खेत को पशु चरकर नुकसान नहीं करते, क्योंकि इसके पौधों के तने में सेल्यूलोज युक्त एक विशेष प्रकार का रेशा पाया जाता है।

रेशे का उपयोग:- 

यद्यपि इस रेशे का व्यावसायिक उपयोग केनवास, बेग्स (झोले), दरी आसन आदि मोटे वस्त्र बनाने के लिए किया जाता है। रेशे को 'लिनेन फाइबर' कहा जाता है। इसे निकालने के बाद तने के जैविक पदार्थ से कागज की लुगदी तैयार कर कागज बनाया जाता है। 


अलसी के कम उत्पादकता के कारण:-

  • ·        कम उपजाऊ भूमि पर खेती करना
  • ·        असिंचित दशा अथवा वर्षा आधारित स्थिति मे।खेती करना
  • ·        उतेरा पद्धति से खेती करना
  • ·        स्थानीय किस्मो का प्रचलन व उच्च उत्पादन देने वाली किस्मों का अभाव
  • ·        असंतुलित एवं कम मात्रा मे उर्वरको उपयोग
  • ·        कीट बीमारियो हेतु उचित पौध संरक्षण के उपायों को न अपनाना।

जलवायु:-

अलसी की फसल को ठंडे व शुष्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। अतः अलसी भारत वर्ष में अधिकतर रबी मौसम में जहां वार्षिक वर्षा 45-50 सेटीमीटर प्राप्त होती है वहां इसकी खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। अलसी के उचित अंकुरण हतेु 25-30 डिग्री से.ग्रे. तापमान तथा बीज बनते समय तापमान 15-20 डिग्री से.ग्रे. होना चाहिए। अलसी के वृद्धि काल में भारी वर्षा व बादल छाये रहना बहुत ही हानिकारक साबित होते हैं। परिपक्वन अवस्था पर उच्च तापमान, कम नमी तथा शुष्क वातावरण की आवश्यकता होती है।


भूमि का चुनाव:-

अलसी की फसल के लिये काली भारी एवं दामेट (मटियार) मिटि्टयॉ उपयुक्त होती हैं। अधिक उपजाऊ मदृाओं की अपेक्षा मध्यम उपजाऊ मृदायें अच्छी समझी जाती हैं। भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध होना चाहिए। आधुनिक संकल्पना के अनुसार उचित जल एवं उर्वरक व्यवस्था करने पर किसी भी प्रकार की मिट्टी में अलसी की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है।


खेत की तैयारी:-

बीज के अंकुरण और उचित पौध  वृद्धि के लिए आवश्यक है कि बुआई से पूर्व भूमि को अच्छी प्रकार से तैयार कर लिया जाए। धान की फसल कटाई पश्चात् बतर आने पर खेत की मिट्टी पलटने वाले हल से एक बार जोतने के पश्चात् 2-3 बार देशी 2-3 बार देशी या हैरो चलाकर भूमि तैयार की जाती है। जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए जिससे भूमि में नमी संचित हो सके। उतेरा बोनी हेतु धान के खेतों में समय-समय पर खरपतवार निकालकर खेतों को इनसे साफ रखना चाहिये।

उन्नत किस्में:-

 अलसी की देशी किस्मों की उपज क्षमता कम होती है क्योंकि इन पर कीट तथा रोगों का प्रकोप अधिक होता है। अतः अधिकतम उपज लेने के लिए देशी किस्मों के स्थान पर उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज का उपयोग करना चाहिए। क्षेत्र विशेष के लिए जारी की गई किस्मो  को  उसी क्षेत्र में उगाया जाना चाहिए, अन्यथा जलवायु संबंधी अंतर होने के कारण भरपूर उपज नहीं मिल सकेगी । 
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित अलसी की नवीन उन्नत किस्मो की विशेषताएं

1. दीपिका:- 

इस किस्म की पकने की अवधि 112 - 115 दिन, औसत उपज 12 - 13 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा बीज में तेल का अंश 42 % होता है। अनुमोदित उर्वरक देने पर 20.44 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज देती है। इसके बीज मध्यम आकार (1000 दानों का भार 6.2 ग्राम) के होते हैं। यह अर्द्ध-सिंचित व उतेरा खेती के लिए उपयुक्त है। यह किस्म म्लानि (विल्ट) और रतुआ (रस्ट) रोगों के प्रति मध्यम प्रतिरोधक है।

2. इंदिरा अलसी- 32:- 

यह 100 - 105 दिन में पकने वाली किस्म है जिससे 10 - 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। बीज हल्के कत्थई के मध्यम आकार (100 दानों का भार 6.5 ग्राम) के होते हैं। इसके बीज में तेल की अंश 39.3 % होता है। यह चूर्णिल आसिता रोग के प्रति मध्यम रोधी परन्तु म्लानि, आल्टरनेरिया झुलसा रोगों के प्रति सहिष्णु किस्म है। असिंचित दशा और उतेरा खेती के लिए उपयुक्त है।

3. कार्तिक (आरएलसी - 76):- 

यह किस्म 98 - 104 दिन में तैयार हो जाती है तथा औसतन 12 - 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इसके बीज हल्के कत्थई रंग तथा मध्यम आकार (100 दानों का भार 5.5 ग्राम) के होते हैं। बीज में तेल 43%  तेल पाया जाता है यह किस्म प्रमुख रोग व वड फ्लाई कीट के प्रति मध्यम रोधी है तथा सिंचित व अर्द्ध सिंचित दशा में खेती हेतु उपयुक्त है।

4. किरण:- 

अलसी की यह किस्म 110 - 115 दिन में तैयार होती है। औसतन 12 - 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज क्षमता तथा बीज में 43 %  तेल पाया जाता है। बीज चमकीला कत्थई रंग का बड़ा (100 दानों का भाग 6.2 ग्राम) होता है। यह रतुआ, म्लानि व चूर्णिला आसिता रोग प्रतिरोधक किस्म है। मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ की सिंचित दशाओं में खेती के लिए उपयुक्त हैं।

5. आरएलसी - 92:- 

यह किस्म 110 दिन में पक कर तैयार हो जाती है तथा औसतन 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इसके बीज कत्थई रंग तथा बड़े (100 दानों का भाग 6.8 ग्राम) के होते हैं। बीज में तेल 42% तक पाया जाता है। यह चूर्णिल आसिता, म्लानि रोग प्रतिरोधी व वड फ्लाई कीट सहनशील है। देर से बोने व उतेरा खेती हेतु उपयुक्त किस्म है।

अलसी की अन्य उन्नत किस्मो की विशेषताएं:-

1. जवाहर-17 (आर.17):- 

इसका फूल नीला, बीज बड़ा  तथा बादामी रंग का होता है। इसमें फूल कम समय में एक साथ निकलते हैं और पौधे भी एक साथ पककर तैयार हो जाते हैं। अलसी की मक्खी से इसको कम नुकसान तथा गेरूआ रोग का भी असर नहीं होता है। यह जाति 115 - 123 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसमें तेल की मात्रा 46.3 प्रतिशत होती है। प्रति हेक्टेयर पैदावार 11.25 - 11.50 क्विंटल होती है। सम्पूर्ण म.प्र. के लिए उपयुक्त है।

2. जवाहर-23:- 

इसके बीज मध्यम आकार के व भूरे होते हैं। यह चूर्णिल आसिता रोधी तथा म्लानि व रतुआ के प्रति भी पर्याप्त रोधिता है। यह जाति 115 - 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसमें तेल की मात्रा 43 प्रतिशत होती है। प्रति हेक्टेयर पैदावार 10- 11 क्विंटल होती है। सम्पूर्ण म.प्र. के लिए उपयुक्त है।

3.जवाहर-552:- 

यह किस्म 115-120 दिन में पककर तैयार होती है जिसकी उपज क्षमता 9-10 क्विंटल प्रति हैक्टर आंकी गई है । इसके बीज में 44 प्रतिशत तेल पाया जाता है । म.प्र. व छत्तीसगढ़ की असिंचित पद्धति के लिए उपयोगी है ।
द्वि-उद्देश्य (दाना व रेशा) वाली उन्नत किस्में

1.जीवनः- 

यह किस्म 177 दिन में तैयार होकर 10.90 क्विंटल बीज और 11.00 क्विंटल रेशा प्रति हेक्टेयर तक देती है।

2.गौरवः- 

यह किस्म 137 दिन मे पक कर तैयार होती है। औसतन 10.50 क्विंटल बीज और 9.50 क्विंटल  रेशा प्रति हेक्टेयर देती है।

फसल पद्धति:-

एकल एवं मिश्रित खेती:-

अलसी की खेती वर्षा आधारित क्षेत्रों से खरीफ पड़त के बाद रबी में शुद्ध फसल के रूप मे की जाती है। अनुसंधान परिणाम यह प्रदर्शित करते है कि सोयाबीन-अलसी व उर्द-अलसी आदि फसल चक्रों से पड़त अलसी की तुलना में अधिक लाभ लिया जा सकता है। इसी पक्रार एकल फसल के बजाय अलसी की चना+अलसी (4:2) सह फसल के रूप में ली जा सकती है। अलसी की सह फसली खेती मसूर व सरसों के साथ भी की जा सकती है।

उतेरा पद्धति:-

असली की उतेरा पद्धति धान लगाये जाने वाले क्षत्रों में प्रचलित है। धान से खेती में नमी का सदुपयोग करने हतेु धान के खेत में अलसी बार्इे जाती है। इस पद्धति धान की खड़ी फसल में अलसी के बीज को छिटक दिया जाता है। फलस्वरूप धान की कटाई पूर्व ही अलसी का अंकुरण हो जाता है। संचित नमी से ही अलसी की फसल पककर तैयार की जाती है। अलसी इस विधि को पैरा/उतेरा पद्धति कहते है।

बुवाई का समय इसके बोने का उपयुक्त समय सितंबर अंत से लेकर अक्टूबर के द्वितीय सप्ताह तक है। इसको बोते समय खेत में नमी होना, मौसम में कुछ ठंडक होना आवश्यक है। इन दोनों के बीच सामंजस्य होना आवश्यक है। बहुत जल्दी बोने पर गरमी व अधिक नमी में पौधे अंकुरणशील बीज को नुकसान हो सकता है या नवजात पौधे सूख जाते हैं। 

बीजदर एवं अंतरण:-

 एक हैक्टेयर (ढाई एकड़) के लिए २५-३० किलोग्राम बीज की आवश्यक होती है। इसकी बोवनी ३० सेमी (एक फुट) दूरी पर कतारों में करें। बीज छोटा होने के कारण अधिक गहराई में नहीं जाना चाहिए। बीज को ३-४ सेमी से ज्यादा गहरा नहीं बोएँ। बीज बोने के बाद हल्का पठार चलाएँ, जिससे बीज व मिट्टी के बीच खाली या हवा युक्त स्थान न रहकर वे एक-दूसरे के संपर्क में आ जाएँ, अच्छे अंकुरण के लिए यह आवश्यक है। 

उतेरा पद्धति के लियेः-

उक्त पद्धति हेतु 40-45 किग्रा बीज/हेक्टेयर की दर अलसी की बोनी हतेु उपयुक्त है।

बीजोपचार:-

बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये अथवा ट्राइकोडरमा विरीडी की 5 ग्राम मात्रा अथवा ट्राइकाडेरमा हारजिएनम की 5 ग्राम एवं कार्बाक्सिन की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलाग्रोम बीज को उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये।

पोषक तत्व प्रबंधन:-

 कार्बनिक खाद-

अलसी की फसल के बहेतर उत्पादन हतेु अच्छी तरह से पकी हुई गाबेर की खाद 4-5 टन/हे. अन्तिम जुताई के समय खेत में अच्छी तरह से मिला देना चाहिये। मिट्टी परीक्षण अनुसार उर्वरकोंका प्रयोग अधिक लाभकारी हातो है।

उर्वरक प्रबंधन:-

असिंचित अवस्था में-

अलसी को असिंचित अवस्था में नाइट्रासेजन, फास्फोरस, पाटोश की क्रमशः 40:20:20 किग्रा./हे. देना चाहिये। बाने के पहले सीडड्रिल से 2-3 से.मी. की गहराई पर उवर्रको की पूरी मात्रा देना चाहिये।

 सिंचित अवस्था में-

 सिंचित अवस्था में अलसी फसल को नाइट्रोजन, फास्फारेस व पाटोश की क्रमशः 60-80:40:20 कि.ग्रा./हे. देना चाहिये। नाइट्रोजन की आधी मात्रा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बाने के पहले तथा बची हुई नाइट्रोजन की मात्रा प्रथम सिंचाई के तुरन्त बाद टाप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिये।
 अलसी एक तिलहन फसल है और तिलहन फसलों से अधिक उत्पादन लेने हतेु 20-25 कि.ग्रा./हे सल्फर भी देना चाहिये। सल्फर की पूरी मात्रा बीज बोने के पहले देना चाहिये। इसके अतिरिक्त 20 किग्रा. जिंक सल्फेट/हेक्ट. की दर से बोनी के समय आधार रूप में देवे।

जैव उर्वरक:-

अलसी में भी एजोटोवेक्टर/एजोस्पाईरिलम और स्फुर घोलक जीवाणु आदि जैव उर्वरक उपयोग किये जा सकते हैं। बीज उपचार हेतु 10 ग्राम जैव उर्वरक प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से अथवा मृदा उपचार हतेु 5 किलोग्राम/ हे. जैव उर्वरको।की मात्रा को 50 कि.ग्रा. भुरभुरे गोबर की खाद के साथ मिला कर अंतिम जुताई के पहले खेत मे बराबर बिखरे देना चाहिये।

खरपतवार प्रबंधन:-

खरपतवार प्रबंधन के लिये वुवाई के 20 से 25 दिन पश्चात पहली निदाई-गुड़ाई एवं 40-45 दिन पश्चात दूसरी निदाई-गुड़ाई करनी चाहिये। अलसी की फसल में रासायनिक विधि से खरपतवार प्रबंधन हेतु पेन्डामेथिलिन 1 किलोग्राम सक्रिय तत्व को बुवाई के पश्चात एवं अंकुरण पूर्व 500-600 लीटर पानी में मिलाकर खेत में छिडकाव करें।

जल प्रबंधन:-

अलसी के अच्छे उत्पादन के लिये विभिन्न क्रांतिक अवस्थाओं पर 2 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।यदि दो सिंचाई उपलब्ध हो तो प्रथम सिंचाई बुवाई के एक माह बाद एवं द्वितीय सिंचाई फल आने से पहले करना चाहिये। सिंचाई के साथ-साथ प्रक्षेत्र में जल निकास का भी उचित प्रबंध होना चाहिये। प्रथम एवं द्वतीय सिचाई क्रमशः 30-35 व 60 से 65 दिन की फसल अवस्था पर करें।

पौध संरक्षण:-

अलसी के विभिन्न प्रकार के रागे जैसे गेरूआ, उकठा, चूर्णिल आसिता तथा आल्टरनेरिया अंगमारी एवं कीट यथा फली मक्खी, अलसी की इल्ली, अर्धकुण्डलक इल्ली चने की इल्ली द्वारा भारी क्षति पहुचाई जाती है। इनका प्रबंधन निम्नानुसार किया जा सकता है।

प्रमुख रोग:-

 1- गेरूआ (रस्ट) रोग:-

यह रोग मलेम्पसोरा लाइनाई नामक फफूंद से होता है। रोग का प्रकोप प्रारंभ होने पर चमकदार नारंगी रंग के स्फाटे पत्तियों के दोनों ओर बनते हैं, धीरे धीरे यह पौधे के सभी भागों में फैल जाते है। रोग नियंत्रण हेतु रोगरोधी किस्में जे.एल.एस. 9, जे.एल.एस 27, जे.एल.एस. 66, जे.एल.एस. 67, एवं जे.एल.एस. 73 को लगायें। रसायनिक दवा के रुप में टेबूकोनाजाले 2 प्रतिशत 1 ली. प्रित हेक्टे. की दर से या (केप्टान+ हेक्साकानोजाल) का 500-600 ग्राम मात्रा को 500 लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करना चाहिए।

2- उकठा (विल्ट):-

यह अलसी का प्रमुख हानिकारक मृदा जनित रोग है इस रोग का प्रकोप अंकुरण से लेकर परिपक्वता तक कभी भी हो सकता है। रोग ग्रस्त पौधों की पत्तियों के किनारे अन्दर की आरे मुड़कर मुरझा जाते है। इस रोग का प्रसार प्रक्षेत्र में पडे़ फसल अवशेषों द्वारा होता है। इसके रोगजनक मृदा में उपस्थित फसल अवशेषों तथा मृदा में उपस्थित रहते है तथा अनुकूल वातावरण में पौधों पर संक्रमण करते है। उन्नत प्रजातियों को लगावें।

3- चूर्णिल आसिता (भभूतिया रोग):-

इस रोग के संक्रमण की दशा में पत्तियों पर सफेद चूर्ण सा जम जाता है। रोग की तीव्रता अधिक होने पर दाने सिकुड़ कर छोटे रह जाते हैं। देर से बवुाई करने पर एवं शीतकालीन वर्षा होने तथा अधिक समय तक आर्द्रता बनी रहने की दशा में इस रोग का प्रकोप बढ़ जाता है। उन्नत जातियों को बायें। कवकनाशी के रुप मे थायोफिनाईल मिथाईल 70 प्रतिशत डब्ल्यू. पी. 300 ग्राम प्रति हेक्टे. की दर से छिड़काव करना चाहिए।

4- (आल्टरनेरिया) अंगमारी:-

इस रागे से अलसी के पौधे का समस्त वायुवीय भाग प्रभावित होता है परंतु सर्वाधिक संक्रमण पुष्प एवं पत्तियों पर दिखाई देता है। फूलों की पंखुडियों के निचले हिस्सों में गहरे भेरू रंग के लम्बवत धब्बे दिखाई देते है। अनुकूल वातावरण में धब्बें बढ़कर फूल के अन्दर तक पहॅुच जाते हैं जिसके कारण फूल निकलने से पहले ही सूख जाते है। इस प्रकार रोगी फूलों में दाने नहीं बनते हैं। उन्नत जातियों की बोनी करें।
(केप्टान+ हेक्साकोनाजाल) का 500-600 ग्राम मात्रा को 500 लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करना चाहिए।

 समन्वित रोग प्रबंधन:-

  • ·        प्रक्षेत्र की जुताई से पहले फसल अवशेषों को इकट्ठाकर जला देना चाहिये।
  • ·        मिट्टी में रोग जनकों के निवेश को कम करने के लिये 2-3 वर्ष का फसल चक्र अपनाना चाहिये।
  • ·        अक्टॅूबर के अंतिम सप्ताह से लेकर नवम्बर के मध्य तक बुवाई कर देना चाहिये।
  • ·        बीजों को बुवाई से पहले कोर्बन्डाजिम या थोयाफिनिट-मिथाइल की 3 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये।
  • ·        फसलों पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही आइप्रोडियोन की 0.2 प्रतिशत (2ग्राम/ली.पानी) अथवा मैन्कोजेब की 0.25 प्रतिशत (2.5 ग्राम/ली. पानी) अथवा कार्बेन्डाजिम 12% + मेकोंजेब 63% की 2 ग्राम/ली. मात्रा का पर्णिय छिडकाव करना चाहिये।
  • ·        चूर्णिल आसिता रोग के प्रबंधन के सेल्फक्स अथवा कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति ली. पानी में घोल की के जलीय घोल का पर्णिय छिडकाव लाभप्रद होता है।
  • ·        रोग के प्रति सहनशील अथवा प्रतिरोधी प्रजातियों का चयन कर उगाना चाहिये।

अलसी के प्रमुख कीट:-

फली मक्खी (बड फ्लाई):-

यह प्रौढ़ आकार में छोटी तथा नारंगी रंग की होती है। जिनके पंख पारदर्शी होते हैं। इसकी इल्ली ही फसलों को हानि पहुॅचाती है। इल्ली अण्डाशय को खाती है जिससे कैप्सूल एवं बीज नहीं बनते हैं। मादा कीट 1 से 10 तक अण्डे पंखुड़ियों के निचले हिस्से में रखती है। जिससे इल्ली निकल कर फली के अंदर जनन अंगो विशेषकर अण्डाशयों को खा जाती है। जिससे फली पुष्प के रूप में विकसित नहीं होती है तथा कैप्सूल एवं बीज का निर्माण नहीं होता है। यह अलसी को सर्वाधिक नुकसान पहॅुचाने वाला कीट है जिसके कारण उपज में 60-85 प्रतिशत तक क्षति होती है। नियंत्रण के लिये ईमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. 100 मिली./ हेक्ट. की दर से 500-600 ली. पानी में घालेकर छिड़काव करें।

अलसी की इल्ली:-

प्रौढ़ कीट मध्यम आकार के गहरे भूरे रंग या धूसर रंग का होता है, जिसके अगले पंख गहरे धूसर रंग के पीले धब्बे युक्त होते है। पिछले पंख सफेद, चमकीले, अर्धपारदं शर्क तथा बाहरी सतह धूसर रंग की होती है। इल्ली लम्बी भूरे रंग की होती है। जोतने के उपरी भाग में पत्तियों से चिपककर पत्तियों के बाहरी भाग को खाती है। इस कीट से ग्रसित पौधों की बढ़वार रूक जाती है।

अर्ध कुण्डक इल्ली:-

इस कीट के प्रौढ़ शलभ के अगले पंख पर सुनहरे धब्बे होते है। इल्ली हरे रंग की होती है जो प्रारंभ में मुलायम पत्तियों तथा फलियों के विकास हाने पर फलियों को खाकर नुकसान पहॅुचाती है।

चने की इल्ली:-

इस कीट का प्रौढ़ भूरे रंग का होता है जिनके अगले पंखों पर सेम के बीज के आकार के काले धब्बे होते हैं। इल्लियों के रंग में विविधता पाई जाती है जैसे यह पीले, हरे, नारंगी, गुलाबी, भूरे या काले रंग की होती है। शरीर के पार्श्व हिस्सों पर हल्की एवं गहरी धारियॉ होती है। छोटी इल्ली पौधों के हरे भाग को खुरचकर खाती है बड़ी इल्ली फूलों एवं फलियों को नुकसान पहॅुचाती है।

समन्वित कीट प्रबंधन तकनीकी:-


·        ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई से मृदा में स्थित फली मक्खी की सूंडी तीव्र धूप के सम्पर्क में आकर नष्ट हो जाती है।
·        कीटों हेतु संस्तुत सहनशील प्रजातियों का चुनाव बुवाई हेतु करना चाहिये।
·        अगेती बुवाई अर्थात अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में बुवाई करने पर कीटों का संक्रमण कम होता है।
·        अलसी के साथ चना (2:4) अथवा सरसो।(5:1) की अतंवर्तीय खेती करने से फली बेधक कीट का संक्रमण कम हो जाता है।
·        उर्वरक की संस्तुत मात्रा (60-80 किग्रा नत्रजन, 40 किग्रा स्फरु तथा 20 किग्रा) पोटाश का प्रति हेक्टेयर की दर से सिंचित अवस्था में प्रयोग करना चाहिये।
·        बॉस की टी के आकार की 2.5 से 3 फीट ऊॅची 50 खूॅटियों को प्रति हेक्टेयर से लगाने से कीटों को उनके प्राकृतिक शत्रु चिड़ियों द्वारा नष्ट कर दिया जाता है।
·        न्यूक्लियर पाली हेड्रोसिस विषाणु की 250 एल.ई. का प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव लैपिडोप्टेरा कुल के कीटों का प्रभावशाली प्रबंधन होता है।
·        प्रकाश प्रपंच का उपयोग कर कीड़ों को आर्कषित कर एकत्र कर नष्ट कर दें।
·        नर कीटों को आर्कषित करने तथा एकत्र करने हतेु फेरोमोन ट्रैप का प्रति हेक्टैयर की दर से 10 ट्रैप का प्रयोग लाभप्रद हातो है।
·        जब फली मक्खी की संखया आर्थिक क्षति स्तर (8-10 प्रतिशत कली संक्रमित) से उपर पहॅुच जाय तो एसिफेट या प्रोफेनोफॉस अथवा क्विनालफॉस 2 मि.ली. मात्रा/ली. पानी के घोल का 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव लाभपद्र होगा।
·        उसके अतिरिक्त अन्य रसायनों जैसे साइपरमेथ्रिन (5 प्रतिशत) + क्लोरापोइरीफॉस (50 प्रतिशत)-55 ई.सी. की 750 मिली. मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से अथवा साइपरमेथ्रिन (1 प्रतिशत) + ट्राइजोफॉस (35 प्रतिशत)-40 ई.सी. की एक लीटर मात्रा का 500-600 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव लाभपद्र होता है।

कटाई गहाई एवं भण्डारण:-

जब फसल की पत्तियाँ सूखने लगें, केप्सूल भूरे रंग के हो जायें और बीज चमकदार बन जाय तब फसल की कटाई करनी चाहिये। बीज में 70 प्रतिशत तक सापेक्ष आद्रता तथा 8 प्रतिशत नमी की मात्रा भडांरण के लिये सर्वोत्तम है।


सूखे तने से रेशा प्राप्त करने की विधि:-

·        फसल की कटाई भूमि स्तर से करें।
·        बीजों की मड़ाई करके अलग कर लें तत्पश्चात तने को जहाँ से शाखाओं फटूी हों, काटकर अलग करें फिर कटे तने को छाटे-छोटे बण्डल बनाकर रख ले।
·        अब सूखे कटे तने बण्डल को सड़ाने के लिये अलग रखें।
·         तनो को सड़ाने के लिये निम्न लिखित विधि अपनायें।
·        सूखे तने के बण्डलों को पानी से भरे टैंक में डालकर 2-3 दिन तक छोड़ दें।
·        सड़े तने के बण्डल को 8-10 बार टैंक के पानी से धोकर खुली हवा में सूखाने दें।
·        अब तना रेशा निकालने योग्य हो गया है।


रेशा निम्न प्रकार से निकाला जा सकता है –

अ. हाथ से रेशा निकालने की विधि:-

अच्छी तरह सूखे सड़े तने की लकड़ी की मुंगरी से पीटिए-कूटिए। इस पक्रार तने की लकड़ी टूटकर भूसा हो जावेगी जिसे झाड़कर व साफ कर रेशा आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।

ब. यांत्रिकी विधि (मशीन से रेशा निकालने की विधि):-

सूखे सडे़ तने के छोटे-छोटे बण्डल मशीन के ग्राही सतह पर रख कर मशीन चलाते हैं इस प्रकार मशीन से दबे/पिसे तने मशीन के दूसरी तरफ से बाहर लेते रहते हैं।
मशीन से बाहर हुये दबे/पिसे तने को हिलाकर एवं साफकर रेशा प्राप्त कर लेते हैं।
यदि तने की पिसी लकड़ी एक बार में पूरी तरह रेशे से अलग न हो तो पुनः उसे मशीन में लगाकर तने की लकड़ी को पूरी तरह से अलग कर लें।

मूली की उन्नत खेती

मूली की उन्नत खेती (Advanced farming of radish)


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मूली, सलाद के रूप में उपयोग की जाने वाली सब्जी है। उत्पत्ति स्थान भारत तथा चीन देश माना जाता है। सम्पूर्ण देश में विशेषकर गृह उद्यानों में उगाई जाती है। मूली में गंध सल्फर तत्व के कारण होती है। इसे क्यारियों की मेड़ों पर भी उगा सकते हैं। बीज बोने के 1 माह में तैयार हो जाती है। फसल अवधि 40-70 दिनों की है। सलाद में एक प्रमुख स्थान रखने वाली मूली स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत लाभकारी, गुणकारी महत्व रखती है। साधारणतः इसे हर जगह आसानी से लगाया जा सकता है।

जलवायु 

मूली अधिक तापमान के प्रति सहन शील है किन्तु सुगंध विन्यास और आकार के लिए ठंडी जलवायु कि आवश्यकता होती है अधिक तापमान के कारण जड़ें कठोर और चरपरी हो जाती है मूली कि सफल खेती के लिए 10-15 डिग्री सेल्सियस तापमान सर्वोत्तम माना गया है आज के समय में यह कहना कि मूली सिर्फ इसी मौसम में लगाई जाती है या लगाई जाना चाहिए, उचित नहीं होगा, क्योंकि मूली हमें हर मौसम व समय में उपलब्ध हो जाती है।  

भूमि

मूली के उत्तम उत्पादन के लिए रेतीली दोमट और दोमट भूमि अधिक उपयुक्त रहती है मटियार भूमि मूली कि फसल उगाने के लिए अनुपयुक्त रहती है क्योंकि इस में भूमि ऐसी जड़ों का समुचित विकास नहीं हो पाता है ।बीज उत्पादन के लिए ऐसी भूमि का चुनाव करना चाहिए जिसमें पानी के निकास की उचित व्यवस्था हो एवं फसल के लिए प्रर्याप्त मात्रा में जैविक पदार्थ उपलब्द्य हो। मृदा गहराई तक हल्की, भुरभुरी व कठोर परतों से मुक्त होनी चाहिए। उसी खेत का चयन करें जिसमें पिछले एक वर्ष में बोई जाने वाली किस्म के अलावा कोई दुसरी किस्म बीज उत्पादन के लिए ना उगाई गई हो। इसकी फसल के लिए खेत सर्वोत्तम पी.एच. मान 6-7 होता है। खेत खरपतवारों व अन्य फसलों के पौद्यों से मुक्त होना चाहिए। खेत की मृदा रोगों व कीटों से मुक्त होनी चाहिए।

भूमि की तैयारी

5-6 जुताई कर खेत को तैयार किया जाए। मूली के लिए गहरी जुताई कि आवश्यकता होती है क्योंकि इसकी जड़ें भूमि में गहरी जाती है गहरी जुताई के लिए ट्रेक्टर या मिटटी पलटने वाले हल से जुताई करें इसके बाद दो बार कल्टीवेटर चलाएँ जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं 

उन्नत किस्म 

अन्य फसलों व सब्जियों की ही तरह मूली की भरपूर पैदावार के लिए आवश्यक होता है कि कृषक भाई उन्नत जाति का चयन करें। मूली की उन्नत किस्मों में प्रमुख हैं- पूसा हिमानी, पूसा चेतवी, पूसा रेशमी, हिसार मूली नं. 1, पंजाब सफेद, रैपिड रेड, व्हाइट टिप आदि। पूसा चेतवी जहाँ मध्यम आकार की सफेद चिकनी मुलायम जड़ वाली है, वहीं यह अत्यधिक तापमान वाले समय के लिए भी अधिक उपयुक्त पाई गई है। इसी तरह पूसा रेशमी भी अधिक उपयुक्त है तथा अगेती किस्म के रूप में विशष महत्वपूर्ण है। इसी तरह अन्य किस्में भी अपना विशेष महत्व रखती हैं तथा हर जगह, हर समय लगाई जा सकती हैं। 

बोने का समय 

मूली साल भर उगाई जा सकती है फिर भी व्यवसायिक स्तर पर इसे मैदानों में सितम्बर से जनवरी तक और पहाड़ों में मार्च से अगस्त तक बोया जाता है साल भर मूली उगाने के मूली का प्रजातियों के अनुसार उनकी बुवाई का समय का चुनाव किया जाता है जैसे कि मूली की पूसा रश्मि पूसा हिमानी का बुवाई का समय मध्य सितम्बर है तथा जापानी सफ़ेद एवं व्हाईट आइसीकिल किस्म कि बुवाई का समय मध्य अक्टूम्बर है तथा पूसा चैत्की कि बुवाई मार्च के अंत समय में करते है तथा पूसा देशी किस्म कि बुवाई अगस्त माह के मध्य समय  ।

बीज की मात्रा

मूली की एक हैक्टेयर खेती के लिए 5-10 किग्रा बीज पर्याप्त होता है। मूली की बुवाई खेत की मेढ़ों पर की जाती है। यहाँ मेढ़ों के बीच की दूरी 45 सेमी तथा ऊँचाई 22-25 सेमी रखी जाती है। किसान भाई यह अवश्य ध्यान रखें कि मूली के बीजों का बीजोपचार अवश्य हो। इसके लिए गौमूत्र 5 ली. प्रति किग्रा बीज के हिसाब से उपयोग कर सकते हैं।

खाद एवं उर्वरक

50 क्विंटल गोबर की खाद या कम्पोस्ट, 20 किलो नीम की खली बुबाई के समय तथा 15 दिनों के पश्चात् 10 ली. गौमूत्र में 250 नीम का काड़ा, 250 ग्राम लहसुन का पेस्ट 15 ग्राम हींग मिलकर 4 दिनों तक छाया में रख दें बाद में उसे छान कर 200 ग्राम लाल मिर्च का पाउडर डाल दें ( छिड्काब करनें के 10 घंटे पहले )६० ली. पानी मिलकर तर बतर कर छिड्काब करें 
रासायनिक काद की दशा में 75 किग्रा नत्रजन, 40 किग्रा फास्फोरस तथा 40 किग्रा पोटाश देना चाहिए। गोबर व गोबर कचरे से बनी कम्पोस्ट खाद खेत की तैयारी के समय ही डाल देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा तथा पोटाश व फास्फोरस की पूरी मात्रा अंतिम जुताई में दे देना चाहिए तो लाभकारी होता है।

सिचाई

वर्षा ऋतू कि फसल में सिचाई कि कोई आवश्यकता नहीं है गर्मी वाली फसल में ४-५ दिन के अंतर से सिचाई करें जबकि सर्दी वाली फसल में १० से १५ दिन के अंतर से सिचाई करनी चाहिए । 

खरपतवार नियंत्रण 

खरपतवारों के नियंत्रण के लिए खेत की 2-3 बार निराई-गुङाई करें दूसरी निराई-गुङाई करने के समय पौधों की छटनी कर दें समय पर डौली से ऊपर निकली जङों को ढक दें । साथ ही मेढ़ों पर मिट्टी भी चढ़ाते रहना चाहिए। 

कीट नियंत्रण 

मूली की फसल पर एफिड, सरसों की मक्खी, पत्ती काटने वाली सूँडी अधिक हानि पहुँचाती है ।

रोकथाम 

इसकी रोकथाम के लिए देसी गाय का मूत्र 5 लीटर लेकर 15 ग्राम के आकार के बराबर हींग लेकर पिस कर अच्छी तरह मिलाकर घोल बनाना चाहिए प्रति 2 ली. पम्प के द्वारा तर-बतर कर छिडकाव करे ।

रोग नियंत्रण

आमतौर पर मूली की फसल पर कोई रोग नहीं लगता है कभी-कभी रतुआ का प्रकोप हो जाता है ।

रोकथाम

इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र  तम्बाकू मिलाकर पम्प के द्वारा तर-बतर कर छिडकाव करे ।

खुदाई 

पूरी बड़ी मूली जब वह नरम व कोमल हो निकालें क्योंकि देरी से विशेषकर यूरोपियन टाईप कि मूली की जड़ों में पिथ बन जाता है जिसका बाजार में भाव कम मिलता है यूरोपियन किस्मों को बोने के २५-३० दिन बाद निकालना शुरू कर दें एशियाई टाईप की मूली 40-50 दिन बाद निकालना शुरू करें ।

उपज 

मूली उपज भूमि की उर्वरा शक्ति उसकी उगे जाने वाली जातियों और फसल की देख-भाल पर निर्भर करती है यूरोपियन जातियों से 80-100 क्विंटल और एशियाई जातियों से 250-300 क्विंटल प्रति हे.उपज मिल जाती है।



Friday 29 September 2017

राजमा की खेती


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आजकल पूरे देश में शाकाहारी भोजन में राजमा का चलन बढ़ता जा रहा है. राजमा एक ओर जहां खाने में स्वादिष्ठ और स्वास्थ्यवर्धक है, वहीं दूसरी ओर मुनाफे के लिहाज से किसानों के लिए बहुत अच्छी दलहनी फसल है, जो मिट्टी की बिगड़ती हुई सेहत को भी कुछ हद तक सुधारने का माद्दा रखती है. इस के दानों का बाजार मूल्य दूसरी दलहनी फसलों की बनिस्बत कई गुना ज्यादा होता है. 
राजमा की खेती परंपरागत ढंग से देश के पहाड़ी क्षेत्रों में की जाती है, पर इस फसल की नवीनतम प्रजातियों के विकास के बाद इसे उत्तरी भारत के मैदानी भागों में भी सफलतापूर्वक उगाया जाने लगा है. थोड़ी जानकारी व सावधानी इस फसल में रखना महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह फसल जहां एक ओर दूसरी दलहनी फसलों के बजाय सर्दियों के प्रति अधिक संवेदी है, तो वहीं दूसरी ओर इस की जड़ों में नाइट्रोजन एकत्रीकरण की क्षमता भी कम पाई जाती है.

जलवायु

 भारत में रबी की ऋतू में राजमा की खेती का प्रचलन मैदानी क्षेत्र में विगत कुछ वर्षों से हुआ है . इस फसल को अभी कुछ वर्षों से ही मान्यता मिली है , इसे दाल के काम में लाते हैं , इसकी हरी फलियों का उपयोग सब्जी के रूप में किया जाता है और भूसे का उपयोग पशुओं के लिए किया जाता है . इसके दानों में प्रोटीन की मात्रा 24 प्रतिशत तक रहती है . 

भूमि 

दोमट तथा हलकी दोमट भूमि उपयुक्त है , पानी के निकास की उत्तम व्यवस्था होनी चाहिए . भूमि का पी एच मान . 6.5-7.5 हो तो अच्छी मानी जाती है . लवणीय सोडिक भूमि उचित नहीं होती . 

भूमि की  तैयारी 

 प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करने पर खेत तैयार हो जाता है तथा , बोवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी अति आवश्यक है , राजमा महीन भूमि की तैयारी चाहता है . राजमा की खेती रबी ऋतु में की जाती है। अभी इसके लिए उपयुक्त समय है। यह मैदानी क्षेत्रों में अधिक उगाया जाता है। राजमा की अच्छी पैदावार हेतु 10 से 27 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान की आवश्यकता पड़ती है। राजमा हल्की दोमट मिट्टी से लेकर भारी चिकनी मिट्टी तक में उगाया जा सकता है।

बीज दर

बीज दर की बात है, तो इस की खेती के लिए 120-140 किलोग्राम बीज की प्रति हेक्टेयर जरूरत होती है. खास बात यह है कि राजमा से अधिकतम उत्पादन लेने के लिए ढाई से साढ़े 3 लाख पौधे प्रति हेक्टेयर जरूरी होते हैं. पौधों की यह संख्या दानों के भार के अनुसार हासिल की जा सकती है.खरीफ की फसल के बाद खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद में दो-तीन जुताई कल्टीवेटर या देशी हल से करनी चाहिए। खेत को समतल करते हुए पाटा लगाकर भुरभुरा बना लेना चाहिए इसके पश्चात ही बुआई करनी चाहिए।

राजमा की उन्नतशील प्रजातियां

तराइ एवं भावरः- फरवरी का प्रथम पखवाडा़ जायद में एवं अक्टबूर का दसूरा पखवाडा़ रबी में।

पर्वतीय क्षेत्रः- जनू का द्वितीय पखवाडा़ खरीफ में।
बीज की मात्राः- 75-80 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर।
राजमा में प्रजातियां जैसे कि पीडीआर 14, इसे उदय भी कहते है। मालवीय 137, बीएल 63, अम्बर, आईआईपीआर 96-4, उत्कर्ष, आईआईपीआर 98-5, एचपीआर 35, बी, एल 63 एवं अरुण है।

- राजमा के बीज की मात्र 120 से 140 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर लगती है। बीजोपचार 2 से 2.5 ग्राम थीरम से प्रति किलोग्राम बीज की मात्र के हिसाब से बीज शोधन करना चाहिए।
- राजमा की बुआई बुआई लाइनों में करनी चाहिएढ्ढ लाइन से लाइन की दूरी 30 से 40 सेंट मीटर रखते है, पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर रखते है। इसकी बुआई 8 से 10 सेंटीमीटर की गहराई पर करते हैं।

खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग

राजमा के लिए 120 किलोग्राम नत्रजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस एवं 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर तत्व के रूप में देना आवश्यक है। नेत्रजन की आधी मात्रा, फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय तथा बची आधी नेत्रजन की आधी मात्रा खड़ी फसल में देनी चाहिए। इसके साथ ही 20 किलोग्राम गंधक की मात्रा देने से लाभकारी परिणाम मिलते है। 20 प्रतिशत यूरिया के घोल का छिड़काव बुवाई के बाद 30 दिन तथा 50 दिन में करने पर उपज अच्छी मिलती है।
सिंचाई कब करनी चाहिए और कितनी मात्रा में करनी चाहिए
राजमा में 2 या 3 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। बुआई के 4 सप्ताह बाद प्रथम सिंचाई हल्की करनी चाहिए। बाद में सिंचाई एक माह बाद के अंतराल पर करनी चाहिए खेत में पानी कभी नहीं ठहरना चाहिए।


Wednesday 27 September 2017

शिमला मिर्च की उन्नत खेती

शिमला मिर्च की उन्नत खेती (Advanced farming of capsicum)


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सब्जियों मे शिमला मिर्च की खेती का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इसको ग्रीन पेपर, स्वीट पेपर, बेल पेपर आदि विभिन्न नामो से जाना जाता है। आकार एवं तीखापन मे यह मिर्च से भिन्न होता है। इसके फल गुदादार, मांसल, मोटा, घण्टी नुमा कही से उभरा तो कही से नीचे दबा हुआ होता है। शिमला मिर्च की लगभग सभी किस्मो मे तीखापन अत्यंत कम या नही के बराबर पाया जाता है। इसमे मुख्य रूप से विटामिन ए तथा सी की मात्रा अधिक होती है। इसलिये इसको सब्जी के रूप मे उपयोग किया जाता है। यदि किसान इसकी खेती उन्नत व वैज्ञानिक तरीके से करे तो अधिक उत्पादन एवं आय प्राप्त कर सकता है। इस लेख के माध्यम से इन्ही सब बिंदुओ पर प्रकाश डाला गया है।

जलवायुः-

यह नर्म आर्द्र जलवायु की फसल है। छत्तीसगढ़ मे सामान्यतः शीत ऋतु मे तापमान 100 सेल्सियस से अक्सर नीचे नही जाता एवं ठंड का प्रभाव बहुत कम दिनो के लिये रहने के कारण इसकी वर्ष भर फसले ली जा सकती है। इसकी अच्छी वृद्धि एवं विकास के लिये 21-250 सेल्सियस तापक्रम उपयुक्त रहता है। पाला इसके लिये हानिकारक होता है। ठंडे मौसम मे इसके फूल कम लगते है, फल छोटे, कड़े एवं टेढ़े मेढ़े आकार के हो जाते है तथा अधिक तापक्रम (330 सेंल्सि. से अधिक) होने से भी इसके फूल एवं फल झड़ने लगते है।

भूमिः-

इसकी खेती के लिये अच्छे जल निकास वाली चिकनी दोमट मृदा जिसका पी.एच. मान 6-6.5 हो सर्वोत्तम माना जाता है। वहीं बलुई दोमट मृदा मे भी अधिक खाद डालकर एवं सही समय व उचित सिंचाई प्रबंधन द्वारा खेती किया जा सकता है। जमीन के सतह से नीचे क्यारियों की अपेक्षा इसकी खेती के लिये जमीन की सतह से ऊपर उठी एवं समतल क्यारियां ज्यादा उपयुक्त मानी जाती है।

उन्नत किस्मेः-

शिमला मिर्च की उन्नत किस्मों मे अर्का गौरव, अर्का मोहिनी, किंग आॅफ नार्थ, कैलिफोर्निया वांडर, अर्का बसंत, ऐश्वर्या, अलंकार, अनुपम, हरी रानी, पूसा दिप्ती, भारत, ग्रीन गोल्ड, हीरा, इंदिरा प्रमुख है।

खाद एवं उर्वरकः-

खेत की तैयारी के समय 25-30 टन गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद डालना चाहिये। आधार खाद के रूप मे रोपाई के समय 60 कि.ग्रा. नत्रजन, 60-80 कि.ग्रा. स्फुर एवं 40-60 कि.ग्रा. पोटाश डालना चाहिये। एवं 60 कि.ग्रा. नत्रजन को दो भागो मे बांटकर खडी फसल मे रोपाई के 30 एवं 55 दिन बाद टाप ड्रेसिंग के रूप मे छिड़कना चाहिये।

नर्सरी तैयार करनाः-

3 x 1 मी. आकार के जमीन के सतह से ऊपर उठी क्यारियां बनाना चाहिये। इस तरह से 5-6 क्यारियां 1 हेक्टेयर क्षेत्र के लिये पर्याप्त रहती है। प्रत्येक क्यारी मे 2-3 टोकरी गोबर की अच्छी सड़ी खाद डालना चाहिये। मृदा को उपचारित करने के लिये 1 ग्रा. बाविस्टिन को प्रति लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करना चाहिये। लगभग 1 कि.ग्रा. बीज/हेक्टेयर क्षेत्र मे लगाने के लिये पर्याप्त रहता है। बीजो को बोने के पूर्व थाइरम, केप्टान या बाविस्टिन के 2.5 ग्रा./किलो बीज के हिसाब से उपचारित करके कतारो मे प्रत्येक 10 से.मी. की दूरी मे लकडी या कुदाली की सहायता से 1 से.मी. गहरी नाली बनाकर 2-3 से.मी. की दूरी मे बुवाई करना चाहिये। बीजो को बोने के बाद गोबर की खाद व मिट्टी के मिश्रण से ढंककर हजारे की सहायता से हल्की सिंचाई करना चाहिये। यदि संभव हो तो क्यारियों को पुआल या सूखी घांस से कुछ दिनो के लिये ढंक देना चाहिये।

बीज एवं पौधरोपण का समय :-

  बीज बोने का समय            पौध रोपाई का समय
    जून-जुलाई                    जुलाई-अगस्त
   अगस्त-सितंबर                 सितंबर-अक्टूबर
    नवंबर-दिसंबर                दिसंबर-जनवरी

रोपण एवं दूरीः-

सामान्यतः 10-15 से.मी. लंबा, 4-5 पत्तियों वाला पौध जो कि लगभग 45-50 दिनो मे तैयार हो जाता है रोपण के लिये प्रयोग करें। पौध रोपण के एक दिन पूर्व क्यारियों मे सिंचाई कर देना चाहिये ताकि पौध आसानी से निकाला जा सके। पौध को शाम के समय मुख्य खेत मे 60 x 45 से.मी. की दूरी पर लगाना चाहिये। रोपाई के पूर्व पौध की जड़ को बाविस्टिन 1 ग्रा./ली. पानी के घोल मे आधा घंटा डुबाकर रखना चाहिये। रोपाई के बाद खेत की हल्की सिंचाई करें।

सिंचाईः-

शिमला मिर्च की फसल को कम एवं ज्यादा पानी दोनो से नुकसान होता है। यदि खेत मे ज्यादा पानी का भराव हो गया हो तो तुरंत जल निकास की व्यवस्था करनी चाहिये। मृदा मे नमी कम होने पर सिंचाई करना चाहिये। नमी की पहचान करने के लिये खेत की मिट्टी को हाथ मे लेकर लड्डू बनाकर देखना चाहिये यदि मिट्टी का लड्डू आसानी से बने तो मृदा मे नमी है यदि ना बने तो सिंचाई कर देना चाहिये।  सामान्यतः गर्मियो मे 1 सप्ताह एवं शीत ऋतु मे 10-15 दिनो के अंतराल पर सिंचाई करना चाहिये।

निराई - गुड़ाईः-

रोपण के बाद शुरू के 30-45 दिन तक खेत को खरपतवार मुक्त रखना अच्छे फसल उत्पादन की दृष्टि से आवश्यक है। कम से कम दो निराई-गुड़ाई लाभप्रद रहती है। पहली निराई-गुड़ाई रोपण के 25 एवं दूसरी 45 दिन के बाद करना चाहिये। पौध रोपण के 30 दिन बाद पौधो मे मिट्टी चढ़ाना चाहिये ताकि पौधे मजबूत हो जाये एवं गिरे नही। यदि खरपतवार नियंत्रण के लिये रसायनो का प्रयोग करना हो तो खेत मे नमी की अवस्था मे पेन्डीमेथेलिन 4 लीटर या एलाक्लोर (लासो) 2 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें।

फूल व फल गिरने का रोकथामः-

शिमला मिर्च मे फूल लगना प्रारंभ होते ही प्लानोफिक्स नामक दवा को 2 मि.ली./ली. पानी मे घोलकर पहला छिड़काव करना चाहिये एवं इसके 25 दिन बाद दूसरा छिड़काव करे। इससे फूल का झड़ना कम हो जाता है फल अच्छे आते है एवं उत्पादन मे वृ़िद्ध होती है।

पौध सरंक्षणः-

शिमला मिर्च मे लगने वाले प्रमुख कीट एवं रोग का वर्णन व रोकथाम निम्न प्रकार है-

प्रमुख कीटः-

इसमे प्रमुख रूप से माहो, थ्रिप्स, सफेद मक्खी व मकडी का प्रकोप ज्यादा होता है।

रोकथामः- 

इन कीटो से रोकथाम के लिये डायमेथोएट (रोगार) या मिथाइल डेमेटान या मेलाथियान का 1 मि.ली./ली. पानी के हिसाब से घोल बनाकर 15 दिन के अंतराल पर 2-3 बार छिड़काव करे। फलों के तुड़ाई पश्चात ही रसायनो का छिड़काव करना चाहिये।

प्रमुख रोगः-

इसमे प्रमुख रूप से आद्रगलन, भभूतिया रोग, उकटा, पर्ण कुंचन एवं श्यामवर्ण व फल सड़न का प्रकोप होता है।

आर्द्रगलन रोग:-

 इस रोग का प्रकोप नर्सरी अवस्था में होता है। इसमे जमीन की सतह वाले तने का भाग काला पडकर गल जाता है। और छोटे पोधे गिरकर मरने लगते हैं।

रोकथाम:-

 बुआई से पूर्व बीजों को थाइरम, केप्टान या बाविस्टिन 2.5-3 ग्राम प्रति किलों बीज की दर से उपचारित कर बोयें। नर्सरी, आसपास की भूमि से 6 से 8 इंच उठी हुई भूमि में बनावें। मृदा उपचार के लिये नर्सरी में बुवाई से पूर्व थाइरम या कैप्टान या बाविस्टिन का 0.2 प्रतिशत सांद्रता का घोल मृदा मे सींचा जाता है जिसे ड्रेंचिंग कहते है। रोग के लक्षण प्रकट होने पर बोडों मिश्रण 5ः5ः50 या काॅपर आक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कार छिडकाव करें।

भभूतिया रोगः-

 यह रोग ज्यादातर गर्मियो मे आता है। इस रोग मे पत्तियों पर सफेद चूर्ण युक्त धब्बे बनने लगते हैै। रोग की तीव्रता होने पर पत्तियाॅं पीली पड़कर सूखने लगती पौधा बौना हो जाता है।

रोकथामः-

 रोग से रोकथाम के लिये सल्फेक्स या कैलेक्सिन का 0.2 प्रतिशत सांद्रता का घोल 15 दिन के अंतराल पर 2-3 बार छिड़काव करे। 

जीवाणु उकठा:-

 इस रोग मे प्रभावित खेत की फसल हरा का हरा मुरझाकर सूख जाता है। यह रोग पौधें में किसी भी समय प्रकोप कर सकता है।

रोकथाम:-

 ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करके खेतों को कुछ समय के लिये खाली छोड देना चाहिये।
 फसल चक्र अपनाना चाहिए। 
रोग शहनशील जातियां जैसे अर्का गौरव का चुनाव करना चाहिये। 
प्रभावित खडी फसल में रोग का प्रकोप कम करने के लिये गुडाई बंद कर देना चाहिए 
क्योंकि गुडाई करने से जडों में घाव बनतें है व रोग का प्रकोप बढता है।
 रोपाई पूर्व खेतों में ब्लीचिंग पाउडर 15 कि.गा्र. प्रति हेक्टेयर
 की दर से भूमि में मिलायें।

पर्ण कुंचन (लीफ कर्ल ) व मोजेकः-

 ये विषाणु जनित रोग है। पर्ण कुंचन रोग के कारण पौधों के पत्ते सिकुडकर मुड़ जाते है तथा छोटे व भूरे रंग युक्त हो जाते हैं। ग्रसित पत्तियां आकार मे छोटी, नीचे की ओर मुडी हुई मोटी व खुरदुरी हो जाती है। मोजेक रोग के कारण पत्तियों पर गहरा व हल्का पीलापन लिए हुए हरे रंग के धब्बे बन जाते है। उक्त रोगों को फैलाने में कीट अहम भूमिका निभाते हैं! प्रभावित पौधे पूर्ण रूप से उत्पादन देने मे असमर्थ सिद्ध होते है रोग द्वारा उपज की मात्रा व गुणवत्ता दोनो प्रभावित होती है।

रोकथामः-

 बुवाई से पूर्व कार्बोफ्यूरान 3 जी, 8 से 10 ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से भूमि में मिलावें। पौध रोपण के 15 से 20 दिन बाद डाइमिथोएट 30 ई.सी. या इमिडाक्लोप्रिड एक मिली लीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। यह छिड़काव 15 से 20 दिन के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार दोहरावें। फूल आने के बाद उपरोक्त कीटनाषी दवाओं के स्थान पर मैलाथियान 50 ई.सी. एक मिली लीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें!

श्याम वर्ण व फल सड़नः-

 रोग के शुरूवाती लक्षणो मे पत्तियो पर छोटे-छोटे काले धब्बे बनते है। रोग के तीव्रता होने पर शाखाएं ऊपर से नीचे की तरफ सूखने लगती है। फलों के पकने की अवस्था मे छोटे-छोटे काले गोल धब्बे बनने लगते है बाद मे इनका रंग धूसर हो जाता है जिसके किनारो पर गहरे रंग की रेखा होती है। प्रभावित फल समय से पहले झड़ने लगते है। अधिक आद्रता इस रोग को फैलाने मे सहायक होती है।

रोकथामः-

 फसल चक्र अपनाना चाहिये। स्वस्थ एवं उपचारित बीजों का ही प्रयोग करे। मेन्कोजेब, डायफोल्टान, या ब्लाइटाॅक्स का 0.2 प्रतिशत सांद्रता का घोल बनाकर 15 दिन के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करे।  

फलो की तुड़ाई एवं उपजः-

शिमला मिर्च की तुड़ाई पौध रोपण के 65-70 दिन बाद प्रारंभ हो जाता है जो कि 90-120 दिन तक चलता है। नियमित रूप से तुड़ाई का कार्य करना चाहिये। उन्नतशील किस्मो मे 100-120 क्ंिवटल एवं संकर किस्मो मे 200-250 क्ंवटल/हेक्टेयर उपज मिलती है।